जब ताशकंद में रूसियों ने शशि कपूर की कार को ही हाथों से उठा लिया और खुशी से झूमने लगे
अल गूना फिल्म फेस्टिवल के निर्देशक इंतिशाल अल तिमिमी की आंखों के सामने वह दृश्य आज भी साकार हो उठता है जब 1983 के ताशकंद फिल्म फेस्टिवल में रूसियों ने शशि कपूर और शम्मी कपूर की कार को ही हाथों से उठा लिया था.

अजित राय (अल गूना, मिस्र से)
अरब के अल गूना फिल्म फेस्टिवल (मिस्र) के निर्देशक इंतिशाल अल तिमिमी की आंखों के सामने वह दृश्य आज भी साकार हो उठता है जब 1983 के ताशकंद फिल्म फेस्टिवल में रूसियों ने शशि कपूर और शम्मी कपूर की कार को ही हाथों से उठा लिया और खुशी से झूमने लगे थे. तिमिमी के लिए भारत के इन दो महान अभिनेताओं से मिलना किसी सपने से कम नहीं था. रूसियों के लिए बस इतना ही काफी था कि कपूर बंधु राज कपूर के भाई हैं जिन्हें रूसी लोग सिनेमा का खुदा मानते हैं. वे यह भी याद करते हैं कि साठ के दशक में काहिरा के एक सिनेमा हाल में जब मिस्र सरकार की मदद से हिंदूजा बंधुओं ने राज कपूर की फिल्म 'संगम' रीलीज की तो वह लगातार एक साल तक चली. उस जमाने में कई दर्जन हिंदी फ़िल्में मिस्र के सिनेमा हालों में लगती थीं और अच्छी कमाई भी करती थीं. उसके बाद अस्सी के दशक में यहां अमिताभ बच्चन महानायक बनकर उभरे. बाद में कई वजहों से मिस्र और बॉलीवुड का रिश्ता लगभग टूट सा गया. कहा जाता है कि इसकी सबसे बड़ी वजह यह थी कि हिंदी फिल्मों से अरब सिनेमा का स्थानीय कारोबार चौपट होने लगा था. अभी भी अगर कोशिश की जाए तो अरब दुनिया में करीब बीस फीसद बॉक्स ऑफिस कलेक्शन हिंदी फिल्मों को मिल सकता है.
इंतिशाल अल तिमिमी मिस्र की राजधानी काहिरा से 445 किलोमीटर दूर रेड सी के किनारे बसे निजी शहर अल गूना में 23-31 अक्तूबर 2020 को आयोजित चौथे अल गूना फिल्म फेस्टिवल में शिरकत कर रहे थे. भारत से अपने रिश्ते के बारे में तिमिमी कहते हैं कि किशोरावस्था से ही हिंदी फिल्मों की अभिनेत्रियों से उन्हें गहरा लगाव हो गया था. इसी वजह से वे भारत में पढ़ना चाहते थे. वर्षों बाद उन्हें ओशियान सिनेफैन फिल्म फेस्टिवल की ओर से दिल्ली से इंदु सरकार का फोन आया. उन्हें अपने फेस्टिवल के लिए सीरिया की एक फिल्म चाहिए थी जिसमें वे तिमिमी की मदद चाहती थीं. उन्होंने वह फिल्म उन्हें दिलवा दी. अगले साल वे ओशियान के लिए अरब दुनिया से चुनी हुई चौदह फिल्में लेकर दिल्ली गए. उनकी कोशिशों से पहले जो केवल 'एशियाई फिल्मों का समारोह ' होता था उसमें अरब शब्द जोड़ा गया और तब उसे ' एशियाई और अरब सिनेमा का समारोह ' नाम दिया गया. उस साल वे अरब दुनिया से 28 फिल्में और 70 फिल्मकारों के भारी भरकम प्रतिनिधिमंडल के साथ दिल्ली पहुंचे. तब तक ओशियान ने उन्हें अपना सलाहकार बना लिया था.
तिमिमी कहते हैं कि उन्हें भारत से बेइंतहा मुहब्बत है. वे केरल अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह की जूरी में भी रह चुके हैं. अडूर गोपालकृष्णन, शाजी एन करूण, मणि कौल से उनकी गहरी दोस्ती रही है. उन्होंने मणि कौल की महिला मित्र के बंगले में नीदरलैंड्स में उनके साथ जो एक सप्ताह समय बिताया, उसकी यादें आज भी ताजा है. उनका मानना है कि पिछले पंद्रह वर्षों से हिंदी में न्यू वेव सिनेमा का जो आंदोलन चल रहा है, वह भारतीय सिनेमा को काफी हद तक बदल रहा है.
अल गूना फिल्म फेस्टिवल के बारे में तिमिमी कहते हैं कि यह पहल मिस्र की मशहूर अभिनेत्री बुशरा रोजा की है जिन्होंने यहां के एक बड़े उद्योगपति समीह साविरिस और उनके भाई नागूब साविरिस को इस फिल्म फेस्टिवल को प्रायोजित करने के लिए राजी किया. बुशरा रोजा ने ही उन्हें फेस्टिवल का डायरेक्टर नियुक्त किया और पूरी आजादी दी. साविरिस भाईयों की कंपनी ओरासकम इस फिल्म फेस्टिवल की प्रोड्यूसर है. महज चार वर्षों में ही अल गूना फिल्म फेस्टिवल दुनिया के नक्शे पर आ गया है. तिमिमी कहते हैं कि उन्होंने शुरू से ही सामाजिक सरोकारों के साथ मार्केटिंग को जोड़ा और बड़े पैमाने पर अंतरराष्ट्रीय नेटवर्किंग पर ध्यान दिया. उनका कहना है कि अरब दुनिया में कई फिल्म फेस्टिवल बहुत पहले से ही हो रहे हैं लेकिन किसी की बड़ी अंतरराष्ट्रीय छवि नहीं बन पाई है. इस तरह के फेस्टिवल के लिए आजादी का जो माहौल चाहिए, वह अल गूना में ही संभव है. वे कहते हैं कि इस समारोह की 95 फीसद फिल्में अफ्रीका के सिनेमाघरों में प्रदर्शित हो जाती हैं. साथ ही कान, बर्लिन ,वेनिस, बुशान, टोरंटो आदि में शिरकत करती हैं और पुरस्कार जीतती हैं. वजह यह कि भारत के रमण चावला और उनकी टीम की प्रोग्रामिंग सधी हुई और ठोस है, यहां कुछ भी भरती का नहीं है. वे कहते हैं कि अल गूना फिल्म फेस्टिवल की 92 फिसद फिल्में देशी-विदेशी बाजारों में बिक जाती हैं. यहां सिनेमा के साथ संगीत और दूसरी कलाओं तथा बौद्धिक बातचीत पर भी जोर दिया जाता है. इस बार शरणार्थी समस्या केंद्र में थी तो अगले साल पर्यावरण पर फोकस करने की योजना है. इस साल कोरोना संकट के कारण भारतीय सिनेमा को अधिक महत्व नहीं मिल सका. केवल अली फजल और रिचा चड्ढा की भागीदारी हुई. प्रोग्रामिंग कंसलटेंट रमण चावला यहां के लिए भारतीय फिल्मों की भागीदारी की एक बड़ी योजना पर काम कर रहे हैं.
अरब सिनेमा में मिस्र के मोहम्मद दियाब की फिल्म '678' से मशहूर हुई अभिनेत्री बुशरा रोजा ने जब अल गूना फिल्म फेस्टिवल का सपना देखा था तो उन्हें भी इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि महज चार साल में ही यह अरब दुनिया का सबसे प्रतिष्ठित समारोह बन जाएगा. अल गूना में 22 सितंबर 2017 को पहला फिल्म फेस्टिवल आयोजित किया गया था. फिल्मों की गुणवत्ता, मानवीय सरोकार, विचारों की आजादी और मार्केटिंग के कारण महज चार साल में हीं यह अरब दुनिया का सबसे प्रतिष्ठित फिल्म फेस्टिवल बन गया है. चौथे गूना फिल्म फेस्टिवल के आयोजन में इटली, फ्रांस, स्विट्जरलैंड, दुबई और अमेरिका ने भारी मदद की है. बुशरा रोजा अगले साल अमिताभ बच्चन को सपरिवार आमंत्रित कर उनकी फिल्मों पर यहां एक विशेष कार्यक्रम करना चाहती हैं. मिस्र में अमिताभ बच्चन के प्रति पागलपन की हद तक दीवानगी है. उनका मानना है कि अमिताभ बच्चन के आने से अबतक यहां जो अरबी फिल्मकार नहीं आए हैं वे सभी आ जाएंगे.
बुशरा रोजा अल गूना फिल्म फेस्टिवल को मध्य पूर्व का कान फिल्म फेस्टिवल बनाना चाहती हैं जहां सिनेमा केवल रेड कारपेट और पार्टियों में सिमटकर न रह जाए. सिनेमा के माध्यम से दुनिया की गंभीर समस्याओं पर चर्चा होनी चाहिए. वे मानती हैं कि अभी बहुत कुछ करना बाकी है. अल गूना फिल्म फेस्टिवल के कारण अरब और इस्लामी दुनिया के प्रति लोगों का नजरिया बदला है.
मिस्र में दो चीज़ें सबसे महत्वपूर्ण हैं, गिजा के पिरामिड और नील नदी. लेकिन सिनेमा की दुनिया के लिए सबसे महत्वपूर्ण नाम है- ओमर शरीफ. मिस्र के महान अभिनेता ओमर शरीफ ने हॉलीवुड में डेविड लीन की दो बड़ी फिल्मों में काम किया है. 'लारेंस ऑफ अरेबिया' (1962) और 'डा जिवागो' (1965) जैसी फिल्मों में मुख्य भूमिकाएं निभाने के कारण दुनियाभर में ओमर शरीफ को याद किया जाता है. अल गूना फिल्म फेस्टिवल ने उनके सम्मान में अरब के युवा अभिनेताओं के लिए ओमर शरीफ अवार्ड शुरू किया है. इस बार यह अवार्ड मोरक्को मूल के युवा फ्रेंच अभिनेता सईद तगमावू को प्रदान किया गया. जूरी के अध्यक्ष मशहूर ब्रिटिश फिल्मकार पीटर वेबर ने दिग्गज फ्रेंच अभिनेता गेरा डिपार्डिवू को करियर अचीवमेंट अवॉर्ड प्रदान किया. उन्होंने दुनियाभर की सैकड़ों फिल्मों में कला निर्देशन देने वाले मिस्र के मशहूर कलाकार ओनसी अबू सेफ और वरिष्ठ अभिनेता खालिद अल सावी को लाइफ टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड से नवाजा. लेबनान के मशहूर गायक रामी अयाश और उनकी मंडली के संगीत पर सैकड़ों लड़के-लड़कियां झूमते दिखे.
मिस्र में हो रहे संसदीय चुनावों के बीच अल गूना फिल्म फेस्टिवल में अमेरिकी राजदूत जोनाथन आर कोहेन ने यह स्वीकार किया है कि सिनेमा देशों को जोड़ने का सबसे सशक्त कला माध्यम है. उन्होंने अरब देशों के युवा फिल्मकारों को फिल्म निर्माण में हर तरह की अमेरिकी मदद देने का वादा किया है. उन्होंने कहा कि अरब देशों में बहुत सारी ऐसी कहानियां बिखरी पड़ी हैं जिनपर बेहतर दुनिया के लिए फिल्में बन सकती हैं. अमेरिका के पास सिनेमा की उच्च प्रौद्योगिकी है. दोनों मिलकर चमत्कार कर सकते हैं. कोहेन ने लेबनान, सूडान, फिलिस्तीन, मिस्र आदि अरब देशों की चुनी हुई 18 फिल्म परियोजनाओं के लिए दो करोड़ रुपए के नकद पुरस्कार प्रदान किया. उन्होंने कहा कि अमेरिका जल्दी ही हॉलीवुड और अरब फिल्मकारों का एक सम्मेलन आयोजित करेगा.
शरणार्थी समस्या, राजनीतिक अस्थिरता, स्त्री सशक्तीकरण और दूसरे मानवीय विषयों पर अरब सिनेमा में नई पहल देखी जा रही है. इसी क्रम में अल गूना फिल्म फेस्टिवल और जेनेवा ( स्विट्जरलैंड) स्थित संयुक्त राष्ट्र संघ में शरणार्थी मामलों के राजदूत के बीच मिस्र में शरणार्थी समस्या को लेकर एक विस्तृत समझौते पर हस्ताक्षर किए गए.
ट्यूनिशिया की महिला फिल्मकार कौथर बेन हनिया की फिल्म 'द मैन हू सोल्ड हिज स्किन' से चौथे अल गूना फिल्म फेस्टिवल की शुरुआत हुई. यह फिल्म कला की हैरतअंगेज दुनिया में नई बहस पैदा कर रही है. लेबनान की राजधानी बेरूत में एक मसीहाई कलाकार जेफरी कोडेफ्रोई सीरिया के युद्ध से भागकर आए एक शरणार्थी नौजवान साम अली की नंगी पीठ पर ही शेनजेन वीजा के चित्र बनाकर उसे सशरीर प्रदर्शनी में बिठा देता है. अब तक तो कैनवास और दीवारों पर ही पेंटिंग्स बनाने का रिवाज रहा है. यह पहला मौका है जब किसी जीवित इंसान की पीठ को कैनवास की तरह इस्तेमाल किया गया है. सीरिया का वह नौजवान साम अली बेरूत में बिना वैध कागजात के शरणार्थी है और अपनी प्रेमिका अबीर के पास ब्रूसेल्स ( बेल्जियन) जाना चाहता है. इन दोनों के बीच हुआ समझौता कला की दुनिया में खलबली मचा देता है. एक लाचार शरणार्थी की ज़हालत भरी जिंदगी जी रहा साम अली अब एक ऐसी अंतरराष्ट्रीय कलाकृति में बदल चुका है जो कहीं भी आजादी से बिना वीजा पासपोर्ट आ जा सकता है.
मोरक्को के इसराइल फारूखी की फिल्म 'मिका' में एक आठ साल का अनाथ बच्चा मजदूरी करके इतना पैसा कमा लेना चाहता है कि वह अवैध रूप से यूरोप भेजने वाले एजेंट की फीस दे सके. पुर्तगाल की अना रोचा डिसूज़ा की फिल्म 'लिसेन' लंदन में अवैध आप्रवासी परिवार की भयानक त्रासदियों की सच्ची कहानी है. लंदन के बाहरी इलाके में पुर्तगाल से आए जोटा और उसकी पत्नी बेला शरणार्थी का जीवन जी रहे हैं. उनके तीन बच्चों को सही देखभाल न करने के आरोप में सरकार के सामाजिक सेवा विभाग के अधिकारी उनसे छीन लेते हैं. अब पूरी फिल्म ब्रिटिश कानून की अमानवीय लाल फीताशाही का विवरण है जैसे हमने केन लोच की मशहूर फिल्म 'आई, डेनियल ब्लैक' (2016) में देखा है.
फेस्टिवल में बेस्ट फिल्म का अवॉर्ड जीतने वाली बोस्निया की जस्मीला ज्बानिक की फिल्म 'क्यू वाडिस, आइडा ?' हमें बोस्निया के युद्ध में ले जाती है जब संयुक्त राष्ट्र की शांति सेना की निगरानी के बावजूद 1995 में स्रेब्रेनिका शहर में आठ हजार लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया था. फ्रांस के क्लाउस ड्रेक्जेल की विस्मयकारी फिल्म 'अंडर द स्टार्स आफ पेरिस' एक नया वृतांत रचती है. पेरिस की जानी पहचानी आनंद रोमांस और रौशनी की की छवियों के विपरित एक पेरिस शरणार्थियों और भिखारियों का है जो सड़कों पर जीते मरते हैं. बुरकिना फासो की एक अवैध आप्रवासी महिला का आठ साल का बच्चा उससे बिछड़ जाता है. एक भिखारिन उसे शरण देती है और पूरी फिल्म ठंढ से कांपती हुई पेरिस में उस बच्चे की मां की खोज में चलती है जिसे पुलिस वापस डिपोर्ट करने वाली है.
इस बार के अल गूना फिल्म फेस्टिवल में दिखाई गईं 63 फिल्मों में से किसी को भी कमजोर नहीं कहा जा सकता. जाहिर है, फिल्मों की गुणवत्ता, मानवीय सरोकार और कुशल प्रबंधन की वजह से कम समय में ही इस फिल्म फेस्टिवल ने काफी प्रतिष्ठा हासिल कर ली है.
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