कस्तूरबा गांधी विद्यालयों का अपूर्ण गौरव
कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालयों की स्थापना सर्वशिक्षा अभियान के अंतर्गत 2004 में की गयी. इनका मुख्य उद्देश्य विषम परिस्थितियों में जीवन-यापन करने वाली बालिकाओं को गुणवत्तायुक्त शिक्षा उपलब्ध कराना था

कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालयों की स्थापना सर्वशिक्षा अभियान के अंतर्गत 2004 में की गयी. इनका मुख्य उद्देश्य विषम परिस्थितियों में जीवन-यापन करने वाली बालिकाओं को गुणवत्तायुक्त शिक्षा उपलब्ध कराना था.
इन विद्यालयों की स्थापना का बीज, 1989 में शुरू हुए महिला समाख्या कार्यक्रम के दौरान बोया गया. महिला समाख्या का उद्देश्य 10 अलग-अलग राज्यों के शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े विकास खण्डों में महिलाओं को संगठित कर उनका सशक्तिकरण था. इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए महिला समाख्या ने शिक्षा को समग्र उत्थान का माध्यम माना.
शिक्षा को साक्षरता कौशल प्राप्त करने के परे, प्रश्न पूछने, मुद्दों और समस्याओं का विश्लेषण कर सामूहिक समाधान निकालने के नज़रिए से देखा गया. वयस्क लड़कियों की शिक्षा में एक बड़ी चुनौती थी लड़कियों की असुरक्षा एवं माता – पिता में उसको लेकर भय को ख़त्म करना और उन लड़कियों को वापस लाना जो विद्यालय जाना छोड़ चुकी थीं.
अभिभावक अक्सर बच्चियों की सुरक्षा का ख्याल करके उन्हें स्कूल भेजने से मना कर देते थे, जिसके परिणामस्वरूप बच्चियों को स्कूल छोड़ना पड़ता था. इसके मद्देनज़र शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े विकास खण्डों (ऐसे खंड, जहां 2001 की जनगणना के अनुसार लिंग साक्षरता भेद राष्ट्रीय औसत से अधिक और ग्रामीण महिला साक्षरता का दर राष्ट्रीय स्तर से कम था) की प्रवासी बालिकाओं के लिए, आवासीय उच्च प्राथमिक विद्यालयों की स्थापना का निर्णय लिया गया.
इन विद्यालयों को बनाने के लिए कुल मिलाकर तीन मॉडल्स प्रस्तावित किये गए, जिनमें से दो में क्रमशः 50 और 100 छात्राओं की क्षमता वाले आवासीय विद्यालय बनने थे और तीसरे मॉडल में एक जन विद्यालय (जिन्हें हम कई बार सरकारी विद्यालयों के नाम से भी जानते हैं) के समीप 50 छात्राओं हेतु छात्रानिवास की व्यवस्था प्रस्तावित थी.
इन विद्यालयों की महत्ता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इनमें पढ़ने वाली बच्चियां समाज के सबसे वंचित वर्गों से आती हैं. विद्यालयों में प्रवेश के समय मुख्य रूप से उन बच्चियों पर ध्यान दिया जाता है जो अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़े वर्ग या गरीबी रेखा से नीचे आने वाले परिवारों से आती हैं. कई परिस्थितियों में, प्रवेश नीति के अनुसार, उन बच्चियों को तरजीह दी जाती हैं जिनके अभिभावक नहीं है या एक ही अभिभावक है.
घर से छात्रा के घर की दूरी को भी ध्यान में रखकर प्रवेश दिया जाता है. इन विद्यालयों में पढ़ने वाली अधिकतर बच्चियों के अभिभावक दैनिक मजदूर, लघु उद्योग व्यापारी या किसान हैं. बच्चियाँ के घर कस्तूरबा विद्यालयों से 1 किलोमीटर से लेकर 15 किलोमीटर की दूरी तक में स्थित होते हैं. इनमें से अधिकांश विद्यालय किसी गांव के भीतरी हिस्से में मौजूद हैं और अक्सर सार्वजनिक परिवहनो की इन तक पहुँच कम ही रहती है.
इन विद्यालयों के आवासीय होने के कारण शिक्षिकाओं, वार्डन और बच्चियों के पास साथ बिताने के लिए अतिरिक्त समय होता है जिससे साथ रहकर सीखने और आगे बढ़ने की नयी संभावनाएं जन्म लेती हैं.
पूरे भारत में कुल मिलाकर 3609 कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालय हैं जिनमें साढ़े चार लाख से ज्यादा बच्चियाँ शिक्षा प्राप्त कर रही हैं. इन विद्यालयों की स्थापना इस आशा के साथ हुई थी कि ये शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े विकास खण्डों में बच्चियों के लिए आदर्श विद्यालयों के रूप में लैंगिक समानता की बुनियाद रखेंगे. इनमें न्याय-संगत शिक्षा व्यवस्था के उत्तम उदाहरण बनने की अद्भुत क्षमता थी.
समझने के लिए, इनको लेकर देखे गए सपने को समझने के लिए इनकी तुलना हम जवाहर नवोदय विद्यालयों के उदाहरण से कर सकते हैं, जो आवासीय उच्च प्राथमिक विद्यालयों की श्रृंखला है एवं जिन्हें समूचे भारतवर्ष में बच्चों को उत्कृष्ट शिक्षा प्रदान करने के लिए जाना जाता है.
जहाँ जवाहर नवोदय विद्यालय में योग्यता के आधार पर प्रवेश लिया जा सकता है, कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालय समाज में वंचित वर्ग की छात्राओं की ज़रूरत को प्राथमिकता देती है.
चूंकि कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालय में उन विद्यार्थियों का दाखिला होता है जो समाज में अनेक रूप से वंचित हैं, उनपर विशेष ध्यान देने की जरुरत है जिससे वो ऐसी शिक्षा प्राप्त करें जो उन्हें एक सम्मान भरा जीवन जीने का मौका दे. हालाँकि आंकड़े आपको कोई और ही तस्वीर दिखाएंगे.
कुमार एवं गुप्ता (2008) के द्वारा किये गए एक अध्ययन के अनुसार, कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालय में एक विद्यार्थी पर होने वाला खर्च जवाहर नवोदय विद्यालय के मुकाबले काफ़ी कम है. केयर अप उड़ान बजट अध्ययन (2011-12) के अनुसार, प्रति विद्यार्थी जवाहर नवोदय विद्यालय में होने वाला खर्च (70,033 रुपये) कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालय में होने वाले खर्च (13,603 रुपये) के पांच गुना से भी ज्यादा है और साल दर साल ये अंतर बढ़ता ही जा रहा है.
नीति आयोग के 2015 के अध्ययन में भी जवाहर नवोदय विद्यालय के मुकाबले कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालय में पर्याप्त बुनियादी संरचना, सुरक्षा तथा अन्य व्यवस्थाओं की कमी के प्रति चिंता व्यक्त की गयी है.
हालत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालयों में एक विद्यार्थी पर होने वाले खर्च की सबसे ताज़ी रिपोर्ट पब्लिक डोमेन में नहीं है. संसाधनों के बंटवारे में असमानता तथा व्यवस्था से संबन्धित अन्य बाधाएं (प्रशासनिक, आर्थिक, केंद्र और राज्य सरकार में तालमेल की कमी) इन विद्यालयों के लिए काफ़ी मुश्किलें खड़ी कर देती हैं :
(क) इसपर कोई दस्तावेज़ उपलब्ध तो नहीं है लेकिन केवल बिहार में ही लगभग 95% बच्चियाँ इस विद्यालय से पास होने के बाद आगे की पढ़ाई छोड़ देती हैं.
(ख) नीति आयोग की कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालयों के मूल्यांकन रिपोर्ट, 2015 के अनुसार केवल 69% शिक्षकों को पिछले 2 सालों में कार्यशालाओं के द्वारा सीखने का मौका मिला.
(ग) अभिभावक, शिक्षकों एवं स्वयं बच्चियों को बच्चियों से ज़्यादा कुछ करने की उम्मीद नहीं होती, जो उन बच्चियों के लिए अदृश्य सामाजिक सीमा का निर्माण करती हैं.
(घ) छात्रा निवास के वॉर्डन्स और शिक्षिकाओं को आम जनविद्यालयों के अपेक्षा कम वेतन दिया जाता है तथा अधिकतर शिक्षिकाओं की नियुक्ति कॉन्ट्रैक्ट पर होती है.
समता हमारे संविधान के मूलभूत सिद्धांतों में से एक है और कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालय उस समतापूर्वक समाज बनाने का एक जीवंत प्रयास है. जब सरकार जोर-शोर से 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' के नारे को आगे बढ़ा रही है, ये विद्यालय भारत जैसे विभिन्नता परिपूर्ण देश में आशा की किरणें हैं.
समतापूर्वक समाज के निर्माण के लिए हमें मौजूदा केजीबीवी को उत्कृष्ट बनाने के साथ साथ ऐसे और हज़ारों कस्तूरबाओं का निर्माण करना होगा. सरकार एवं शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रही सामाजिक संस्थानों को मिलकर साथ में कदम उठाने होंगे ताकि उस खोये हुए गौरव को पाया जा सके, जिसकी भारत को जरूरत है और जिसपर कस्तूरबाओं की लड़कियों का अधिकार हैं
(लेखक वैभव कुमार, स्वतालीम फाउंडेशन के सह-संचालक हैं. यहां व्यक्त विचार उनके अपने हैं और उनसे इंडिया टुडे की सहमति आवश्यक नहीं है.)
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