
यह साल 2000 की बात है, जब अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने कल्पना चावला को दूसरी बार अंतरिक्ष यात्रा के लिए चुना था. यात्रा 2003 में संपन्न होने वाली थी. 16 जनवरी, 2003 को यात्रा शुरू हुई.
अंतरिक्ष यान था- कोलंबिया (शुद्ध वैज्ञानिक नाम एसटीएस-107). 16 दिनों की अंतरिक्षीय परिक्रमा के बाद यह यान एक फरवरी को वापस धरती की ओर लौटने वाला था. वापसी के क्रम में जब यह धरती से 2 लाख फुट की ऊंचाई पर था कि इसमें एक धमाका हुआ.
यान के परखच्चे उड़ गए. कल्पना के अलावा इसमें 6 अंतरिक्ष यात्री और सवार थे. ये सभी अकाल मौत की गोद में समा गए. इंडिया टुडे के 16 फरवरी, 2003 के अंक में इस पर विस्तृत कवर स्टोरी छपी थी. अमेरिका के ह्यूस्टन से अनिल पद्मनाभन, तो करनाल से रमेश विनायक ने इस त्रासद कहानी को इतिहास के हवाले किया था. यह त्रासदी कैसे हुई, इसकी बानगी कवर स्टोरी की शुरुआत में ही देखने को मिलती है. दोनों संवाददाता लिखते हैं, "उस दिन फ्लोरिडा के केप कैनवेरल के साफ आकाश में ध्वनि से 18 गुना तेज रफ्तार से धरती की ओर आते 25 लाख पुर्जों वाले कोलंबिया के टूटते ही चावला को नियति की क्रूरता का एहसास हो गया होगा."

"धरती से 2 लाख फुट ऊपर आकाश में आग का एक सफेद गोला फूटते ही एक असाधारण अंतरिक्ष यात्री अकाल मृत्यु के साथ अमरता की गोद में सो गई. कोलंबिया यान जब टेक्सस, अरकांसस और लुइसियाना के ऊपर टुकड़ों में बिखरा, तब तक चावला अंतरिक्ष में पूरे 760 घंटे बिता चुकी थीं. वे धरती के 252 चक्कर के बराबर 1.04 करोड़ किमी की यात्रा कर चुकी थीं. कल्पना एक ऐसी साहसी शख्स थीं, जो सपनों को साकार करने के लिए इतनी दूर तक चली गईं."
पर कल्पना एक चहकती, नटखट नन्ही बालिका से लक्ष्य को समर्पित एक साहसी शख्स कैसे बन गईं? हरियाणा के एक उनींदे से शहर करनाल से निकल कर अंतरिक्ष तक का सफर, एक छोटे से कस्बे की एक मध्यमवर्गीय परिवार की लड़की के लिए कैसे संभव हुआ? स्टोरी में आगे इसका जवाब मिलता है, "करनाल के टैगोर बाल निकेतन स्कूल की यह सबसे चर्चित छात्रा पंजाब इंजीनियरिंग कॉलेज (पीईसी) में वैमानिक इंजीनियरिंग का अध्ययन करने वाली पहली छात्रा बनी थी.
जिस क्षेत्र में भारत के किसी शख्स ने कोई उपलब्धि हासिल नहीं की थी उसमें चावला ने अकेले दम पर उड़ान भरी. न तो उनके साथ आईआईटी का टैग था, न वे सिलिकॉन वैली की तकनीकी राह पर थीं. बचपन में जहाज के मॉडल बनाने की शौकीन चावला 'आकाशगंगा की निवासी' बनना अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानती थीं." दोनों संवाददाता आगे लिखते हैं, "मिस वर्ल्ड और मिस यूनीवर्स को देखते-सुनते रहने वाले इस देश के जनमानस के लिए वे एक ऐसी नायिका थीं जो बचपन में अपने बाल खुद काटा करती थीं और करनाल फ्लाइंग क्लब की सैर बड़े उत्साह से किया करती थीं."

चावला अमेरिका कैसे पहुंचीं? उनका नासा तक पहुंचना कैसे हुआ? स्टोरी में इसका बयान कुछ यूं हैं, "अमेरिका तो वे अपनी अदम्य इच्छाशक्ति के चलते आई थीं. शादी के लिए घरवालों के बढ़ते दबाव से निजात पाने की कोशिश में लगीं चावला की भेंट संयोग से एक प्रवासी भारतीय परिवार के अपने एक मित्र से हो गई. उस उम्र में शादी को लेकर उनके आक्रोश को देखते हुए मित्र ने अमेरिका में पढ़ाई आगे बढ़ाने का सुझाव दिया." चावला के पिता ने तब इंडिया टुडे को बताया था कि मोंटू (चावला का घर का नाम) की अमेरिका रवानगी को लेकर उनमें काफी झिझक थी. रवानगी से पांच दिन पहले वे राजी हुए. चावला ने ब्रिटिश एयरवेज की उड़ान छूटते-छूटते पकड़ी. और फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा.
चावला ने स्नातकोत्तर के बाद 1988 में कोलाराडो विवि से डॉक्टरेट की उपाधि हासिल की. लेकिन आकाश में उड़ना तो जैसे उनका जुनून था. पायलट का लाइसेंस उन्होंने 1988 से 1994 के बीच सैन फ्रांसिस्को में रहते हुए ही हासिल कर लिया था. पर उनके करियर की असली शुरुआत नासा एमेस शोध केंद्र में हुई. दिसंबर, 1994 में 2962 अर्जियों में से छंटाई के बाद नासा से उनका बुलावा आया. मार्च, 1995 में वे अंतरिक्ष विज्ञानियों के 15वें समूह के उम्मीदवार के रूप में जॉनसन स्पेस सेंटर में गईं. सितारों की दुनिया में पहुंचने के लिए उनकी तैयारी शुरू हो गई.
संवाददाता लिखते हैं, "सुनने में ये विवरण भले ही आसान लगे लेकिन सामान्य आदमी के लिए यह आसान है नहीं. अंतरिक्ष प्रशिक्षण अत्यंत कठिन है जिसमें नब्ज की गति दर सेकेंडों में 72 से 102 पर पहुंच सकती है. कदम-कदम पर पीड़ा का एहसास होता है. अमूमन इसमें चुस्त, सुप्रशिक्षित टेस्ट पायलटों को लिया जाता है. बहरहाल, इससे चावला के कदम पीछे नहीं हुए. नवंबर, 1996 में उन्होंने कल्पना से वास्तविकता में छलांग लगाई. उन्हें मिशन विशेषज्ञ का दर्जा हासिल हुआ. और 1997 के अंत में 16 दिन के एक मिशन में उन्हें एसटीएस-87 पर प्रमुख रोबो आर्म ऑपरेटर की भूमिका हासिल हुई."

कल्पना की अंतरिक्ष में यह पहली उड़ान थी, जो सफल रही. इसके बाद चावला पर विज्ञान संबंधी उपग्रह स्पार्टन के छोड़े जाने के दौरान गफलत करने के भी आरोप लगे. यह उपग्रह सूर्य के अध्ययन के लिए छोड़ा जाना था. कवर स्टोरी के मुताबिक, "स्पेसवाक करने वाले दो अंतरिक्षविज्ञानियों ने दस्ताने वाले अपने हाथों से 3,000 पौंड के उपग्रह को पकड़ कर बचा लिया. मगर इससे शोध संबंधी आंकड़ें उपलब्ध न हो सके." अमूमन नासा में गल्तियां माफ नहीं की जातीं लेकिन यह छोटी चूक थी. इसलिए चावला को 'असाधारण अंतरिक्ष यात्री' होने के कारण माफ कर दिया गया.
चावला दूसरा अवसर पाने को व्यग्र थीं. संवाददाता लिखते हैं, "जनवरी 1998 में वे दूसरी बार अंतरिक्ष के ओलंपिक में शामिल होने जा रही थीं. 2000 में उन्हें एसटीएस-107 के उड़ान दल के लिए चुना गया, जो 2003 में छोड़ा जाना था. चावला को यह जिम्मेदारी सिर्फ सौभाग्य से नहीं मिली. उन्होंने इसके लिए कठिन परिश्रम किया था." लेकिन अंतरिक्ष यात्री बनने का एकमात्र ध्येय और इरादा लेकर चलने के बावजूद कल्पना जीवंत स्वभाव की थीं. कोलंबिया में वे 20 सीडी साथ लेकर गई थीं जिनमें थेलोनियस मोंक और स्टीव वै से लेकर हरिप्रसाद चौरसिया, रविशंकर और नुसरत फतेह अली खान तक के एल्बम मौजूद थे.
अपने देश भारत से उनका लगाव कैसा था, इसके बारे में टिप्पणी करते हुए दोनों संवाददाता लिखते हैं, "चावला ने अपने दुबले लेकिन मजबूत कंधों पर हमारी महत्वाकांक्षाओं का भार उठाते हुए भारत की आत्मा को छुआ. अमेरिकी नागरिक बन जाने पर भी उनका स्वभाव नहीं बदला और न ही वे अपनी जड़ों को भूलीं. जब भी किसी टीवी चैनल ने नासा में उन्हें लोगों को गर्व से अपना यह परिचय देते हुए दिखाया कि 'मैं भारत में करनाल से हूं' तो कहीं-न-कहीं किसी-न-किसी का दिल भर आता."

बहरहाल, उस दिन फ्लोरिडा स्थित कैनेडी स्पेस सेंटर में 1 फरवरी को सुबह के 8.53 बजे थे और भारत में शाम के सात बजकर कुछ मिनट हुए थे. टीवी स्टेशन एकाएक ताजा, लगातार खबर देने लगे. दोनों संवाददाता लिखते हैं, "उनकी मृत्यु अनेक लोगों को विचलित कर गई. इसका सबूत यह है कि करनाल में उनके घर पर श्रद्धांजलि देने पहुंचे लोग इंडिया टुडे के आवरण पर छपी उनकी तस्वीर पर मालाएं चढ़ा रहे थे. 24 घंटे के समाचार चैनल आज तक पर उनके प्रति श्रद्धांजलि भेजने के आग्रह पर 24 घंटे के अंदर एक लाख से अधिक दर्शकों ने शोक संदेश भेज दिए."
वे आगे लिखते हैं, "41 वर्षीया चावला की मृत्यु पर उठी शोक की लहर थमने के बाद उन्हें याद करने और सम्मानित करने की होड़ मच गई. प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इसरो के मौसम संबंधी नए उपग्रह को कल्पना-1 नाम दिया, तो हरियाणा सरकार ने छात्राओं के लिए कल्पना चावला छात्रवृत्ति की शुरुआत की. चंडीगढ़ प्रशासन ने वैमानिक इंजीनियरिंग के श्रेष्ठ छात्र को 25000 नकद और स्वर्ण पदक देने का एलान किया और हिमगिरी छात्रावास, जहां कभी कल्पना रहती थीं, नामकरण उन्हीं के नाम पर कर दिया गया. यहां तक की उनके पूर्व संस्थान पीईसी में, जिसने अपने स्वर्ण जयंती समारोह में उन्हें सम्मानित करने का प्रस्ताव ठुकरा दिया था, अब उनके नाम पर एक शोध केंद्र स्थापित करने पर विचार कर रहा था."