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इंडिया टुडे आर्काइव : जब 1998 में एक नाटक से फिर उठ खड़ा हुआ था गोडसे का भूत

प्रदीप दलवी के मराठी नाटक 'मी नाथूराम गोडसे बोलतोय' के मंचन ने 1998 में राजनीतिक तूफान खड़ा कर दिया था

कोर्ट में सुनवाई के दौरान अपने साथियों के साथ गोडसे/तस्वीर - इंडिया टुडे मैगजीन
कोर्ट में सुनवाई के दौरान अपने साथियों के साथ गोडसे (पहली पंक्ति में सबसे बाएं)/तस्वीर - इंडिया टुडे मैगजीन
अपडेटेड 1 फ़रवरी , 2024

महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे और हत्या के पीछे के मुख्य सूत्रधार नारायण आप्टे को नवंबर, 1948 में अंबाला जेल में फांसी दी गई थी. इसके बाद उस जेल के ही पास उनका अंतिम संस्कार हुआ. इस घटना के बारे में बताते हुए इंडिया टुडे मैगजीन के 1998 के अगस्त अंक में स्वपन दासगुप्ता और स्मृति कोप्पिकर लिखते हैं, "उनके शवों का जेल की दीवारों के बाहर अंतिम संस्कार कर दिया गया. इसके तुरंत बाद, पूरे क्षेत्र को जोत दिया गया और घास लगा दी गई ताकि कोई भी उस जगह की पहचान कर समाधि न बना दे".

जैसे उस जगह पर घास लगा दी गई, ठीक वैसे ही एक घास गांधी की हत्या के बाद भारत की राजनीति और समाज पर भी रोप दी गई. ये घास हत्या की वजह बताने वाली गोडसे के विचारों पर रोपी गई थी. लेकिन जैसा अक्सर होता है कि जिस चीज को आप जितना दबाएं, वो उतना मुखर हो कर सामने आती है, ठीक वैसा ही गोडसे के विचारों के साथ भी हुआ. रह-रहकर 'गोडसे का भूत' भारतीय राजनीति में निकलकर सामने आता रहा.

ऐसा ही एक वाकया 1998 में हुआ जब प्रदीप दलवी के नाटक मी नाथूराम गोडसे बोलतोय (मैं नाथूराम गोडसे बोल रहा हूं) को मराठी मंच पर तूफान लाने के लिए तैयार किया गया था. इंडिया टुडे मैगजीन के अगस्त 1998 के अंक में स्वपन दासगुप्ता और स्मृति कोप्पिकर ने लिखा, "1984 में लिखे इस नाटक की नाट्य मंचन समीक्षा बोर्ड से मंजूरी के लिए दलवी को 14 साल तक जूझना पड़ा. 1948 में अपील कोर्ट में गोडसे के बयान पर आधारित यह नाटक गांधी की हत्या के दूसरे पहलुओं को पेश करता है."

इसी रिपोर्ट में प्रदीप दलवे कहते हैं, ''मैं हत्यारे का चरित्र, उसकी प्रतिबद्धता, उसके विचार-प्रवाह के साथ यह भी उजागर करना चाहता था कि आखिर उसने गांधी की हत्या क्‍यों की." 10 जुलाई को मुंबई के शिवाजी मंदिर ऑडिटोरियम में खूब भीड़ जुटी. पाकिस्तान के लिए गांधी के आग्रह और हिंदू शरणार्थियों की दशा को लेकर उनकी असंवेदनशीलता के कारण गोडसे द्वारा गांधी की भर्त्सना और अखंड हिंदुस्तान के लिए उसकी भावनात्मक अपील बड़ी नाटकीय थी. गोडसे की प्रस्तुति इतनी जानदार थी कि नाटक मानो उस सोची-समझी हत्या को जायज ठहराता लगता था. छह शोज के बाद तो इस नाटक की टिकटें ब्लैक में महंगी बिकने लगी थीं. राजनीति पर इसका असर तो पड़ना ही था.

प्रदीप दलवी के नाटक के मंचन के दौरान गांधी और गोडसे के किरदार/तस्वीर - इंडिया टुडे मैगजीन
प्रदीप दलवी के नाटक के मंचन के दौरान गांधी और गोडसे के किरदार/तस्वीर - इंडिया टुडे मैगजीन

अपनी इमेज को लेकर सावधानी बरतने वाले प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के पास बुजुर्ग गांधीवादी उषा मेहता की चिट्ठी पहुंची तो फ़ौरन आडवाणी को फोन गया. इंडिया टुडे की रिपोर्ट में बताया गया कि ये आडवाणी के लिए दुविधा की स्थिति थी. प्रतिबंध और सेंसरशिप के विरोधी गृह मंत्री को एहसास तक नहीं था कि मामला इतना आगे बढ़ जाएगा. गांधी की हत्या में कथित तौर पर आरएसएस का हाथ होने के पुराने विवाद के फिर उभर आने के अलावा यह खतरा भी था कि विपक्ष संसद और महाराष्ट्र विधानसभा दोनों को ठप कर देगा. उन्होंने मुख्यमंत्री मनोहर जोशी को हिदायत दी कि कहीं यह कानून-न्यवस्था का मामला न बने. लेकिन सरकारी कार्रवाई से पहले ही वे वाजपेयी के दबाव के आगे झुक गए और "राज्य सरकार को मंचन पर रोक की सलाह दी." 

इसके बाद आडवाणी ने संसद में कहा, "सरकार ऐसी किसी भी चीज़ को दृढ़ता से अस्वीकार करती है जो महात्मा गांधी की पवित्र स्मृति को बदनाम करती है और देश को आजादी दिलाने में उनकी अद्वितीय भूमिका को कमतर करती है". 

केंद्र की 'सलाह' के बाद महाराष्ट्र सरकार के पास नाटक पर रोक लगाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था. पबों में भद्दे विज्ञापनों और शो के खिलाफ मुहिम चलाने वाले राज्य के संस्कृति मंत्री प्रमोद नवलकर कहते हैं, ''हम इस पर प्रतिबंध लगाने से बहुत खुश नहीं थे. लेकिन हम इसे कानून और व्यवस्था का मुद्दा भी नहीं बनने दे सकते थे.'' गोडसे के प्रति अपना लगाव कभी नहीं छुपाने वाले शिव सेना सुप्रीमो बाल ठाकरे भी खुश नहीं थे. उन्होंने उदास होकर कहा, "मैं इसे पूर्ण बंदी मानता हूं, महज प्रतिबंध नहीं".

गोडसे पर 5 अगस्त, 1998 को छपा इंडिया टुडे मैगजीन का कवर
गोडसे पर 5 अगस्त, 1998 को छपा इंडिया टुडे मैगजीन का कवर

1998 की इस घटना को मिलाकर ये चौथी बार था जब गोडसे अपनी फांसी के बाद से तूफान के केंद्र में था. पहली बार ऐसा तब हुआ था जब सरकार ने गोडसे की गवाही को अदालत के रिकॉर्ड का हिस्सा होने के बावजूद अदालत में वितरित करने पर रोक लगा दी. दूसरी बार तब, जब 1967 में दिल्ली प्रशासन ने गोपाल गोडसे (नाथूराम के भाई) की किताब 'गांधीजी: मर्डर एंड आफ्टर' के मूल मराठी संस्करण पर प्रतिबंध लगा दिया. नाथूराम के छोटे भाई को गांधी हत्या की साजिश में उनकी भूमिका के लिए आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी और 1965 में जेल से रिहा कर दिया गया था.

उन्होंने प्रतिबंध को बॉम्बे हाई कोर्ट में चुनौती भी दी थी. 1968 में दिए गए 217 पन्नों के ऐतिहासिक फैसले में अदालत ने कहा था, "हमारा मानना ​​है कि प्रकाशक का यह दावा कि 'गांधी की हत्या अब इतिहास का विषय है'...काफ़ी हद तक उचित है." सरकार के इस दावे पर विचार करते हुए कि पुस्तक सांप्रदायिक वैमनस्य को बढ़ावा देगी, उच्च न्यायालय ने कहा कि उसे लेखक के उद्देश्यों की कोई चिंता नहीं है. पुस्तक का केंद्रीय विषय - विभाजन और गांधी की हत्या - को भारत के किसी भी नागरिक द्वारा अध्ययन के लिए एक वैध विषय माना गया.

तीसरा वाकया तब घटित हुआ जब 1962 में प्रकाशित अमेरिकी अकादमिक स्टेनली वोल्पर्ट की नाइन ऑवर्स टू रामा  पर भी सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया था. इस प्रतिबंध को पलटने के लिए बॉम्बे हाई कोर्ट का रुख भी किया गया मगर फैसला बहुत देर से आया. 1988 में, जब पेंगुइन इंडिया ने उपन्यास के पेपरबैक संस्करण के लिए गृह मंत्रालय से अनुमति मांगी, तो उसे सूचित किया गया कि "हमने फ़ाइल की समीक्षा की है और पुस्तक पर प्रतिबंध लगाने के अपने निर्णय को बदलने का कोई कारण नहीं है". प्रतिबंध आज भी जारी है, हालांकि पुस्तक के अंश इंटरनेट पर मुफ्त में उपलब्ध हैं. 

स्वपन दासगुप्ता और स्मृति कोप्पिकर ने 1998 की अपनी रिपोर्ट में एक जरूरी सवाल उठाया और पूछा, "आखिर क्या वजह है कि एक के बाद दूसरी सरकारें गांधी की हत्या पर किसी सार्वजनिक विवाद या चर्चा को उठने ही नहीं देतीं?" इस सवाल को उदार दृष्टिकोण से देखते हुए उन्होंने यह भी कहा कि सरकार के कड़े रवैए की वजह समझ में नहीं आती. स्टेनली वोल्पर्ट ने इंडिया टुडे से बातचीत में कहा था कि "विवादास्पद विचारों पर सार्वजनिक बहस होनी चाहिए," उनका मानना था कि एडॉल्फ हिटलर की मीन काम्फ  भी उन देशों में उपलब्ध है जिन्हें नाजियों ने रौंदा था. 

दिवंगत फिल्म अभिनेता और नाटककार गिरीश कर्नाड ने तब इस पर राय दी थी, "इस नाटक में महात्मा गांधी की चाहे जैसी मीमांसा की गई हो, हम सभी को इसे देखकर खुद फैसला करने का अधिकार है." स्वपन और स्मृति दोनों अपनी रिपोर्ट में सहमति जताते दिखे कि "सरकार का असली डर गोडसे द्वारा अपने 'नैतिक तौर पर सही' लेकिन 'गैरकानूनी' कृत्य को सही ठहराने जज्बातों से निकला था. 1950 के दशक में, जब भारतीय लोकतंत्र अपने शुरुआती दौर में था, तब तो यह डर जायज था. लेकिन वह सालों पहले की बात है. 1998 में 'गोडसे और उसके साथियों' को जो गुस्सा आया, वह अकादमिक हित से जुड़ा था. पाकिस्तान से आए शरणार्थी फिर से बस गए हैं और समृद्ध भी हुए हैं और भारतीय राष्ट्रीयता का हनन नहीं हुआ है, जैसा कि गोडसे को डर था. हिंदुत्व भी जिंदा है और सक्रिय है. चिंता से पैदा हुए प्रतिबंध की तब कोई प्रासंगिकता नहीं रह गई थी.

अपनी रिपोर्ट को खत्म करते हुए स्वपन दासगुप्ता और स्मृति कोप्पिकर ने लिखा था, "जब गोडसे के सहयोगी, पाकिस्तान से आए. शरणार्थी मदनलाल पाहवा ने गांधी की हत्या से कुछ दिन पहले उनकी प्रार्थना सभा में बम फेंका तो गांधी ने उसे माफ कर दिया था. यह संकेत देते हुए कि पाहवा ने शायद भगवदगीता से प्रेरणा ली हो, उन्होंने चेताया था, "इस युवा को यह एहसास होना चाहिए कि जो उससे सहमत नहीं हैं, जरूरी नहीं कि वे दुष्ट व्यक्ति हों". यह संदेश उन नेताओं को अनिवार्य रूप से पढ़ना चाहिए जो अतीत से खेलने पर जोर देते हैं.

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