मालिनी अवस्‍थी का पहला लोकगीत

मालिनी अवस्‍थी ने मां की समझ को न केवल पुख्‍ता किया बल्कि पैंतालीस साल पहले मां की आंखों में जन्‍मे उस सपने को इतनी शिददत से साकार किया कि आज मालिनी अवस्‍थी लोक अध्‍येता के रुप में प्रतिष्ठित है. वह अपने फेसबुक स्‍टेटस में स्‍वीकारती है- “ देश की माटी में रची बसी , लोक संस्‍कृति की थाती सहेजना मेरा धर्म , प्रिय है परिवार,सुर, किताबें, यात्रायें.“

लोकगीत गायिका मालिनी अवस्थी
लोकगीत गायिका मालिनी अवस्थी

राजेंद्र शर्मा

बात लगभग पैतालीस साल पहले की है, वर्ष 1974-75, उत्‍तर प्रदेश के पूर्वाचंल का जिला मुख्यालय मिर्ज़ापुर. यहां के सरकारी चिकित्‍सालय में कार्यरत डॉ. प्रमथ नाथ अवस्‍थी, डॉ. साहब अपने पेशेगत दायित्‍व को पूर्णतया समर्पित, सुसंस्‍कृत ,कला प्रेमी ,संगीत प्रेमी. सोने पर सुहागा यह कि अर्धागिनी श्रीमती निर्मला अवस्‍थी भी कर्तव्‍यपरायण गृहणी के साथ कला प्रेमी, संगीत प्रेमी. उस दौर में डॉ. साहब के ड्राइग रुप में एल पी रिकार्ड ,जिस पर फुरसत के क्षणों में अमीर खां साहब, पंडित रवि शंकर, अली अकबर खां की जुगलबंदी और लता मंगेशकर के शास्‍त्रीय गायन दोनों प‍ति पत्‍नी सुनते. संगीत को सुनने गुनने की यह दीवानगी ड्राइग रुम तक ही सीमित नहीं थी. जब भी आसपास कोई संगीत का कार्यक्रम होता अवस्‍थी दम्‍पति सुनने जाते, कार्यक्रम चाहे विध्‍याचंल में हो या प्रयाग संगीत समिति का इलाहाबाद में आयोजन.

संगीत के प्रति इसी दीवानगी के चलते ख्‍याल आया कि बेटियों को संगीत की तालीम दिलायी जाए. 12-13 बरस की बडी बेटी मल्लिका अवस्थी को मिर्ज़ापुर के ही शास्‍त्रीय संगीत शिक्षक श्री श्रीवास्‍तव जी को इसका जिम्‍मा सोंपा गया. उन ही दिनों विंध्‍याचंल में आयोजित एक संगीत समारोह, जिसमें श्रदेया गिरिजा देवी, किशन महाराज, सितारा देवी हर साल शिरकत किया करते थे, में सिद्धेश्वरी देवी ने भैरवी में दादरा लोकगीत सुनाया , जो डाक्‍टर साहिबा को इतना भाया कि कंठस्‍थ हो गया पर वह उसे लय में नही गा पाई. यकायक एक दिन उन्‍होनें श्रीवास्‍तव जी से आग्रह किया कि यह गीत उनकी छोटी बेटी को सिखा दें. रियाज शुरु हुआ और सात आठ बरस की बालिका ने उस गीत को उसी रवानगी में गाया जैसा मॉ चाहती थी. यह गीत

इस प्रकार है –

सूरज मुख न जाइबे ,न जाइबे हाय राम

बिंदिया के रंग उडा जायें हाय मोरी

बिंदिया के रंग उडा जायें ।

अरी लाख टका की मोरी बिंदिया

अरी समधी के जीयेरा ललचाये

हाय राम बिंदिया के रंग उडा जायें

सूरज मुख न जाइबे ,न जाइबे हाय राम

बिंदिया के रंग उडा जायें हाय मोरी

बिंदिया के रंग उडा जायें ।

बिंदिया देई में निकसी अंगनवा

निकसी अंगनवा ,निकसी अंगनवा

अरे देवरा नजरिया लगाये

हाय राम बिंदिया के रंग उडा जायें

इस लोकगीत से अपने जीवन की संगीत यात्रा को प्रारम्‍भ करने वाली वह बालिका देश की प्रख्‍यात लोक गायिका,लोक अध्‍येता पदमश्री आदरणीय मालिनी अवस्‍थी है. यहां यह प्रश्‍न स्‍वत: ही उभरता है कि बडी बेटी मल्लिका अवस्‍थी, जो उस समय बारह तेरह बरस की थी और बाकायदा संगीत सीख रही थी को मां ने यह लोकगीत सीखने के लिए न कहकर सात आठ बरस की अपनी छोटी बेटी को यह लोकगीत सिखाने के लिए श्री श्रीवास्‍तव जी से क्‍यों कहा ? जबाब यही मिलता है कि गैया ही जाने अपनी बछिया को. मां जानती थी ,समझ् चुकी थी कि उनकी छोटी बेटी लोक में रंगी है ,वह ही इस लोकगीत को बेहतर गा सकती है.

मालिनी अवस्‍थी ने मां की समझ को न केवल पुख्‍ता किया बल्कि पैंतालीस साल पहले मां की आंखों में जन्‍मे उस सपने को इतनी शिददत से साकार किया कि आज मालिनी अवस्‍थी लोक अध्‍येता के रुप में प्रतिष्ठित है. वह अपने फेसबुक स्‍टेटस में स्‍वीकारती है- “ देश की माटी में रची बसी , लोक संस्‍कृति की थाती सहेजना मेरा धर्म , प्रिय है परिवार,सुर, किताबें, यात्रायें. “मालिनी अवस्‍थी की लोक के प्रति आस्‍था,साधना का ही यह प्रतिफल है कि वह जो लोकगीत गाती है, एक जमाने में वह घर आंगन तक सीमित था , दो तरहा के कलाकारों के लिए ही मंच होता था, एक शास्‍त्रीय संगीत, दूसरा मुम्‍बईयां संगीत. मालिनी अवस्‍थी ने घर आंगन तक सीमित लोकगीतों को इस अंदाज में गाया कि आज लोकगीतों के लिए मुक्‍म्‍मल मंच है, श्रोता है और लोकगीतों के प्रति लोंगों की दीवानगी है. उनकी खनकती आवाज का क्‍या कहना , मशहूर शायर आलोक श्रीवास्‍तव ने शायद उनकी आवाज के लिए कहा है कि

गले मे उनके खुदा की अजीब बरकत है,

वो बोलती हैं तो एक रोशनी सी होती है।

मालिनी अवस्‍थी इस बात से बावास्‍ता है कि आज उनका जो नाम है, शोहरत है, उसमें उनकी मेहनत, साधना तो है ही , मां की आंखों ने पैतालीस बरस पहले देखा सपना भी है जिसे उन्‍होनें साकार किया है. मालिनी अवस्‍थी की मॉ यानि श्रीमती निर्मला अवस्‍थी चौदह बरस पहले नही रही परन्‍तु मालिनी अवस्थी का अन्‍तर्मन इसे मानने को तैयार नही है. वह आज भी मॉ से एकतरफा बतियाती है। मां से कहती है –कभी लगा ही नही तुम चली गई मम्‍मी. तुमसे मेरा एकतरफा संवाद पिछले चौदह वर्षो से जारी है. मौन रहकर भी तुम न जाने कैसे मुझसे अपनी स‍हमति-असहमति सब व्‍यक्‍त कर देती हो.

रोम रोम में तुम्‍हारी उपस्थिति है मां

कभी लगता ही नही कि तुम चली गई ।

बेटी की गर यह आस्‍था है तो मॉ की आस्‍था क्‍या होगी. यह सच है कि श्रीमती निर्मला अवस्‍थी दुनिया के लिये अब नही रही परन्‍तु मां बेटी के शाश्‍वत रिश्‍ते में ऐसा संभव ही नही है कि मालिनी अवस्‍थी मंच पर लोकगीत गाए और मां उसे सुने बिना रह जाएं. मालिनी अवस्‍थी का कार्यक्रम जहां भी हो, मां वहॉ रहती होगी वह चाहे मेरठ हो या भोपाल, मारीशस या लंदन या पदमश्री सम्‍मान प्राप्‍त करते हुए राष्‍ट्रपति भवन का दरबार हाल हो. मां वहां पंख लगाकर पंहुचती जरुर होगी. मां ऐसी ही होती है.

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