गगरी न फूटै चाहैं खसम....!

चूहडों से पानी भरती औरतों की फोटो खींचने के लिये आय दिन बुंदेलखंड में फोटोबाज आते रहते हैं.

सूखा और औरतें
सूखा और औरतें

का होहे, घूंघट को उठाइबे से? का देखने तु्म्हें? तुम ओरन को कुछ काम नहीं. जब देखो फोटोबाजी करबे को मंडरात राहत. उमा का गुस्सा इतना बढ़ गया था कि उसने आव देखा न ताव कलशा मेरी तरफ बढ़ाते हुए कहा ‘चलो पानी को एक कलशा तुम्हउ उठा लो.’

उमा का यह जवाब अप्रत्याशित था! शायद प्रत्याशित था! चूहडों से पानी भरती औरतों की फोटो खींचने और उनके बारे में लिखने के लिये आय दिन फोटोबाज और कलमबाज यहां आते रहते हैं. मैं भी कहां उमा के लिये कुछ करने गई थी, मैं भी तो फोटोबाजी और कलमबाजी ही करने गई थी.

उमा को और रुकना अब गवारा न था. चिलचिलाती धूप में खाली कलशे और रंगबिरंगे डब्बे कमर से सटाये सरपट भागती उमा की फुर्ती किसी हिरनी से कम नहीं लग रही था. माहुर लगे पैरों में गिलट के पायल, पैरों की उंगलियों में बिछिया, हाथों में चूड़ियां और हाथभर का घूंघट.

चुपचाप पीछे पीछे हम सब भी चल दिये. हम सब यानी मैं उमा की जेठानी कौशल्या, सास जमनी. करीब एक किलोमीटर तक हम सब यूं ही चुप थे. या यों कहें सूझ ही नहीं रहा था मुझे कि बात कहां से शुरू करें. चंद्रावल नदी के किनारे किनारे बने गड्ढों यानी चूहड़ों पर पहुंचे तो वहां औरतों का हुजूम था.

जमनी ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा, यहीं से पानी भरते हैं हम सब. लगा किसी ने झकझोर कर किसी ख्याल से बाहर निकाल दिया हो. हां, ख्याल ही तो कर रही थी मैं, ख्याल घूंघट के भीतर के चेहरे का. ख्याल कि उमा का यह गुस्सा सूखे की पैदाइश है या कि अपनी किस्मत से उठी खीझ का नतीजा है. औरतों का गुस्सा यूं नहीं छलकता.

विरोध की ताकत भी तो यूं नहीं आ जाती. क्या सूखे ने उमा को निडर कर दिया था? शायद निडर नहीं बेपरवाह कर दिया था... बेपरवाह कि भाड़ में जाओ सब. या कि गुस्सा कि हम बस खबर नहीं. हाड़-मांस के इंसान हैं.

पानी भरती हो तो कोई एहसान नहीं करती। कौशल्या भी भरती है. मैं भी भरती हूं. रानी भी भरती है. गांव की सब औऱतें भरती हैं. जमनी तड़पकर बोली ‘तीस साल हो गए एसीयई पानी भरत भरत हमें, पै इतनी लंबी जबान कभहूं बाहर नहीं निकरी.’

उमा को चुप कराने की कोशिश के बीच जमनी का दुख भी फूट पड़ा था. तीस साल...यूं हीं चूहड़ों से पानी भरते भरते! गड्ढा खोदते खोदते! खारे मटमैले पानी को पीते-पीते! मगर उमा तो मानों आज किसी का दर्द बांटने के लिये तैयार ही नहीं थी, बस बगावत पर उतारू थी.

अपनी सास जमनी के दर्द को नजरअंदाज करते हुए उमा बोली, ‘हां तो काहे नहीं हमाए बाप को सच्ची-सच्ची बता दई हती. तब तो लरका को ब्याहबे खातिर मरीं जाये रहीं हतीं. झूठी बोल दओ की लरका तो दिल्ली में राहत हे, सो बहू कुछ दिना इतैं रहबे के बाद दिल्ली चली जेहे.’

 उमा के इस आरोप से जमनी तिलमिला उठी ‘हां, तो काहे नहीं पूछी तुम्हाए बाप ने. हमाए लरकन को का ब्याओ नहीं हो रहो हतो! खूब रिस्ता आ रहे हते. पर का करैं हमाई तो आंखन में माढ़ा चढ़ गओ हतो.’ कौशल्या ने उमा का हाथ दबाते हुए कहा, चल उमा चुप हो जा.

जल्दी घर चल. उमा तो मानों आज चुप होने को तैयार ही नहीं थी, हां, हां, जल्दी तो जावे परहे न, घर जायके खसम की मार भी खावने है, न. अब खिसियाई जमनी ने कहा कोई नई बात नहीं है, खसम सबहीं के मारत हैं। हमें तो तीस साल होइगे मार खात-खात. मगर तु्म्हाईं जैसी जबान ....!

अइसयई कतरनी जैसी जबान चलती तो कबका निकार दव होतो. उमा ने डरकर चुप होने की जगह उत्तर दिया हां तो निकार दो. रहबे कौन चाहत? इतईं सुखाड़ में. न खाएबो को रोटी औऱ न पीबे को पानी.

अब जमनी ने अपना कलशा सिर पर रख लिया. मानों उसे कोई काम याद आ गया हो. बुदबुदाते हुए इतना जरूर कहा, पानी तो हमेशा से औरतें ही भरती आईं हैं. औरत बनके पैदा हुई तो पानी नहीं भरोगी तो क्या करोगी?

उमा की जिठानी कौशल्या सबकुछ चुपचाप सुन रही थी. जैसे ही कौशल्या की तरफ मैं घूमी उसने उमा से सहानुभूति जताते हुए कहा साल भर शादी को नहीं हुए हैं. समझ नहीं है, इसलिए झल्ला जाती है. उमर भी तो बहुत हल्की है.

सत्रहवीं में अभी लगने वाली है. मैंने कौशल्या से पूछा तुम्हारी शादी कब हुई थी. कौशल्या ने कहा चार-पांच साल हो गए.‘शुरू में खूब लड़े हते हम, सबसे. लेकिन अब तो सब सीख गए. बुंदेलखंड की औरतन की तो किस्मतई खराब है. पानी भरो और आदमियन की गारी सुनौ, मार खाओ.’

पै का करैं? किस्मत तो बदल नहीं सकत! उमा अब गुस्से में आ चुकी थी. तुम्हाई तो आदत पड़ गई है. मार खाइबे की. कल तो चुप रहे हते हम. लेकिन आज जो हाथ उठाओ तो..... आगे उमा कुछ नहीं बोली. जमनी का गुस्सा फूटा पड़ रहा था. बाप से तालाब खुदवा लो या पानी की गाड़ी मंगवा लो.

समाजसेवी और बुंदेलखंड को बारीकी से जानने वाले आशीष भाई ने हल्के से मेरा कंधा छुआ. आगे चलें, अभी न जाने कितने किस्से आपको और मिलेंगे. यों तो बुंदेलखंड पूरा सूखा है, मगर महोबा का यह गांव न जाने कितने बरस से यूं ही सूखा है.

गर्मियों में गड्ढे खोद-खोदकर पानी खोजते ये लोग लोकतंत्र का भूला हुआ हिस्सा हैं. चंद्रावल नदी के किनारे बसे इस गांव से आधा किलोमीटर पर मेन सड़क है. चिकनी, सरपट, डामर वाली. यहां से निकलो तो सीधे हमीरपुर पहुंचो, नान स्टाप. मेरे मन ने बगैर मुझसे पूछे बुदबुदाया.

बिल्कुल वैसे ही नॉन स्टाप जैसे हर अधिकारी और नेता यहां बिना रुके निकल जाते हैं. शायद रुकते तो पता चलता कुछ वोट यहां भी उगते हैं!

 सूखे ने पूरे बुंदेलखंड को रसहीन कर दिया है. मैं टकटकी लगाये उस जमीन को देख रही थी जहां दरारे ही दरारें थीं. सूखे की दरारें. मानों धरती की छाती फट गई हो. न जाने कब दरार पड़ी धरती उमा के चेहरे में बदल गई. उमा का चेहरा जिसे मैंने देखा भी नहीं था. बस महसूस किया था, घूंघट के भीतर.

आशीष भाई ने फिर बात शुरू की. पानी और औरत का रिस्ता तो बहुत पुराना है. जैसे बुंदेलखंड में पानी सूखा वैसे ही रिस्ते भी सूख गये. यहां एक कहावत है...गगरी न फूटै चाहें खसम मरि जाये. दूर बैठे लोग क्या जानें! सूखा क्या-क्या छीनता है? कौशल्या जो शांत लग रही थी, धीरे से बोल पड़ी. चूल्हे से चूहड़ तक सब औरतों की ही जिम्मेदारी है. और अचानक गंभीरता एक हल्की मुस्कान में बदल गई. बुंदेलखंडकी औरतें हड़ताल कर दें तो यहां के मर्द मर जाएं.

लग रहा था उमा ने 48 डिग्री का ताप उगल रहे सूरज से शर्त लगाई है कि देखते हैं आज किसका ताप ज्यादा है? ज्यों ज्यों सूरज का पार चढ़ रहा था, उमा गुस्सा बढ़ रहा था. उमा ने कौशल्या को टोंकते हुए कहा, बस तुम तो चुपई रहो.

तुम्हाये जैसीं औरतन की वजह से मरदन की चर्बी चढ़ गई है. तुम्हाएं ओरन के जुबान नइया. कौशल्या न गुस्साई न खीझी बस इतना कहा, चल घर चलें.

उमा की नाराजगी अभी मुझसे कम नहीं हुई थी. काहे तुम्हायें घर में का मर्द नइया. जो फिर रहीं..फोटो खींचत! लेओ, चुल्लु में पानी भरकर दिखाते हुए कहा, इ फोटो भी अखबार में छाप छाप दियो. फिर अचानक से उसने कहा ‘ओर तुम्हें लिखबे है न, कहानी! तो जे पानी पी के देखो. बोतल को पानी पीके चलीं आईं लिखबे कहानी.’

उमा की चुनौती स्वीकारी थी मैंने. मगर, घूंटभर पानी भी गले के नीचे नहीं उतार पाई. लगा नमक का कीचड़ वाल घोल है. इस उगले हुए पानी के साथ बरबस निकल पड़ा एक सवाल. पीने के लिये भी यही पानी इस्तेमाल करते हैं आप लोग? जवाब कौशल्या ने दिया पीने, नहावे, गोरु सब काम को जेई पानी है.’

अब हर सवाल बेमानी सा लग रहा था. उमा का गुस्सा मेरे हर सवाल का जवाब था. फोटोबाजी और कलमबाजी यह शब्द बार बार सुनाई दे रहे थे. सच ही तो है, सूखे की इस त्रासदी से बुंदेलखंड की धरती का सीना फट गया था. लेकिन इस त्रासदी में भी एक्स्क्लूसिव हथियाने का मोह मैं छोड़ नहीं पाई थी. नहीं थो क्या अब कोई सवाल जरूरी था? क्या कुछ ऐसा बचा था, जिसे मैंने महसूस नहीं किया था?

मगर जितने एंगल से बाइट होगी स्टोरी उतनी ही रोचक होगी! मैंने फिर पूछा रोजाना कितने चक्कर आप लोगों को लगाने पड़ते हैं? इसका जवाब तुरंत नहीं कुछ मिनटों बाद मिला.‘कुछ पता नहीं, कभहूं-कभहूं दस तो कभहूं और ज्यादा.’ मेरे दिमाग की गणित तेज हो गई. दस यानी रोजाना बीस किलोमीटर! हम निकल पड़े कुछ और किस्से खोजने.

सूख चुकी कुछ और दास्ताने सुनने. आंखे जहां तक जा रहीं थीं वहां तक दरारें ही नजर आ रहीं थीं. दरारें सूखे तालाबों की, खेतों की, और दरारें घूंघट के पीछे छिपे चेहरों की. प्यास बहुत तेज लगी थी, बोतल निकाली तो लगा चूहडों का खारा और मटमैला पानी इस बोतल में भर गया है. आशीष भाई बता रहे थे, अब समझ में आया यहां पर यह कहावत क्यों फेमस है, गगरी न फूटै चाहें खसम मरि जाये. मैं अपना ध्यान हटाना चाहती थी, ड्राईवर से कहा, भाई कोई गाना लगा दो. औऱ गाना बजने लगा, राजा जी बाजा बाजी की न बाजी!

(संध्या द्विवेदी इंडिया टुडे में विशेष संवाददाता हैं.)

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