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Homeवेब एक्सक्लूसिवफोटो गैलरीदुनिया में पहचान बनाने को घर से निकली कोहबर चित्रकला

दुनिया में पहचान बनाने को घर से निकली कोहबर चित्रकला

कोहबर चित्रकला का इतिहास काफी पुराना है. हालांकि इसकी शुरुआत कब हुई इसके बारे में कोई पुष्ट जानकारी नहीं है, मगर ऐसा कहा जाता है कि राम-सीता के विवाह में पार्वती देवी ने सीता का कोहबर चित्र बनाया था

(चित्र- रिचा धीर)
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बिहार में 15 नवंबर को पहली बार कोहबर चित्रकला की प्रदर्शनी लगी. कोहबर चित्रकला मुख्यतः विवाह के रीति रिवाज से जुड़ी कला है, जो मिथिला क्षेत्र में वर-वधु के कमरे में इस मकसद से उकेरी जाती है कि उनके जीवन में प्रेम का स्थायी भाव बना रहे और रिश्ता हमेशा प्रगाढ़ रहे. (चित्र- रिचा धीर)

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इस चित्रकला का इतिहास काफी पुराना है. वैसे तो इसकी शुरुआत कब हुई इसके बारे में कोई पुष्ट जानकारी नहीं है, मगर ऐसा कहा जाता है कि राम-सीता के विवाह में पार्वती देवी ने सीता का कोहबर चित्र बनाया था. (चित्र- कविता रंजन)

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1934 में ब्रिटिश चित्रकला के इतिहासकार डब्लू जी आर्चर ने बिहार में मिथिला इलाके के गांव के घरों की दीवारों पर कोहबर चित्र देखे थे, उसके बाद यह कला सार्वजनिक हुई. बाद में कलाविदों के प्रोत्साहन के बाद यह मिथिला चित्रकला के रूप में सामने आया और इसे वैश्विक ख्याति मिली. (चित्र-पद्मा)

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मिथिला चित्रकला, जिसे मधुबनी पेंटिंग के नाम से भी जाना जाता है, में कोहबर चित्रकला की शैली तो है, मगर वहां इसके विषयों और प्रतीकों को लेने की बाध्यता नहीं है. मिथिला चित्रकला के विषय समय के साथ बदलते और व्यापक होते चले गये हैं. (चित्र- निभा लाभ)

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मगर कोहबर की कला आज भी मिथिला की स्त्रियों के हाथों में ही रची बसी है, वह उनके घरों तक ही सीमित रही है. इसे अब तक समकालीन कला का रूप नहीं दिया गया है. (चित्र- अंजली नयन)

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कोहबर चित्रकला प्रतीकों पर आधारित है. इसमें देवी-देवता के चित्रों के साथ-साथ, कमल फूल, उसके पत्ते, सांप, कछुआ, बांस के पेड़, पान, प्रेम में आबद्ध तोते, घोघा, कदम के पेड़, आम और महुआ के पेड़, दीप-कलश, भौंरा, बिच्छू, नैना-जोगिन आदि के चित्र होते हैं. (चित्र- संजीता दास)

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इन तमाम चित्रों का सांकेतिक महत्व होता है. हर कोहबर में इन तमाम चित्रों का होना जरूरी नहीं होता. मगर देवी-देवता और कुछ संकेत जरूर होते हैं. जैसे बांस को इस मकसद से बनाया जाता है कि बांस की तरह नव दंपत्ति का वंश बढ़े. (चित्र- अलका दास)

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कोहबर चित्र मुख्यतः लाल, गुलाबी, पीले, हरे आदि रंगों से बनाया जाता है, जो शुभ रंग हैं, मगर कई बार स्त्रियां इनमें काले रंग का एक छोटा सा टीका लगा देती हैं, ताकि नव दंपत्ति को नजर न लगे. (चित्र- सौम्या आंचल)

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कोहबर चित्र के तीन हिस्से होते हैं, पहला ब्रह्मांड जो सबसे ऊपर होता है, जिसमें देवी-देवताओं के चित्र होते हैं, इन देवताओं में मुख्यतः सूर्य, चंद्र, नवग्रह, पंच देवता- विष्णु, शिव, गणेश, शक्ति और सूर्य के साथ षष्ठी माता के चित्र बनाये जा सकते हैं. (चित्र-सोमा कुमारी)

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दूसरा हिस्सा प्रकृति का होता है और सबसे निचला हिस्सा धरती का. प्रकृति वाले हिस्से में फूल, पौधे और जीव जैसे प्रकृति से जुड़े चित्र होते हैं और निचले हिस्से में वर-वधु, डोली कहार जैसे चित्र बनाये जाते हैं. (चित्र- रश्मि प्रभा)

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निचले हिस्से में कई दफे शिव और पार्वती के चित्र भी प्रदर्शित किये जाते हैं. ये जानकारियां इन चित्रों पर शोध करने वाली मनीषा झा ने आज की प्रदर्शनी में दर्शकों को दी. (चित्र- अलका दास)

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15 नवंबर को शुरू इस तीन दिवसीय प्रदर्शनी में 52 कलाकारों ने अपने कोबहर चित्रों को प्रदर्शित किया है, इनमें 49 महिलाएं और तीन पुरुष हैं. इनमें से ज्यादातर लोगों ने पहली दफा किसी प्रदर्शनी में हिस्सा लिया है. (कोहबर चित्रकला के बारे में बतातीं मनीषा झा)

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कृते आयोजन समूह द्वारा आयोजित इस प्रदर्शनी ‘कोहबर-रूट टू रूट्स’ यानी कोहबर की जड़ों तक जाने का रास्ता को बिहार की महिलाओं ने मिलकर आयोजित किया है, इनमें अलका दास और निभा लाभ प्रमुख हैं. इतिहास लेखक एवं धरोहरों के संरक्षण के लिए सक्रिय भैरवलाल दास ने आयोजन के सूत्रधार की भूमिका निभाई है. (चित्र-पुस्तक लोकार्पण)

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इस प्रदर्शनी में नेपाल के कलाकारों ने भी भागीदारी की है, इसके अलावा मुंबई, दिल्ली, कानपुर, जमशेदपुर, पटना, दरभंगा और मधुबनी जैसे शहरों से भी कलाकारों ने भागीदारी की है. (चित्र- अमृता दास)

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