मणिपुर में लगेगा राष्ट्रपति शासन! क्या हैं इसके नियम और अब तक का क्या रहा इतिहास?
9 फरवरी को मणिपुर के सीएम एन बीरेन सिंह के इस्तीफे के बाद कहा जा रहा है कि अगर बीजेपी सर्वसम्मति से दूसरा सीएम खोजने में विफल रहती है तो राज्य में राष्ट्रपति शासन लग सकता है

फरवरी की 9 तारीख को मणिपुर के मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह ने सीएम पद से इस्तीफा दे दिया. उनके खिलाफ 10 फरवरी को विधानसभा में अविश्वास प्रस्ताव पेश किए जाने की बात चल रही थी, लेकिन उससे पहले ही उन्होंने इस्तीफा दे दिया.
बीरेन सिंह के इस्तीफे के बाद भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) का आला नेतृत्व अपने विकल्पों पर विचार कर रहा है. कहा जा रहा है कि अगर पार्टी सर्वसम्मति से सीएम उम्मीदवार खोजने में विफल रहती है, तो राज्य में राष्ट्रपति शासन लग सकता है.
बीरेन सिंह ने क्यों दिया सीएम पद से इस्तीफा?
एन बीरेन सिंह पहली बार 2017 में मणिपुर के मुख्यमंत्री बने थे. उनके नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार का राज्य में यह लगातार दूसरा कार्यकाल था. लेकिन डेढ़-दो साल पहले प्रदेश में शुरू हुई व्यापक हिंसा ने उन्हें कठघरे में खड़ा कर दिया था.
राज्य में 3 मई 2023 से मैतेई और कुकी समुदायों के बीच तनाव बढ़ने के कारण कई बार हिंसक झड़पें हुई थीं, जिससे सैकड़ों लोगों की जान जा चुकी है और हजारों लोगों को अपने घर छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा है. मैतेई और कुकी समुदायों के बीच लंबे समय से जमीन, आरक्षण और राजनीतिक प्रतिनिधित्व को लेकर विवाद चल रहा है.
राज्य में जातीय हिंसा शुरू होने के बाद से ही बीरेन सिंह की भूमिका पर सवाल उठ रहे थे. कुकी संगठन उन पर जातीय हिंसा में मैतेई समुदाय का पक्ष लेने का आरोप लगा रहा था. सिंह विपक्ष के भी निशाने पर थे. विपक्ष ने बार-बार उन पर हिंसा पर लगाम लगाने में फेल रहने का आरोप लगाया था. साथ ही उनके इस्तीफे की भी मांग की जा रही थी.
हिंसा शुरू होने के कुछ दिनों बाद ऐसा लगा कि बीरेन सिंह इस्तीफा देंगे, लेकिन बाद में उन्होंने ऐसा करने से इनकार कर दिया था. उन्होंने कहा था, "मैं इस्तीफा क्यों दूं? क्या मैंने कुछ चुराया है? क्या मेरे खिलाफ किसी घोटाले का आरोप है? क्या मैंने राष्ट्र या राज्य के खिलाफ काम किया है?"
लेकिन बीरेन सिंह को लेकर न सिर्फ विपक्षी खेमे में नाराजगी थी, बल्कि लंबे समय से खुद बीजेपी के विधायक भी उनसे खुश नहीं थे. मणिपुर में बीजेपी के 19 विधायकों ने पिछले साल अक्टूबर के महीने में बीरेन सिंह को सीएम पद से हटाने की मांग करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक पत्र भेजा था.
इस पत्र पर हस्ताक्षर करने वालों में राज्य विधानसभा के अध्यक्ष थोकचोम सत्यव्रत सिंह, मंत्री थोंगम विश्वजीत सिंह और युमनाम खेमचंद सिंह का नाम भी शामिल था. उस पत्र में कहा गया था कि मणिपुर के लोग बीजेपी सरकार से सवाल कर रहे हैं कि राज्य में अभी तक शांति क्यों नहीं बहाल हुई है. अगर जल्द समाधान नहीं निकला, तो विधायकों से इस्तीफा देने की मांग भी की जा रही है.
क्या है राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाने की प्रक्रिया
इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक, बीरेन सिंह के सीएम पद से इस्तीफे के बाद बीजेपी अपने विकल्पों पर विचार कर रही है. अगर पार्टी सर्वसम्मति से सीएम कैंडिडेट खोजने में विफल रहती है, तो राज्य में राष्ट्रपति शासन लग सकता है. लेकिन बीजेपी इससे बचना चाहती है क्योंकि यह सैद्धांतिक रूप से राष्ट्रपति शासन के खिलाफ मामला है. पर किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन कब लगता है?
संविधान का अनुच्छेद-356 राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाने की अनुमति देता है. इसके तहत, भारत के राष्ट्रपति को देश के किसी भी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने और राज्य सरकार को निलंबित करने का अधिकार है, "अगर वह संतुष्ट है कि ऐसी स्थिति पैदा हो गई है जिसमें राज्य की सरकार संविधान के नियमों के अनुसार नहीं चलाई जा सकती."
अनुच्छेद-356 के तहत राष्ट्रपति शासन लागू होने से राज्य सरकार के सभी कामकाज केंद्र को और राज्य विधानमंडल के कार्य संसद को सौंप दिए जाते हैं. हालांकि, हाई कोर्ट के कामों में कोई बदलाव नहीं होता. राष्ट्रपति शासन की यह प्रक्रिया तब शुरू होती है जब राष्ट्रपति, संबंधित राज्य के राज्यपाल से रिपोर्ट हासिल करने पर इस बात से संतुष्ट हो जाते हैं कि ऐसी स्थिति पैदा हो गई है जिसमें राज्य का शासन संविधान के नियमों के मुताबिक नहीं चलाया जा सकता.
इस स्थिति में राष्ट्रपति एक घोषणा जारी करते हैं जो दो महीने तक लागू रह सकती है. हालांकि इसे आगे प्रभावी बनाए रखने के लिए, इसे दो महीने की अवधि के खत्म होने से पहले लोकसभा और राज्यसभा को एक प्रस्ताव के जरिए इसे मंजूरी देनी होती है. अगर मंजूरी मिल जाती है तो राष्ट्रपति शासन की घोषणा को छह महीने तक बढ़ाया जा सकता है, जिसे संसद तीन साल तक के लिए छह-छह महीने के विस्तार को मंजूरी दे सकती है.
नियम ये भी कहता है कि किसी घोषणा को पहली बार जारी होने के एक साल के बाद संसद द्वारा रेन्यूअल (फिर से जारी करना) करने से पहले कुछ शर्तों को पूरा किया जाना चाहिए. आगे के विस्तार को केवल तभी मंजूरी दी जा सकती है जब देश या उस विशेष राज्य में आपातकाल घोषित किया गया हो, या अगर चुनाव आयोग यह प्रमाणित करे कि राज्य में चुनाव आयोजित करने में मुश्किलों के कारण राष्ट्रपति शासन जरूरी है.
भारत और राष्ट्रपति शासन : एक अवलोकन
साल 1950 में जब संविधान पहली बार लागू हुआ था, तब से अब तक 29 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में कुल 134 बार राष्ट्रपति शासन लगाया जा चुका है. इसके सबसे ज्यादा भुक्तभोगी मणिपुर और उत्तर प्रदेश रहे हैं, जहां 10-10 बार राष्ट्रपति शासन लगाया गया है. हालांकि, अवधि के लिहाज से शीर्ष पर ये राज्य (केंद्रशासित प्रदेश सहित) नहीं हैं.
राष्ट्रपति शासन के अधीन सबसे ज्यादा समय तक रहने वालों में टॉप-थ्री हैं - जम्मू और कश्मीर, पंजाब और पुडुचेरी. 1950 से लेकर अब तक जम्मू और कश्मीर ने 12 साल (4,668 दिन) से ज्यादा समय राष्ट्रपति शासन के अधीन बिताया है और इसी अवधि में पंजाब 10 साल (3,878 दिन) रहा है. दोनों ही राज्यों में, यह मुख्य रूप से उग्रवादी और अलगाववादी गतिविधियों की बार-बार होने वाली घटनाओं और अस्थिर कानून और व्यवस्था की स्थितियों के कारण है.
राष्ट्रपति शासन का सबसे हालिया उदाहरण पुडुचेरी में देखने को मिला, जब 2021 में कांग्रेस सरकार विश्वास मत हासिल नहीं कर सकी थी और उसे सत्ता गंवानी पड़ी थी. पुडुचेरी ने अपने इतिहास में 7 साल (2,739 दिन) से ज्यादा समय राष्ट्रपति शासन देखा है. इसका एक बड़ा कारण यह है कि कई बार सरकारें अंदरूनी कलह या दलबदल के कारण विधानसभा में समर्थन खो देती हैं.
राष्ट्रपति शासन पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला
जिस अनुच्छेद-356 को डॉ. भीमराव आंबेडकर ने संविधान सभा में संविधान का एक 'मृत पत्र' (Dead Lettter) कहा था, और उन्हें गुमान था कि भविष्य में कभी इसका प्रयोग नहीं किया जाएगा, इसके उलट इस आर्टिकल का आजादी के बाद 134 बार इस्तेमाल किया जा चुका है.
अकेले पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अनुच्छेद-356 का प्रयोग 27 बार किया. और ज्यादातर मामलों में इसका प्रयोग राजनीतिक स्थिरता, स्पष्ट जनादेश की गैरमौजूदगी या समर्थन की वापसी आदि के आधार पर बहुमत वाली सरकारों को हटाने के लिये किया गया था. साल 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद उसने प्रतिशोध के रूप में 9 कांग्रेस शासित राज्यों की सरकारों को भंग कर दिया था.
इसके बाद साल 1980 में इंदिरा गांधी की सत्ता में पुनः वापसी के बाद उन्होंने एक ही बार में विपक्षी दल द्वारा शासित 9 राज्यों की सरकारों को भंग कर दिया था. यह सिलसिला 1994 तक चलता ही रहा था. फिर सुप्रीम कोर्ट ने एसआर बोम्मई बनाम भारत संघ (1994) के मामले में राष्ट्रपति शासन लगाने की शक्ति और केंद्र-राज्य संबंधों पर इसके प्रभाव की व्यापक जांच की. पूर्व में केंद्र द्वारा राष्ट्रपति शासन लगाने और राज्य सरकार को बर्खास्त करने के कई उदाहरणों के बाद यह मामला अदालत में आया था.
नौ जजों की पीठ ने सर्वसम्मति से माना कि अनुच्छेद-356 के तहत घोषणा जारी करने की राष्ट्रपति की शक्ति, न्यायिक समीक्षा (ज्यूडिशियल रिव्यू) के अधीन है और अदालतें यह देखने के लिए उस फैसले की जांच कर सकती हैं कि क्या यह अवैधता, दुर्भावना, बाहरी विचारों, सत्ता के दुरुपयोग या धोखाधड़ी से ग्रसित तो नहीं है. इसके साथ ही, सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए गाइडलाइंस भी बनाईं.
राष्ट्रपति की वैध घोषणा के बाद भी, सुप्रीम कोर्ट ने माना कि केवल राज्य विधानमंडल को निलंबित किया जाएगा और राज्य सरकार के अन्य अंग तब तक काम करते रहेंगे जब तक कि लोकसभा और राज्यसभा दो महीने के भीतर इसे मंजूरी नहीं दे देते. न्यायालय ने कहा कि इस मंजूरी के बिना, बर्खास्त सरकार को फिर से बहाल कर दिया जाएगा. बोम्मई मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद के दशकों में राष्ट्रपति शासन लागू होने की घटनाओं में कमी आई है.