आखिर, गलवान इतना महत्वपूर्ण क्यों है
लद्दाख में भारत का तीन किलोमीटर का ये घाटी वाला इलाका सुरक्षा के लिहाज से बहतु अहम है

धीरे-धीरे क्षेत्र कब्जाने की चीनी रणनीति के तहत पूर्वी लद्दाख में पूरी गालवन घाटी पर कब्जा जताना, बेशर्मी और बेहूदगी भरा दावा है. चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता लीझियान झाओ ने 20 जून को चार दिन के भीतर किए गए अपने दूसरे दावे में कहा, “गलवान घाटी, भारत-चीन सीमा के पश्चिमी हिस्से में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) के चीनी हिस्से में आती है.”
16 जून को चीनी सेना (पीएलए) की पश्चिमी थिएटर कमांड के बयान में गलवान घाटी पर संप्रभुता का दावा जताया गया और इसमें भारत के हिस्सा भी शामिल किया गया. ये दावे और और मई में शुरू हुई पूर्वी लद्दाख में घुसपैठ चीन के एलएसी में बदलाव के हाल के वर्षों चीन के सबसे बड़े प्रयास कहे जाएंगे.
15 जून को भारत के 20 सैनिक पीएलए सैनिकों से आमने-सामने की दस्त-बदस्त लड़ाई में शहीद हुए. इससे पहले चीनी सैनिकों ने एलएसी के पास पेट्रोल प्वाइंट नंबर 14 पर टेंट गड़ा लिए और कुछ ढांचे खड़े कर लिए. विदेश मंत्रालय ने एक बयान में कहा, “हिंसा इसलिए हुई क्योंकि चीनी पक्ष एलएसी के काफी नजदीक कुछ ढांचे खड़े करना चाहता था और मना करने पर भी इस तरह की गतिविधियां बंद करने पर राजी नहीं हुआ.”
पीपी 14 को एलएसीका पूर्वी छोर कहा जाता है और ये गलवान नदी से 3 किलोमीटर ऊपरी इलाके में स्थित है. दशकों पहले जारी चीनी नक्शों में भी स्पष्ट रूप से गलवान के इस इलाके को भारत का हिस्सा बताया गया है. यही पीपी-14 है जहां से पेट्रोलिंग के बाद लौटते हुए भारतीय सैनिकों का झगड़ा हुआ.
आखिर चीन को अचानक नक्शे में बदलाव करने की जरूरत क्यों महसूस हुई? इसका जवाब पहाड़ी क्षेत्र की जटिल युद्ध रणनीतियों में छिपा है.
दरअसल, सारी सैन्य कार्रवाइयों में भू-भाग की प्रकृति की बड़ी भूमिका होती है. गहरी घाटियों, चोटियों, नालों नदियों जैसी प्राकृतिक बाधाओं वाले दुर्गम इलाकों में थल सैनिकों के लिए घात लगाना और अधिक संख्या में सैनिक उतारना बहुत मुश्किल होता है. इसी वजह से घाटी बहुत उपयोगी होती है. ये लॉजिस्टिक लाइफलाइन की तरह काम करती हैं क्योंकि घाटी की तलछटी में हवाईपट्टी और सड़कें बनाई जा सकती हैं. साथ ही इनसे टैंक, तोपें और बड़ी बख्तरबंद गाड़ियां ले जाई जा सकती हैं जिससे सैनिकों का प्रवेश हो सके.
अमेरिकी फौज के 2011 के माउंटेन ऑपरेशंस मैन्युअल में घाटी की तलछटी को सबसे अनुकूल टेरेन लेवल-1 का युद्ध मैदान माना गया था. क्योंकि इस लेवल पर जगह कम होने के बावजूद बड़ी संख्या में फौजी अपनी कार्रवाई कर सकते हैं. इस नजरिये से देखा जाए तो गलवान घाटी का महत्व समझा जा सकता है.
बेहद अहम दरबूक-श्योक-दौलतबेग ओल्डी (डीएसडीबीओ) रोड का निर्माण पिछले साल ही पूरा हुआ है. यह मार्ग श्योक नदी के किनारे और गलवान और श्योक के मिलन स्थल तक फैला हुआ है.
तोपखानों और टैंक की मदद से चीनी आक्रमण की सूरत में वे घाटी के साथ लगी डीएसडीबीओ को काट सकते हैं जिससे भारतीय सेना को गलवान के उत्तर में रसद की सप्लाई बाधित हो सकती है. सब सेक्टर नॉर्थ के नाम से जाना जानेवाला ये सैन्य इलाका काराकोरम दर्रे से ठीक नीचे है और सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है.
सैन्य विश्लेषक मेजर जनरल (सेवानिवृत्त) विनय चंद्रन कहते हैं, “अगर वे घाटी के रास्ते आते हैं तो वे सड़क संपर्क तोड़ सकते हैं. हमें पीपी-14 के नजदीक ऊंचाइयों पर काबिज रहते हुए इसकी हिफाजत करनी होगी.” भारतीय सेना ने 1962 में गलवान घाटी के पास हॉट स्प्रिंग्स में एक चौकी स्थापित की थी. ऐसा इसलिए किया इसकी वजह दिवंगत पत्रकार नेविली मैक्सवेल ने 1970 में अपनी किताब ‘इंडियाज चाइना वार’ में लिखी है, “यह भारतीय सेना मुख्यालय के नक्शे के मुताबिक चीनी कब्जे वाले क्षेत्र में सैनिकों के दाखिल होने के लिए सबसे बेहतर रास्तों में से एक है.”
उत्तरी कमान के एक पूर्व कमांडर कहते हैं कि घाटी कोई बहुत आकर्षक स्थान नहीं रह गई है क्योंकि यहां पीएलए के कोई बड़े कैंप या टार्गेट नहीं हैं. उन्होंने कहा, “हमारे लिए घाटी की हिफाजत बहुत महत्वपूर्ण है.” जाहिर है जब दांव ऊंचे हों तो कोई भी सरकार या फौज इस इलाके को छोड़ने की जहमत नहीं उठा सकती. 19 जून को विदेश मंत्रालय ने स्पष्ट कर दिया था कि हमारी जो भी गतिविधियां हैं वे एलएसी के भारत के हिस्से वाले क्षेत्र में हैं. साथ ही उम्मीद जताई थी कि चीनी पक्ष को भी अपनी गतिविधियां एलएसी के चीनी तरफ वाले इलाके तक ही सीमित रखनी चाहिए.
बहरहाल, लद्दाख में भारतीय फौजों का भारी जमावड़ा, टैंकों और तोपखानों का जमघट, लड़ाकू विमानों और हेलीकॉप्टरों की आवाजाही बताती है कि भारत सरकार को ये इल्म है कि चीनियों को गलवान से खदेड़ने के लिए कूटनीतिक प्रयासों से ज्यादा की जरूरत है.
(अनुवादः मनीष दीक्षित)