लोकआस्था के महापर्व छठ को देखिए तस्वीरो में

छठ लोकआस्था का महापर्व है. न कोई कर्मकांड न कोई जाति भेद. एक कृषिप्रधान खेतिहर समाज के लिए सूर्य की उपासना से बड़ी कोई पूजा हो भी नहीं सकती. बिना किसी कर्मकांड का यह त्योहार लोगों को प्रकृति से जोड़ता है. कुछ तस्वीरों के जरिए रू-ब-रू होइए छठ पूजा से, जिसे भेजा है बिहार के मुजफ्फरपुर से अनु रॉय ने

बिहार से छठ की तस्वीरें
बिहार से छठ की तस्वीरें

रामधारी सिंह दिनकर अपनी किताब ''संस्कृति के चार अध्याय'' में संकेत देते हैं कि हो सकता है इस प्रकार के पर्व उन अनार्य और जनजातीय महिलाओं द्वारा आर्यों की संस्कृति में प्रविष्ट किए गए हों जिनसे विवाह आर्य लोगों ने इन क्षेत्रों में आगमन के बाद किया था. लेकिन इस तर्क में एक पेंच हैं-जनजातीय लोग प्रकृति पूजक तो थे, लेकिन सूर्योपासक भी थे इस पर संदेह है! सूर्य आर्यों के देवता थे!

छठ पर्व की कुछ बातें उल्लेखनीय हैं- सूर्योपासना, पुरोहित या कर्मकांड का न होना, व्यापक समाज की भागीदारी और स्थानीय वस्तुओं, फलों और उत्पादों का प्रयोग. कह सकते हैं कि यह पर्व 'सभ्यता-पूर्व' पर्व है- उस समय का पर्व, जब समाज अपने ठोस रूप में संगठित होना शुरू नहीं हुआ था. शायद इसलिए भी इसमें सभी जाति-वर्ण के लोग एक जैसी श्रद्धा से भाग लेते हैं.

छठ का त्योहार नहाय-खाय से शुरू होकर सुबह अर्घ्य देने तक चलता है. नाक से लेकर मांग तक सिंदूर चढ़ाई महिलाएं इस त्योहार को लीड करती हैं, इनमें पुरुषों का काम सिर्फ मदद उपलब्ध कराने वालों का होता है. एक तरह से इस त्योहार को महिलाओं की अगुआई वाला उनकी सशक्तिकरण का त्योहार माना जाना चाहिए. 

सभी पवनैतिन (व्रती) नहाय-खाय के दिन बाल धो स्नान कर, इस महाअनुष्ठान का प्रण लेती हैं. इस दिन घर में शुद्ध घी में लौकी की सब्ज़ी, दाल और अरवा चावल पकाया जाता है. पहले पवनैतिन भोजन करती हैं, फिर प्रसाद स्वरूप बाकी लोग यही खाते हैं. नहाय-खाय के अगले दिन होता है 'खरना'. इस दिन से उपवास शुरू हो जाता है.

छठ प्रकृति खासकर नदियों की उपासना का त्योहार है. पर जब से नदियों में प्रदूषण हुआ है तो घाटों पर शोरगुल बढ़ा है, लोग अपनी छतों पर भी यह त्योहार मनाने लगे हैं. आखिर मन चंगा तो...

छठ मूलतः खेतिहर समाज का प्रकृति को दिया धन्यवाद ज्ञापन सरीखा है. उपज का एक अंश सूर्य को समर्पित करना इस त्योहार का अहम हिस्सा है

सूर्योपासना के इस पर्व में साफ सफाई का विशेष ध्यान रखा जाता है. और समाज का हर वर्ग इसमें हिस्सा लेता है.

परिवार के वरिष्ठ सदस्य सिर पर डलिया लेकर प्रसाद और सूपों को छठ के घाट तक ले जाते हैं. डालों को घाट तक ले जाते समय भी स्वच्छता और पवित्रता का विशेष ध्यान रखा जाता है. भोर में ही उठतीं हैं पवनैतीन और चूल्हा जलाकर उस पर रख देती हैं, गुड़ और पानी उबलने को. फिर घर के बाकी के लोग जुट जाते हैं खजुरी-ठेकुआ बनाने में. उधर उबलते हुए गुड़ वाले पानी में चावल का आटा मिला 'कसार' कोई बांध रहा होता, तो इधर छठ का गीत गाते हुए कोई तल रही होती है ठेकुआ-ख़जूरी. कैसे सुबह से दोपहर हो जाती है पता भी नहीं चलता. दोपहर में डलिया सजाने और सूप सजाने का काम शुरू हो जाता है. जिसमें रखती हैं वो अदरक-हल्दी के हरे-हरे पौधे, मूली, पान-सुपारी, अरतक पात (लाल रंग का एक शुद्ध गोल पत्ता जिसे बाद में दरवाजे पर चिपकाया जाता है) सूत के धागे, नारंगी रंग का पीपा सिंदूर, सेब, संतरा, केला, नारियल, ईख और घर में बने तमाम पकवान.

ईश्वर और उपासक के बीच कोई बिचौलिया नहीं. कोई जातिभेद नहीं. तो मूल रूप से छठ को लोकपर्व माना जाना चाहिए. छठ लोक की रग-रग में बसा देसी त्योहार है. जितना यह पवित्र है, और जिसतरह बाकी सामाजिक और सांस्कृतिक प्रदूषणों से बचा हुआ है, उससे लगता है कि यह प्रासंगिक भी है और महत्वपूर्ण भी. 

(इस पोस्ट के सभी चित्र अनु रॉय ने उपलब्ध कराएं हैं) 

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