शहरनामाः देशज संस्कृति का रखवाला शहर कोलकाता
कभी भारत की राजधानी रहा कलकत्ता, अब कोलकाता है. ऊंघते रहने वाले इस शहर की तासीर बहुत देसी किस्म की है, हालांकि इसमें एक बंगाली अभिजात्य या भद्रलोक वाली ठसक है. पर शहर में घूमते हुए आप पाएंगे कि इसमें हिंदुस्तान की मिट्टी की सुगंध बरकरार है. लेखक उत्तम पीयूष ने हाल ही में कोलकाता को निरपेक्ष निगाह से देखते और घूमते हुए यह सफरनामा लिखा है.

उत्तम पीयूष/ कोलकाता डायरी: एक
शायद पहली बार मैं कोलकाता आकर एक्साइटेड नहीं था. एक ठंडापन था अंदर-बाहर. कोलकाता स्टेशन हावड़ा स्टेशन जैसा रूआबी लकदक नहीं रखता. वह भी सुबह-सुबह. हावड़ा का अपना मिजाज है, अपना ठस्सा है. प्लेटफॉर्म पर पांव रखते ही आपके पांव भागते दौड़ते नजर आते हैं.
पर यहां कोलकाता में एक इत्मीनान जैसा है. हावड़ा से कोलकाता के बीच विशाल लौह पुल से गुजरते-गुजरते अजीब-सा रोमांच हो आता है. पर यहां वो बात नहीं थी. अब शहर है तो सड़कें हैं, ऊंचे मकान हैं, दुकानें हैं..
टालीगंज आने से पहले भी और कई जगह सन्नाटे थे. होली के दिन भी शहर इस क़दर ख़ामोश दिख रहा था... इक्के-दुक्के लोग, कहीं बीस, कहीं पचीस... रंगे हुए, पर रंगीन नहीं. कैब के ड्राईवर ने बतलाया कि कोरोना वायरस के डर से इस बार कम ही लोग खुलकर होली खेल रहे हैं. एक जगह तीन चार 'भोद्रो मानुष' खस्सी का मीट खरीदते नजर आए. इस बीच बी एल साहा रोड पर पीले वस्त्रों में सजी-धजी कुछ लड़कियों की टोली को पीछे रिक्शे पर बाजार लगाकर गाते, झूमते, गुजरते देखा. रंग थोड़ा चढ़ा देखा, हरकतें थोड़ी रंगी दिखी.
*
शाम को हम टालीगंज से बागुईहाटी होते हुए तेघोड़िया निकले. अभी भी कोलकाता शांत-प्रशांत दिख रहा था. सड़क किनारे नहरों जैसी पानी की व्यवस्था और हरेपन पर अलग से जानना और लिखना रोचक होगा. सड़कों के किनारे जलती रोशनी, एलईडी की स्पाईरल लड़ियां खुबसूरत लग रही थीं.
सुनसान सड़कों पर भी गाड़ियों को बेवजह रोकती लाल बत्तियां थी और तीर हरे होते ही जैसे कोई कहता कि भगाओ गाड़ी. पर इनके बीच एक चांद था जो सामने था और यकीन मानिए मैं उस निहायत खूबसूरत चांद की फ़ोटो नहीं ले पा रहा था. हालांकि मैंने कायदे से दसेक फ़ोटो खींचे इस अलबेले चांद के. यह चांद कम से कम पांच फुटबॉल से ज्यादा बड़ा, ज्यादा गोल लग रहा था. बयां से बाहर था उसका उस वक़्त का रंग. आंखों में बसा लेने लायक, जो फोटो में नहीं दिल में उतर आता है.
उस चांद का कोई पत्रकार एक्सक्लूसिव इंटरव्यू लेता तो पता नहीं चांद क्या कहता !!
यह मेरा पहला एक्साइटमेंट था कोलकाता की इस यात्रा का. फागुन पूर्णिमा का वह चांद मैं गाड़ी में चलते देख रहा था जबकि कोलकाता निश्चिंत और इत्मीनान में था. महाकवि विद्यापति के शब्दों में कहूं तो 'जत देखल तत कहई न पारिअ' और फ्लाईओवर से गुजरते हुए ठंढेपन का एहसास हुआ. कार में बिटिया ने बजा दिया था...
"रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़के जाने के लिए आ.."
कोलकाता को भी बनारस की तरह एकबार में अघाकर नहीं जिया जा सकता है. इसका रूप, रंग, मन-मिज़ाज एकबार में समझ नहीं आता है. वक़्त के मारे इसे थाह-थाहकर कम ही देख पाते हैं. हर जगह भागा-भागी और मुद्रा यूं कि "एखुन टाईम नेई."
पर इन सबके बावजूद कोलकाता के पास जीने के लिए बहुत वक़्त है. आज भी "आनोंदो", "भालोबाशा"," मॅज़ा" जैसे शब्द कोलकाता का अविराम रूपक गढ़ते हैं.
हक़ीक़तन इन वासंती गर्मियों की शाम गारियाहाट की स्ट्रीट शॉपिंग का अपना ही "मॅज़ा" है. दक्षिण कोलकाता का यह जानदार इलाका है. जब बुद्धदेव बसु ने इस इलाक़े का ज़िक्र अपने बहुचर्चित उपन्यास 'रातभर वर्षा' में किया था, तब से आजतक गारियाहाट अपने अंदाज़ में जस का यह है. हां, फ्लाईओवर और लकदकी दुकानों ने इसे अलग तरह का रूप तो दिया है पर वैसे ही सड़कों के किनारे लंबी कटरेनुमा सुरंगों में रेडीमेड कपड़ों की, जूट के थैलों की दुकानें मन टान लेती हैं.
स्त्रियों के श्रृंगार की मदमाती दुकानें पुकारती हुई सी हैं. यों, कुछ बाज़ारों की भव्यता मुझे बहुत डराती हैं. उनके एटीट्यूड धमकऊआ होते हैं. पर जो देशज बाज़ार हैं, लोगबाग वाले, कान पर बड़े हिलते-डोलते झुमके लगाकर आईने में देखती लड़कियां, फुचका, गोलगप्पे गपागप मारती औरतें और बच्चे, मां का हाथ छुड़ाकर भागता बच्चा, धड़ाधड़ बसों से उतरते-चढ़ते लोग... ऐसे बाज़ारों में सब एक जैसे लगते हैंः काॅमन मैन, काॅमन वीमन. जहां हर किसी को सौ या डेढ़ सौ का टी-शर्ट या टाॅप लेना है.
यहां हर किसी के सपने में समानता का रंग है जो डराता नहीं- इस अजनबी समय में एक होने के एहसास को आहिस्ते से सहला देता है.
मुझे हजार काम और भारी भीड़ में भी चाय पीना उतना ही मज़ेदार लगता है जितना एकांत निश्चिंतता में. और देखिए कि यहां मुझे मिल गये मानोस दा.
मैंने उनसे कहा -'आमाके एकटा चा दीन तो."
वे मुस्कुराए और बोले -'लेंबू चा आछे...देबो?
मैंने स्वीकृति में सिर हिलाया तो वे बोले "दीच्छी दादा!"
वे आराम से चाय बना रहे थे. भीड़ थी, शहर था, शोर था पर इन सबों के बीच मानोसदा लैंबू चा बना रहे थे यह देखना अत्यंत सुखकर था. उन्हें न तो भीड़ की परवाह थी, न शोर की, न शहर की, न कोरोना की. वे तो बस चाह रहे रहे थे कि उनके "कास्टाॅमार" (ग्राहक) उनकी चाय पीएं और वे मुस्कुराकर पूछें -"दादा,चाए आर लैंबू देबो कि !!"
चाय सचमुच बहुत अच्छी बनी थी. आप भी कभी गारियाहाट आएं तो क्या पता आपको मानोस दा यूं ही मुस्कुराते हुए मिल जाएं... और आपसे पूछें - "चा खाबेन !!"
(उत्तम पीयूष लेखक हैं. यहां व्यक्त विचार उनके अपने हैं और उनसे इंडिया टुडे की सहमति आवश्यक नहीं है)
***