जातिगत रैलियों पर रोक योगी सरकार का बड़ा दांव है या राजनीतिक जोखिम?

इलाहाबाद हाई कोर्ट के निर्देश पर यूपी सरकार ने जातिगत रैलियों पर प्रतिबंध लगा दिया है. विपक्ष को झटका देने वाला यह आदेश बीजेपी के लिए भी दोधारी तलवार है

Yogi Adityanath, Akhilesh Yadav
यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, सपा प्रमुख अखिलेश यादव

बीते 21 सितंबर को रविवार था यानी छुट्टी का दिन. नौकरशाही के लिए सुकूनभरी यह तारीख देर रात अचानक सरगर्म हो गई. वजह थी, शीर्ष स्तर से आया एक आदेश. कार्यवाहक मुख्य सचिव दीपक कुमार ने सभी ज़िलाधिकारियों, सचिवों और पुलिस प्रमुखों को निर्देश भेजा कि अब उत्तर प्रदेश में जाति-आधारित राजनीतिक रैलियां नहीं होंगी. 

आदेश में साफ कहा गया कि ऐसी रैलियां “सार्वजनिक व्यवस्था और राष्ट्रीय एकता के ख़िलाफ़” हैं और पूरे राज्य में इन पर सख़्त प्रतिबंध रहेगा. यह फ़ैसला यूं ही नहीं लिया गया. इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 16 सितंबर को अपने आदेश में कहा था कि राजनीतिक उद्देश्यों के लिए आयोजित जातिगत रैलियां समाज में वैमनस्य और संघर्ष को बढ़ावा देती हैं.

कोर्ट ने सरकार को निर्देश दिया कि पुलिस रिकॉर्ड से लेकर वाहनों और सोशल मीडिया तक जाति-आधारित प्रतीकों, नारों और महिमामंडन को रोकने के लिए ठोस कदम उठाए जाएं. योगी सरकार का आदेश उसी पर आधारित है. लेकिन इस क़दम की अहमियत केवल क़ानून-व्यवस्था तक सीमित नहीं है. इसके गहरे राजनीतिक निहितार्थ हैं क्योंकि 2027 के विधानसभा चुनाव अभी दो साल दूर हैं और जाति-आधारित लामबंदी की राजनीति पहले ही तेज़ हो चुकी है.

क्यों ज़रूरी लगा यह क़दम

उत्तर प्रदेश की राजनीति दशकों से जातिगत समीकरणों पर टिकी रही है. मंडल राजनीति के दौर से लेकर अब तक, जातियों की गिनती और उनके आधार पर राजनीतिक गोलबंदी ही चुनावी जीत-हार का बड़ा आधार बनी रही है. समाजवादी पार्टी (सपा) यादव-मुस्लिम समीकरण पर, बहुजन समाज पार्टी (बसपा) दलित वोट बैंक पर और बीजेपी ब्राह्मण, बनिया और ओबीसी गठजोड़ पर अपनी राजनीति साधती रही है. पिछले कुछ वर्षों में बीजेपी ने गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव दलित समुदायों में पैठ बनाकर सत्ता पर पकड़ मजबूत की. इसके लिए उसने छोटे जाति-आधारित दलों जैसे निषाद पार्टी, अपना दल (एस) और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के साथ गठबंधन किए. लेकिन इन दलों की राजनीति जातिगत पहचान पर ही टिकी है. ऐसे में जातिगत रैलियों पर रोक का सीधा असर बीजेपी के सहयोगी दलों पर भी पड़ेगा. राजनीतिक जानकार मानते हैं कि यह फ़ैसला बीजेपी के लिए दोधारी तलवार साबित हो सकता है.

कोर्ट की सख़्ती और सरकार का तर्क

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अपने आदेश में राज्य सरकार और पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) को फटकारते हुए कहा कि पुलिस थानों में अभियुक्त के नाम के आगे जाति का कॉलम लिखा होना संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ है. कोर्ट ने सरकार से तुरंत आदेश जारी कर इस कॉलम को हटाने और पुलिस रिकॉर्ड में जाति का उल्लेख प्रतिबंधित करने को कहा.

सिर्फ इतना ही नहीं, कोर्ट ने जाति महिमामंडन करने वाले साइनबोर्ड हटाने, सोशल मीडिया पर जातिगत नफ़रत फैलाने वालों पर कार्रवाई करने और वाहनों पर जाति-आधारित नारे व चिह्नों पर प्रतिबंध लगाने के लिए केंद्रीय मोटर वाहन नियमों में संशोधन का सुझाव भी दिया. योगी सरकार ने इन्हीं निर्देशों को लागू करते हुए 10-सूत्रीय आदेश जारी किया. इसमें कहा गया कि जाति-आधारित प्रदर्शनों और विरोधों के ज़रिए संघर्ष भड़काने वालों पर सख़्त कार्रवाई होगी.

विपक्ष की राजनीति और चुनौती

सपा प्रमुख अखिलेश यादव लगातार “पिछड़ों और दलितों की गिनती” की मांग उठा रहे हैं. वे बीजेपी पर जातिगत जनगणना से बचने का आरोप लगाते हैं. बसपा भी अपनी राजनीति को नए सिरे से खड़ा करने के लिए दलित अस्मिता का मुद्दा फिर से उठाने की कोशिश में है. राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि जातिगत रैलियां विपक्षी दलों के लिए एक बड़ा औज़ार रही हैं. इनमें सीधे तौर पर समुदाय विशेष की पहचान और मुद्दों को केंद्र में रखा जाता है, जिससे लामबंदी आसान होती है. लखनऊ के जय नारायण डिग्री कालेज में राजनीति शास्त्र विभाग के प्रोफेसर ब्रजेश मिश्र कहते हैं, “सरकार का आदेश विपक्ष के हाथ बांधने जैसा है. चुनावी मौसम में जातिगत रैलियों पर रोक से समाजवादी पार्टी और बसपा जैसी पार्टियों को नुकसान होगा क्योंकि उनका मुख्य आधार ही जातिगत जुटान है. लेकिन दूसरी ओर बीजेपी को भी अपने सहयोगी दलों को संभालना आसान नहीं होगा.”

बीजेपी की रणनीति

बीजेपी अपने आप को “सबका साथ, सबका विकास” की पार्टी के रूप में पेश करना चाहती है. योगी आदित्यनाथ सरकार लगातार यह संदेश देने की कोशिश कर रही है कि वह जातिगत राजनीति से ऊपर उठकर “समावेशी विकास” पर काम कर रही है. राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि यह आदेश बीजेपी की चुनावी रणनीति का हिस्सा भी है. 

एक तरफ वह विपक्ष को जातिगत लामबंदी से रोकना चाहती है, दूसरी तरफ वह अपनी हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की राजनीति को आगे रखकर जातीय खांचे से ऊपर निकलने का दावा कर सकती है. ब्रजेश मिश्र कहते हैं, “यह फ़ैसला बीजेपी के लिए जोखिमभरा भी है और अवसर भी. जोखिम इसलिए क्योंकि उसके सहयोगी छोटे दल जातिगत पहचान पर ही खड़े हैं. अवसर इसलिए क्योंकि बीजेपी जातिगत राजनीति से ऊपर उठकर खुद को एकमात्र ऐसी पार्टी बताने की कोशिश करेगी जो समाज को बांटने के बजाय जोड़ने का काम करती है.” बीजेपी की सहयोगी निषाद पार्टी हो या अपना दल, इन दलों की ताक़त ही जाति-आधारित रैलियां और सम्मेलन रहे हैं. यह उनके अस्तित्व की पहचान है. जातिगत रैलियों पर रोक लगने से उनकी राजनीतिक ज़मीन खिसक सकती है.

बीजेपी इन दलों को कैसे साधेगी, यह बड़ा सवाल है. सहयोगियों की नाराज़गी बीजेपी के लिए सिरदर्द बन सकती है, खासकर तब जब 2027 के चुनाव में विपक्ष पहले से ही गठबंधन की राजनीति पर विचार कर रहा है.

सामाजिक असर और आशंका

जातिगत रैलियों पर रोक के आदेश को सामाजिक दृष्टि से भी देखा जा रहा है. समर्थक मानते हैं कि यह क़दम समाज में जाति-आधारित विभाजन को कम करने में मदद करेगा. लेकिन आलोचकों का कहना है कि यह केवल राजनीतिक नियंत्रण का औज़ार है. पूर्व नौकरशाह और सामाजिक चिंतक रामेश्वर प्रसाद का कहना है, “जातिगत रैलियों पर रोक तभी प्रभावी होगी जब सरकार रोज़मर्रा के प्रशासनिक कामकाज में भी जातिगत भेदभाव को पूरी तरह ख़त्म करे. केवल रैलियों को रोकना समाधान नहीं है. ज़रूरी यह है कि पुलिस और प्रशासन में भी जातिगत पहचान का कोई स्थान न रहे.” 

सरकार के आदेश में सोशल मीडिया पर भी विशेष निगरानी का ज़िक्र है. अधिकारियों को कहा गया है कि किसी भी जाति का महिमामंडन या अपमान करने वाले संदेशों पर सख़्त कार्रवाई की जाए. यह हिस्सा इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि हाल के वर्षों में जातिगत नफ़रत और गोलबंदी का बड़ा मैदान फेसबुक, व्हाट्सऐप और एक्स (ट्विटर) जैसे प्लेटफ़ॉर्म बन गए हैं. राजनीतिक पार्टियां भी अपने आईटी सेल के जरिए इन्हीं प्लेटफॉर्म पर जाति-आधारित नैरेटिव को हवा देती रही हैं. सरकार ने इन्हें रोकने का संकेत दिया है.

उत्तर प्रदेश में जाति सिर्फ़ सामाजिक पहचान नहीं, बल्कि राजनीतिक धुरी है. सरकार का आदेश इसे कानूनी स्तर पर सीमित करने की कोशिश है. लेकिन सवाल यह है कि क्या इससे ज़मीन पर जातिगत राजनीति कम हो जाएगी या यह केवल नए रूप में सामने आएगी. राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि जातिगत रैलियों पर रोक विपक्ष की रणनीति को प्रभावित ज़रूर करेगी, लेकिन चुनावी राजनीति में जाति को पूरी तरह खत्म करना संभव नहीं है. 

समाज में गहरी जड़ें जमाए जातिगत पहचान और हितों के सवाल सिर्फ़ आदेशों से नहीं मिटेंगे. योगी आदित्यनाथ सरकार का यह कदम प्रशासनिक और राजनीतिक दोनों स्तरों पर दूरगामी असर डाल सकता है. जहां यह आदेश जातिगत वैमनस्य रोकने की दिशा में उठाया गया एक संवैधानिक कदम है, वहीं इसके पीछे बीजेपी की चुनावी रणनीति भी छुपी है. जातिगत राजनीति को रोकने का दावा करने वाली बीजेपी को अब यह साबित करना होगा कि वह खुद भी जाति-आधारित समीकरणों से ऊपर उठकर राजनीति कर सकती है. और यही इस फ़ैसले की असली कसौटी होगी.

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