हलफनामाः ट्रांसजेंडर आखिर कहां जाएं
नया कानून ट्रांसजेंडर्स को यौन उत्पीड़न में राहत तो प्रदान करता है लेकिन मामूली सी. इससे ट्रांसजेंडर्स खुद भी सहमत नहीं है. उनका कहना है कि ट्रांसजेंडर्स से रेप में भी महिलाओं से रेप जैसी सजा होनी चाहिए. इसके अलावा उनको अपना जेंडर चुनने की आजादी मिलनी चाहिए.

इस देश में दलितों से भी ज्यादा बुरी हालत शायद ट्रांसजेंडर्स यानी किन्नरों की है. जन्म से शारीरिक तौर पर पूर्ण पुरुष या नारी न होने वाले शख्स को उभयलिंगी कहा जाता है, हालांकि ये समुदाय खुद को उभयलिंगी भी कहलाना पसंद नहीं करता और इसकी अपनी अलग और विस्तृत दलीलें हैं. एक बात और कि जैसे ही ट्रांसजेंडर की बात शुरू होती है वैसे ही इसके आस-पास के समुदाय (गे, लेस्बियन इत्यादि) भी कूद पड़ते हैं. बहरहाल हम सिर्फ ट्रांसजेंडर्स यानी किन्नरों की बात करेंगे.
देश के रहनुमाओं को इस समुदाय के होने का अहसास आजादी के 46 साल बीत जाने के बाद हुआ. 1994 में किन्नरों को मतदान का अधिकार दिया गया, इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि इनके साथ किस दर्जे का व्यवहार होता रहा है. आज की तारीख में भी किन्नरों के लिए समाज तो दूर पहले घर में ही जगह बनाना मुश्किल है. अगर किसी घर में कोई उभयलिंगी बच्चा पैदा हो जाए तो पहली बात ये है कि इसका पता तत्काल नहीं लगता है. जब बच्चा 10 साल के आसपास की उम्र में पहुंचता है तब उसकी शुरुआती हार्मोनल ग्रोथ के क्रम से थोड़ा अंदाजा लग पाता है.
किन्नर बच्चे का भविष्य पूरी तरह उसके परिवार की सोच और आर्थिक स्थिति पर निर्भर होता है. लेकिन ट्रांसजेंडर्स के अधिकारों की रक्षा के लिए आ रहा नया कानून ऐसे बच्चों को परिवार से निकालने और उनसे दुर्व्यवहार पर नियंत्रण लगाकर इसके लिए सजा का प्रावधान करता है. फिर भी ट्रांसजेंडर बच्चों पर खतरा कायम है और उसकी वजह समाज है. हालांकि, यौन उत्पीड़न और बलात्कार जैसे मामलों में ट्रांसजेंडर बच्चों को पॉक्सो कानून के तहत भी संरक्षण हासिल है लेकिन ये संरक्षण सिर्फ 18 साल तक ही है. इसके बाद ट्रांसजेंडर बच्चों पर पॉक्सो नहीं लगता, लिहाजा उनकी समस्याएं भी यहीं से ज्यादा गहरी हो जाती हैं.
ट्रांसजेंडर कहते हैं कि उनको सामान्य तौर पर घर से बाहर निकलने में ही उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है. पब्लिक टायलेट से लेकर रेस्तरां और अन्य सार्वजनिक स्थलों पर उन्हें हमेशा ही मुश्किलें झेलनी पड़ती हैं. शायद किन्नरों के बहुत कम पढ़े लिखे होने की एक वजह स्कूल में होने वाला उत्पीड़न है. हमने अपने स्कूल में पढ़ने वाले एक ऐसे ही बच्चे का उदाहरण देखा था जबकि उस बच्चे की हार्मोनल थेरेपी भी चल रही थी. उस बच्चे के परिधान पुरुषों जैसे होते हुए भी उसकी आवाज वैसी नहीं थी. जाहिर है ऐसे में सामान्य बच्चों के साथ ट्रांस बच्चे का साथ शिक्षक की मौजूदगी तक ही साधारण रह पाता है. शिक्षक के जाते ही उसका उत्पीड़न होने लगता है. अब घर से लेकर स्कूल तक जिस बच्चे के साथ अगल तरीके का बर्ताव होगा तो उसका कोमल मन-मस्तिष्क कम से कम पढ़ाई लायक तो नहीं रह जाता है. ट्रांसजेंडर्स समुदाय से शायद इसीलिए इक्का-दुक्का पढ़े लिखे और प्रोफेशनल लोग निकलते हैं. कोई आइपीएस, आइएएस नहीं निकला.
पढ़ाई-लिखाई का मौका न मिलने के अलावा ट्रांसजेंडर्स के पास रोजगार का कोई विकल्प नहीं है सिवाय नाचने गाने के. इनको कोई सम्मान नहीं देता. कानून भी नहीं. भारत के आपराधिक कानूनों में ट्रांसजेंडर्स का जिक्र नहीं है इसलिए इनके साथ हुए अपराधों के लिए न्याय भी नहीं मिल पाता है. किन्नरों से दुष्कर्म में सजा का कोई उदाहरण समाचारों में भी मुझे तो कम से कम देखने को नहीं मिला है.
नया कानून ट्रांसजेंडर्स को यौन उत्पीड़न में राहत तो प्रदान करता है लेकिन मामूली सी. इससे ट्रांसजेंडर्स खुद भी सहमत नहीं है. उनका कहना है कि ट्रांसजेंडर्स से रेप में भी महिलाओं से रेप जैसी सजा होनी चाहिए. इसके अलावा उनको अपना जेंडर चुनने की आजादी मिलनी चाहिए. नया कानून उन्हें सर्जरी के जरिये और कलेक्टर के सर्टिफिकेट के बाद पुरुष या महिला कहलाने का हक देता है. ट्रांसजेंडर्स इसे अपने साथ अन्याय मानते हैं और कहते हैं कि क्या किसी पुरुष या महिला को अपना लिंग तय कराने के लिए सर्टिफिकेट लेना पड़ता है.
जब उन्हें नहीं लेना पड़ता तो हमारे ऊपर ये बोझ क्यों डाला गया. किन्नरों का कहना है कि जेंडर अकेले शारीरिक बनावट से नहीं बल्कि मन से तय होता है और हर शख्स को जेंडर चुनने का अधिकार होना चाहिए. यानी शख्स बताएगा कि वो महिला, पुरुष या किन्नर है और उसे किस कैटेगरी में रहना पसंद है. इतनी विस्तृत परिभाषा में पड़ने का सरकार का कोई इरादा तो नहीं दिखता है लेकिन कानून में पहले के मुकाबले एक व्यवस्था दी गई है. सरकार ने संसद में कहा है कि कानून के नियमों को बनाते समय विधेयक की कमियां दूर कर ली जाएंगी. एक और कठिन नियम सीबीएसई का है जिससे किन्नर परेशान हैं और वो ये कि 12वीं के बाद यानी 18 साल की उम्र के बाद सर्टिफिकेट में कोई बदलाव नहीं किया जाएगा.
इसका मतलब ये हुआ कि 18 वर्ष की आयु के बाद कोई अगर अपने सर्टिफिकेट में पुरुष, महिला या ट्रांसजेंडर करवाना चाहता है तो ऐसा नहीं हो सकेगा. व्यवहारिक स्थिति ये है कि 18 साल तक तो कोई भी बच्चा मां-बाप के साथ ही रहता है और उसकी इतनी हिम्मत नहीं होती है कि वो खुद को किसी दूसरे जेंडर का माने और उसी हिसाब से दस्तावेजों में बदलाव करवा ले. सीबीएसई का ये नियम निहायत ही असंवेदनशील है. अकेले यही नहीं तमाम अन्य पहलू भी हैं ट्रांसजेंडर्स की जिंदगी से जुड़े जिनपर समाज और सरकार को संवेदनशीलता से सोचना पड़ेगा अन्यथा इनकी जिंदगी कभी बदल नहीं सकेगी.
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