
पढ़ाई की दुनिया में दाखिल होते ही कुछ चंद नाम जो बच्चों को रटवाए जाते हैं, उनमें से एक है - मोहनदास करमचंद गांधी. हर साल 2 अक्टूबर को गांधी जयंती मनाते वक्त यह बातें चलती हैं कि अब देश में 'बापू' का केवल नाम ही रह गया है. उनके चेहरे को नोटों पर छाप, गांधी के विचारों को कब का भुला दिया गया है.
ऐसे में 2019 में गांधी जयंती के अवसर पर इंडिया टुडे मैगजीन ने महात्मा गांधी पर एक विशेषांक निकाला. इसमें देश-दुनिया के कई नामी विचारकों ने अपने लेख से यह साबित किया कि भारत में गांधी की विरासत जस की तस धरी हुई है. आंदोलन के तरीकों से लोगों के मुहावरों तक, गांधी अब भी देश के जेहन में बसते हैं.

ऑक्सफर्ड विश्वविद्यालय में भारतीय इतिहास के प्रोफेसर फैसल देवजी ने महात्मा गांधी पर लिखे अपने लेख में कहा, "गांधी अगर आज भी हमारे बीच मौजूद हैं तो इसका श्रेय केवल और केवल उनके आलोचकों को जाता है, जो उन्हें विस्मृत ही नहीं होने देते. आलोचकों के लिए महात्मा गांधी अब भी जीवित हैं और वे पीढ़ी दर पीढ़ी उनकी नई-नई विफलताएं तलाशते रहते हैं."
आखिर अपने आलोचकों के बीच गांधी इतने जीवित व्यक्तित्व क्यों हैं? इस सवाल के जवाब में फैसल बताते हैं कि ये आलोचक शायद वे लोग हैं जिन्हें उनके संतत्व में आई कमी से लगता है कि उनके साथ धोखा हुआ है. गांधी की कोई ना कोई विफलता जानने के साथ ही धोखा खाने का यह भाव हर पीढ़ी में नया हो जाता है. चाहे बात 1980 के दशक में नारीवाद की दूसरी लहर के दौरान महिलाओं के बारे में उनके विचारों को लेकर हो या 1990 के दशक में मंडल आयोग के बाद गांधी के जातिगत पूर्वाग्रहों पर फिर से शुरू हुई चर्चा हो, उनकी आलोचनाएं भी उनतक लौटने का मौका देशवासियों को देती रहती हैं.
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के तत्कालीन अध्यक्ष और 1970 से 1979 तक अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के राष्ट्रीय सचिव रहे रामबहादुर राय ने इंडिया टुडे विशेषांक में गांधी और संघ की बात छेड़ी. एक वाकया बताते हुए उन्होंने कहा, "बीते साल 17 से 19 सितंबर को दिल्ली के विज्ञान भवन में एक व्याख्यानमाला हुई. वक्ता थे - डॉ. मोहन भागवत. उन्हें सुनने के लिए आतुरता थी. विज्ञान भवन छोटा पड़ गया था. वे बोले, प्रश्नों के उत्तर दिए. संभवत: पहली बार कोई विवाद उत्पन्न नहीं हुआ. विवाद का संघ से नाता बहुत पुराना है. उनसे जो-जो प्रश्न पूछे गए, उनमें किसी ने भी यह नहीं पूछा कि संघ गांधी जी के रास्ते पर क्यों चलना चाहता है? ऐसा क्यों हुआ? इसका एक कारण यह हो सकता है कि मान लिया गया हो कि संघ ने गांधी जी को अपना लिया है. इसके उलट भी हो सकता है. जानने की बात दूसरी है. वह यह कि महात्मा गांधी और संघ के संबंध कब-कब बने और उससे संघ ने क्या सीखा और गांधी विचार को अपनाया?"
रामबहादुर राय ने आगे बताया कि एक विवाद संघ में है. दूसरा विवाद संघ से बाहर है. पूरे विवाद का यही दो विभाजन करें तो बात थोड़ी सरल हो जाएगी. संघ में गांधी को हिंदू-मुस्लिम संबंधों के दृष्टिकोण से ज्यादा देखा गया है. दूसरे संघ को राजनैतिक दृष्टि से देखते रहे हैं. इस आधार पर संघ पर आक्षेप लगे, भले ही वे निराधार हों. उन आक्षेपों को गिनाने की जरूरत नहीं है. उसे सब जानते हैं.
महात्मा गांधी की अपील पर असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन में जेल काटने वाले डॉ. हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ क्यों बनाया, इस प्रश्न पर 'शुरू से ही संवाद और विवाद' है. खिलाफत आंदोलन से भविष्य में जो दुष्परिणाम हो सकता है, उसे न होने देने के लिए डॉ. हेडगेवार ने कांग्रेस छोड़ी और एक राष्ट्रीय आंदोलन खड़ा करने का बीड़ा उठाया. वही समय है जब महात्मा गांधी कांग्रेस की कमान संभालने जा रहे थे. संभ्रांत नागरिकों और वकीलों की कांग्रेस को जन साधारण से जोडऩे के लिए उन्होंने कांग्रेस को स्वराज्य की भारतीय सभ्यतामूलक जड़ों से जोड़ा.
सतही तौर पर महात्मा गांधी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राह समानांतर है, जो कहीं मिलती नहीं है. डॉ. हेडगेवार क्रांतिकारियों के संपर्क में हैं तो महात्मा गांधी अहिंसा की निष्ठा पर अडिग. यह समानांतर धारा है. पर गहरे उतरें तो दोनों का स्रोत एक है. वह क्रांति में है.
इलिनोय विश्वविद्यालय, अरबाना-शैंपेन में पढ़ाने वाले राजमोहन गांधी का भी लेख इस विशेषांक में छपा. वे गांधी की लोकप्रियता के स्थायी होने से इत्तेफाक रखते हुए कहते हैं, "आज सुरक्षित और अविवादित गांधी की विरासत उनका यह उदाहरण है कि बिजनेस स्कूल के पाठ्यक्रमों में उन्हें एक टीम बिल्डर के रूप में पढ़ाया जाता है. लेकिन अब वे उस देश में लोकप्रिय नहीं रह गए हैं जिसने उन्हें राष्ट्रपिता का दर्जा दे रखा था."
हालांकि राजमोहन यह भी जोड़ते हैं कि अगर विभिन्न धर्मों वाले हमारे देश में आज बहुत से भारतीय खुलेआम या गुप्त रूप से गांधी के समान अधिकारों, परस्पर सम्मान और आपसी दोस्ती के विचारों को नापसंद करते हैं तो भारत और दुनिया भर में ऐसे लोग भी कम नहीं हैं जो इसी कारण उनसे प्यार करते हैं. हमारी दुनिया के इस मौजूदा दौर में जहां डोनाल्ड ट्रंप सुर्खियां बटोरते हैं, डरे हुए अल्पसंख्यकों को परेशान किया जा रहा है और धरती के खतरों की उपेक्षा की जा रही है, एक गांधी जो 70 से ज्यादा साल पहले दुनिया छोड़ चुका है, अक्सर हमें आश्वस्त करने वाली ताकत का प्रतीक बन गया है. सत्य का साथ देने वाला अल्पसंख्यकों का यह संरक्षक मुस्कराते हुए अपने चरखे पर धागा कातते हुए नजर आता है.
कार्नेगी मेलन विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर और गांधीज सर्च फॉर द परफेक्ट डायट: ईटिंग विद द वर्ल्ड इन माइंड पुस्तक के लेखक निको स्लेट ने बताया कि हम गांधी से, उनकी विरासत और उनके आहार से क्या सीख सकते हैं. वे लिखते हैं, "गांधी ने खुद कई लोगों के साथ ही साथ अपनी गलतियों से भी बहुत कुछ सीखा. उनका आहार जुड़ाव का एक स्वरूप था. शायद यही गांधी के आहार से सीखने लायक सबसे बड़ा सबक है. सही खाने और सही जीवन जीने के हमारे संघर्ष में, हम कभी अकेले नहीं पड़ते."
यूनिवर्सिटी ऑफ हल, यूके, में पोलिटिकल फिलॉसफी के एमेरिटस प्रोफेसर और हाउस ऑफ लॉर्ड्स के सदस्य भीखू पारेख ने अपने लेख 'स्थायी विरासत' में लाठी लेकर चलते पतले-दुबले गांधी की ताकत बताते हुए लिखा, "एक-चौथाई सदी तक भारतीय राजनीति में उनका इतना बोलबाला रहा कि जिसने भी उनकी नाराजगी मोल ली, उसने राजनैतिक आत्महत्या की. वे अकेले भारतीय, बल्कि वाकई दुनिया के, नेता थे जिसने कई अलग-अलग स्तरों पर जिंदगी को छुआ और उनमें से हरेक के बारे में उनके पास कहने के लिए कुछ न कुछ था, चाहे वह स्वास्थ्य हो, साफ-सफाई, बच्चों का लालन-पालन, नैतिकता, यौनिकता, धर्म, अर्थव्यवस्था या आला दर्जे की राजनीति."
वे लिखते हैं कि गांधी को बुराई की फितरत और गहराई के बारे में सीमित समझ थी और उसकी मौजूदगी से वे हक्का-बक्का महसूस करते थे. इन और ऐसी ही निजी और दार्शनिक सीमाओं के बावजूद गांधी के विचारों में हमें रास्ता दिखाने की क्षमता है. उनके जीवन में, जिसे उन्होंने अपना संदेश कहा था, दुर्लभ गहराई और भव्यता थी.
दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रोफेसर अपूर्वानंद ने बताया कि गांधी की विरासत को राजनीतिक पार्टियों ने किस कदर अपने फायदे के लिए भुनाया मगर उनका अनुसरण ना कर सके. वे लिखते हैं, "सेक्यूलर पार्टियों ने भी गांधी के विचार, उनके राजनैतिक आचरण का अनुकरण नहीं किया और उन्हें हमारे सामूहिक जीवन में महज एक आनुष्ठानिक उपस्थिति में तब्दील कर दिया गया. हमारे स्कूलों और जन संस्कृति ने भी गांधी को बेमतलब बना दिया है. उन्हें लाइफस्टाइल गुरु, फीलगुड मौजूदगी बना दिया गया है— कुछ ऐसा जो वे कदापि नहीं थे. वे ताउम्र लोकप्रिय विश्वासों को चुनौती देते रहे और लोगों को अपने रवैयों पर दोबारा सोचने के लिए मजबूर करते रहे."
आज के गांधी पर अपूर्वानंद ने लिखा कि उन्हें ऐसे संत में बदल दिया गया जिसके कोई दुनियावी सरोकार नहीं थे. राजनैतिक गांधी को तो हमारे राजनैतिक तबके ने बहुत पहले ही तिलांजलि दे दी थी. अहिंसक गांधी न केवल ब्रिटिश बल्कि कई हमवतनों के लिए भी धमकी भरी मौजूदगी थे. अब हमारे सामने जिस अहिंसक गांधी को पेश किया जाता है, वे गैर-असहमत गांधी हैं जो राज्य की तमाम हिंसा को स्वीकार कर लेते हैं.
मगर इन तमाम हमलों के बावजूद गांधी अभी भी देश को इतना कुछ दे रहे हैं जिसकी कल्पना नहीं. इसी बात को समझाते हुए भारतीय विज्ञान संस्थान (आइआइएससी), बेंगलूरू में एसोसिएट प्रोफेसर वेणु माधव गोविंदु ने लिखा, "भारत ने स्वतंत्रता के बाद बहुत कुछ हासिल किया है. फिर भी, पाठक यह महसूस करेंगे कि ऊपर कही गई हर बात उन्हीं मूलभूत चुनौतियों की ओर इशारा करती है जिनका हम सामना कर रहे हैं. खासकर, आज की सत्ता उन मूल्यों को व्यापक रूप से नजरअंदाज करती है जिसकी नींव गांधी ने रखी और उसे आगे बढ़ाया. हम अपने खड़े किए संकट से दूसरे संकट के बीच झूलते रहते हैं—जैसे नोटबंदी, असम में एनआरसी, कश्मीर, मुस्लिमों के खिलाफ भीड़ की हिंसा-हताशा और डर का माहौल से देश विचलित है. भारतीय गणराज्य अस्तित्वगत संकट के कगार पर खड़ा है. इन असामान्य रूप से बुरे दौर में, प्रेम और न्याय के अपने संदेशों के माध्यम से, गांधी आगे की कठिन लेकिन सही दिशा दिखाते हैं."
लेकिन गांधी कब तक लोकप्रिय रहेंगे? अपने लेख में राजमोहन गांधी ने इसका जवाब देते हुए लिखा, "जब संयम आदर्श बन जाए, जब दमन और क्रूरता के खिलाफ कड़े शब्दों की जरूरत नहीं रह जाए, जब समाज और राज्य निर्दोष लोगों के जीवन और व्यक्ति की अंतरात्मा की सुरक्षा में तत्पर हो जाए तो गांधी को अलविदा कहने का समय आ जाएगा."