इंदर कुमार गुजराल : अंग्रेजों से भिड़ने से लेकर प्रधानमंत्री बनने तक की कहानी, देखें तस्वीरें
जब 1997 में कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी ने देवेगौड़ा सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया तो सवाल नमूदार हुआ कि प्रधानमंत्री का उम्मीदवार कौन हो? मुलायम सिंह यादव, जीके मूपनार, लालू प्रसाद यादव ने खूब तिकड़म लगाई लेकिन किसी नाम पर सहमति नहीं बन पा रही थी तो फिर गुजराल ने बाजी कैसे मारी

साल 1931. गुलाम भारत में नमक सत्याग्रह का असर अभी कम नहीं हुआ था. अविभाजित पंजाब के झेलम में एक 11 साल का लड़का युवा बच्चों के आंदोलन का नेतृत्व कर रहा था. पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया और बर्बरता से पीटा. यह लड़का स्वतंत्रता-सेनानी अवतार नारायण गुजराल और पुष्पा गुजराल का बेटा इंदर कुमार गुजराल था, जिसे आगे चलकर भारत का 12वां प्रधानमंत्री बनना था. एक शानदार विदेश मंत्री की पहचान हासिल करनी थी, 'गुजराल डॉक्ट्रिन' का अगुवा बनना था. पर इससे पहले उसे बहुत कुछ देखना-सुनना भी था.
4 दिसंबर, 1919 को झेलम में पैदा हुए इंदर कुमार गुजराल (आईके गुजराल) पढ़ाई में काफी होशियार थे. उन्होंने एम.ए, बी.कॉम, पीएच.डी. और डी. लिट. की उपाधि प्राप्त की थी. मां-बाप स्वतंत्रता सेनानी थे तो इंदर भी कैसे पीछे रहते. 11 साल की उम्र वाली बहादुरी का किस्सा तो आपने पढ़ा ही, वे 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के वक्त भी गिरफ्तार कर जेल भेजे गए. विभाजन के बाद पाकिस्तान से भारत आए गुजराल कांग्रेस से लंबे समय तक जुड़े रहे और इंदिरा गांधी के करीबी लोगों में से रहे. लेकिन आपातकाल के बाद हालात बदले.
1975 में आपातकाल के दौरान आईके गुजराल सूचना एवं प्रसारण मंत्री थे. उस समय संजय गांधी कांग्रेस में कोई मंत्री पद नहीं रखते थे लेकिन पार्टी के अंदर उनका पूरा दखल था. संजय ने गुजराल को फोन कर निर्देश दिया कि मीडिया को कैसे हैंडल करना है. गुजराल ने निर्देश को अनसुना करना चाहा. परिणामस्वरूप, इंदिरा गांधी ने उन्हें पहले योजना आयोग भेजा फिर रूस में राजदूत बनाकर भेज दिया. 1977 में जनता पार्टी के समय भी वे रूस में राजदूत बनकर ही रहे.
1980 में गुजराल ने कांग्रेस छोड़ जनता पार्टी का दामन थाम लिया. 1989 में जब वी.पी. सिंह की अगुवाई में राष्ट्रीय मोर्चा सरकार बनी तो वे विदेश मंत्री बनाए गए. लेकिन जल्द ही एक ऐसा वाकया हुआ जिससे गुजराल सहित भारत की भी पश्चिमी देशों में बड़ी बदनामी हुई. लेकिन दूसरे नजरिए से देखें तो कूटनीति में माहिर इस शख्स ने उस समस्या का निदान अपने हिसाब से हासिल कर लिया था. खैर, क्या थी वो समस्या?
1990 के अंत में सद्दाम हुसैन की अगुवाई में इराक ने पड़ोसी कुवैत पर हमला कर दिया था. उस समय कुवैत में लगभग 1 लाख 70 हजार भारतीय मौजूद थे. इधर अमेरिका की लीडरशिप में संयुक्त राष्ट्र से लेकर पश्चिमी देशों में सद्दाम के कृत्य पर भयानक रोष जाहिर किया जा रहा था. इसी बीच गुजराल इराक की राजधानी बगदाद की यात्रा पर निकल गए. वहां उनकी सद्दाम हुसैन को गले लगाते हुए तस्वीर सामने आई. बस फिर क्या था. आईके गुजराल समेत भारत की तमाम पश्चिमी देशों में काफी फजीहत हुई. लेकिन गुजराल की नजर में ऐसा करना सही था, क्योंकि वहां फंसे 1 लाख 70 हजार भारतीयों की जानों का सवाल था.
1989 से लेकर 1998 तक भारतीय राजनीति में काफी उथल-पुथल भरा दौर रहा. इस दौरान भारत ने प्रधानमंत्री की कुर्सी पर 6 लोगों को आसीन होते देखा. कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी ने जब 1997 में देवेगौड़ा सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया तो बहुदलीय संयुक्त मोर्चा में सवाल नमूदार हुआ कि प्रधानमंत्री का उम्मीदवार कौन हो? सभी प्रमुख धड़ों ने अपने तईं खूब कोशिशें की कि प्रधानमंत्री उनके दल का कोई व्यक्ति बने. मुलायम सिंह यादव, जीके मूपनार, लालू प्रसाद यादव खुद सीताराम केसरी ने इसके लिए खूब तिकड़म लगाई लेकिन इनके आपस में ही इतना विरोध था कि किसी नाम पर सहमति नहीं बन पा रही थी तो फिर गुजराल ने बाजी कैसे मारी?
आईके गुजराल स्वभाव में काफी शालीन और मितभाषी व्यक्ति थे. शेरो-शायरी के शौकीन इस आदमी की हर दल, हर कुनबे में यारी-दोस्ती थी. संभवत: ये ऐसे नाम थे जिन पर कोई भी पार्टी एक बार जरूर विचार करती. इधर सभी प्रमुख नेता जो एक दूसरे की टांग खींचने में व्यस्त थे, वे एक तरह से गुजराल को तोहफे में प्रधानमंत्री की कुर्सी पेश करने के लिए सहमत हो गए. मुलायम जरूर अड़े थे लेकिन वयोवृद्ध कम्युनिस्ट नेता ज्योति बसु ने उन्हें मना लिया. सीताराम केसरी भी गुजराल को अपना करीबी दोस्त मानते थे. इस तरह गुजराल के लिए अब यह आसान था. वे अब भारत के 12वें प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ लेने वाले थे.
गुजराल ने 21 अप्रैल, 1997 को प्रधानमंत्री पद की शपथ ली. लेकिन यह सरकार भी ज्यादा दिन चल नहीं सकी. 6 माह बाद ही उन्हें इस्तीफा देना पड़ा. हालांकि चुनावी प्रक्रिया पूरी होने तक वे प्रधानमंत्री बने रहे. यानी वे करीब 11 महीनों तक प्रधानमंत्री बने रहे. 1989 में एकमात्र लोकसभा चुनाव जीतने वाले गुजराल करीब 12 वर्षों तक केंद्रीय मंत्री रहे क्योंकि सदन के राज्यसभा द्वार से उन्हें हमेशा प्रवेश मिल जाता था. साल 2012 में एक लंबी बीमारी के बाद गुजराल साहब इस दुनिया को अलविदा कह गए.