
जून की 14 तारीख को खबर आई कि राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने पाकिस्तानी नागरिक मोहम्मद आरिफ की दया याचिका खारिज कर दी है. आरिफ करीब 24 साल पहले ऐतिहासिक लाल किले पर हुए हमले में दोषी पाया गया था, और उसे मौत की सजा मिली. 22 दिसंबर, 2000 को हुए इस आतंकी हमले में कुल तीन लोग मारे गए थे, जिनमें दो सेना के जवान जबकि एक चौकीदार था.
इस हमले के बाद अक्तूबर, 2005 में ट्रायल कोर्ट ने अपने आदेश में आरिफ को मौत की सजा सुनाई. जिसके बाद उसने इसके खिलाफ दिल्ली हाई कोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट में भी अपील दायर की थी. लेकिन राहत नहीं मिली. इस साल 15 मई को उसने राष्ट्रपति से सजा माफी के लिए अर्जी लगाई, लेकिन 27 मई को राष्ट्रपति मुर्मू ने इसे खारिज कर दिया.
बहरहाल, आरिफ के पास मौका है कि वह विभिन्न आधारों पर राष्ट्रपति के इस फैसले को चुनौती दे सकता है. लेकिन यहां हम आपको वह कहानी सुनाने जा रहे हैं जो उस दिन लाल किले पर 22 दिसंबर के दिन घटी. इस घटना का ब्योरा 3 जनवरी, 2001 की इंडिया टुडे मैगजीन में दर्ज किया था संवाददाता कुमार संजय सिंह ने. तो आइए उन्हीं की इस रिपोर्ट के हवाले से जानते हैं कि उस दिन क्या हुआ था?
संजय लिखते हैं, "बीते शुक्रवार की रात तब नौ बजकर पांच मिनट हुए थे और लाल किले की बिजली गई हुई थी. खुद फर्नांडीस (तब के रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीस) के मुताबिक, हमलावर यमुना पुल की ओर वाले सलीमगढ़ गेट से किले में दाखिल हुए. चौकीदार अब्दुल्ला ठाकुर को गोली मारने के बाद हमलावर राजपूताना राइफल्स के ट्रांजिट कैंप की ओर लपके. गोलियों की आवाज पर चौकन्ना सैनिक उमाशंकर भी उनकी ओर बढ़ा और फिर इरादे खतरनाक देख आड़ लेने के लिए चारदीवारी की ओर लपका."
सिनेमाई अंदाज में संजय आगे लिखते हैं, "मगर गोलियों की बौछार ने उसे भी ढेर कर दिया. हमलावर ऑफिस कॉम्प्लेक्स की एक खिड़की से होकर स्टोर में गए और लांस नायक अशोक कुमार को करीब से तीन गोलियां मारीं. ठाकुर और उमाशंकर ने तो मौके पर ही दम तोड़ दिया था मगर अशोक की मौत अस्पताल के रास्ते में हो गई."
इस खतरनाक आतंकी हमले पर तब रक्षा मंत्री फर्नांडीस की प्रतिक्रिया कुछ इस तरह थी, "बाहर से इन विशाल दीवारों को देखकर धोखा न खाइए...अंदर सुरक्षा व्यवस्था नहीं के बराबर है." कुछ इसी तरह का बयान सेनाध्यक्ष एस. पद्मनाभन ने भी दिया, "किले के भीतर सुरक्षा व्यवस्था बहुत ही खराब हालत में है." इन दोनों की बातों को बल इसी बात से मिलता है कि जब किले में घटना हुई तो उस समय बिजली गई हुई थी.

रिपोर्ट में इस बात का जिक्र है कि इससे पहले भी लाल किले के भीतर चोरी, मारपीट की वारदातें होती रही हैं. उसमें सेना के अलावा सामान्य नागरिक भी रहते हैं और साउंड और म्यूजिक शो भी उसकी सुरक्षा के लिए एक खतरा ही है. यह आतंकी वारदात शुक्रवार के दिन हुई, जिस दिन किले में प्रवेश के लिए दो रुपये का टिकट भी नहीं लेना होता. किले के भीतर रात में होने वाला साउंड और म्यूजिक शो भी सुरक्षा बंदोबस्त के लिहाज से खतरनाक है. उच्च अधिकारी अभी इस संभावना को खारिज नहीं कर रहे कि हमलावर इसी कार्यक्रम के बहाने अंदर न घुस गए हों.
खैर, अशोक को गोली मारे जाने के जिक्र के बाद संजय रिपोर्ट में आगे लिखते हैं, "इसके बाद हमलावर मोती मस्जिद के दाहिनी ओर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के दफ्तर की ओर बढ़े. वहां उन्होंने पुलिस चौकी पर गोलियां दागीं मगर सेना सूत्रों के मुताबिक, तब तक 7 राजपूताना राइफल्स के त्वरित कार्रवाई दल ने उन्हें घेरने की कोशिश की. हमलावर इसके बाद, मुमताज महल संग्रहालय की तरफ से किले के पूर्वी परकोटे की ओर भागे. बाद में सेना के हाथ असद बुर्ज से लटकती एक रस्सी लगी."
वे आगे लिखते हैं, "माना जा रहा है कि हमलावर उसी रस्सी के सहारे नीचे उतरकर रिंग रोड की ओर भाग गए. मगर सूत्रों के मुताबिक, सेना की सर्चलाइट खराब होने से हमलावरों का फरार होना आसान हो गया. और यह सब इतनी आसानी से तब हो गया जब सुरक्षा बलों और दिल्ली पुलिस को ऐसे हमले के पूर्व संकेत मिल चुके थे."
दरअसल, रिपोर्ट में इस बात का जिक्र है कि घटना से हफ्ते भर पहले पाकिस्तान की सरजमीं से कश्मीर में कूट भाषा में वायरलेस संदेश भेजे गए. इन संदेशों को सुनने के बाद समझा गया कि उनमें बड़े कारनामों को अंजाम देने के निर्देश दिए गए थे. हमले के बाद इस घटना की जिम्मेदारी पाकिस्तानपरस्त आतंकवादी गुट लश्करे-तोएबा ने ली थी. तब के गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने कहा, "लश्करे-तोएबा के आत्मघाती दस्ते फिदायीन की गतिविधियां तेज करने के पीछे वे लोग हैं जिनके अस्तित्व के लिए आतंकवाद का बने रहना जरूरी है."
संवाददाता लिखते हैं, "सनसनी फैलाने वाली बात यह भी है कि ये हमलावर बचकर साफ निकल गए, आखिर यही वह ऐतिहासिक स्थल है जहां हर साल स्वतंत्रता दिवस का भव्य समारोह होता है, जहां सेना का एक शिविर है और खुफिया विभाग सहित सेना के कई दफ्तर हैं. इस परिसर में फिलहाल राजपूताना राइफल्स की दो कंपनियां यानी करीब 500 सैनिक तैनात हैं. इस वारदात ने ऐसे महत्वपूर्ण स्थल की सुरक्षा व्यवस्था की खामियां एक झटके में उजागर कर दीं."
लेकिन उस दिन सब बुरा-बुरा ही नहीं हुआ. आतंकियों के इस हमले ने जैसे सरकार और सुरक्षा एजेंसियों के होश उड़ा दिए. किले के लाहौरी गेट से सेना के जवान भारी तादाद में फुर्ती से बाहर निकले और उन्होंने किले की घेराबंदी कर डाली. दिल्ली पुलिस के विशेष आयुक्त आरके शर्मा की अगुआई में पुलिस मुख्यालय में आधी रात को आपात बैठक बुलाई गई. शहर में रेड अलर्ट घोषित करते हुए तमाम थानाध्यक्षों को तुरंत अपने-अपने इलाकों में गश्त लगाने के आदेश दिए गए.

संजय लिखते हैं, "मगर पुलिस की अब तक की सबसे बड़ी सफलता रिंग रोड के पार विजय घाट से मिली एक एके-47 राइफल व 29 कारतूस भरी मैगजीन, मौके से मिली दो खाली मैगजीनें, 48 खाली कारतूस, कुछ पैसे और फोन नंबरों वाली एक डायरी है. और मुकाबले में हैं शांति की कोशिशों को रोकने पर आमादा दुस्साहसी आतंकवादी."
अब यहां एक सवाल उठता है कि ये आतंकवादी पकड़ में कैसे आए. दरअसल, आतंकियों तक पहुंचने में उस पॉलिथीन बैग ने बड़ी भूमिका निभाई, जिसमें पुलिस को फोन नंबरों वाली डायरी मिली. इसमें एक मोबाइल फोन नंबर लिखी एक पर्ची भी थी, जिससे दिल्ली पुलिस को आरिफ उर्फ अशफाक तक पहुंचने में मदद मिली. घटना के चार दिनों बाद 26 दिसंबर को आरिफ को उसकी पत्नी रहमाना यूसुफ फारूकी के साथ गिरफ्तार कर लिया गया.
इसके बाद आरिफ ने पुलिस को अबू श्यामल उर्फ फैजल नाम के एक व्यक्ति के बारे में बताया. फैजल ओखला के बटला हाउस में छिप कर रह रहा था. जब बटला हाउस मुठभेड़ हुई, तो उसमें फैजल मारा गया. जबकि एक और आतंकी अबू सूफियान श्रीनगर में एक अन्य कथित आतंकवादी मुठभेड़ में मारा गया. दिल्ली पुलिस ने 20 फरवरी, 2001 को आरिफ और 21 अन्य आरोपियों के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किया.
इसी साल 25 मार्च को दिल्ली पुलिस ने एक और पूरक आरोप पत्र दाखिल किया. 11 सितंबर, 2001 को 11 आरोपियों के खिलाफ मुकदमा शुरू हुआ. अगले तीन सालों तक यह मुकदमा चला, और इस दौरान 235 गवाहों के बयान दर्ज किए गए. इन सभी के आधार पर ट्रायल कोर्ट ने 14 अक्टूबर, 2005 को अपना फैसला सुरक्षित रख लिया. ट्रायल कोर्ट ने 31 अक्टूबर को अपना फैसला सुनाया, जिसमें उसने सात आरोपियों को दोषी पाया और आरिफ को मौत की सजा सुनाई.
इसके बाद आरिफ ने दिल्ली हाई कोर्ट में अपनी सजा के खिलाफ अपील दायर की. 2007 में हाई कोर्ट ने अपने फैसले में ट्रायल कोर्ट के आदेश को बरकरार रखा. इसके बाद आरिफ ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की. लेकिन 10 अगस्त, 2011 को जस्टिस वीएस सिरपुरकर और टीएस ठाकुर की बेंच ने अपील को खारिज करते हुए आरिफ की मृत्युदंड की सजा को ज्यों का त्यों रखा.
इस बीच आरिफ ने सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं दायर करना जारी रखा. और इस साल 15 मई को उसने राष्ट्रपति के पास दया याचिका भेजी थी जिसे राष्ट्रपति ने खारिज कर दिया.