क्या चंद्रशेखर राव की BRS बीजेपी में शामिल हो जाएगी?

केसीआर की बेटी के. कविता के एक लेटर से तेलंगाना की राजनीति गरमाई हुई है. अपने पत्र में कविता ने आरोप लगाया कि पार्टी के करीबी लोग ही BRS को BJP में मिलाना चाहते हैं

बीआरएस नेता  के. कविता. (फाइल फोटो)
बीआरएस नेता के. कविता. (फाइल फोटो)

तेलंगाना में राजनीतिक पारा अभी पूरी तरह चढ़ा हुआ है. वजह है- कल्वकुंतला कविता का एक लेटर, जो उन्होंने अपने पिता के. चंद्रशेखर राव (केसीआर) को लिखा. केसीआर, तेलंगाना के पूर्व मुख्यमंत्री और भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) के सर्वोच्च नेता हैं.

अपने इस शॉर्ट और तीखे लेटर में कविता ने अपने पिता को उनकी पार्टी के "चुपचाप, व्यवस्थित तोड़-फोड़" के बारे में चेतावनी दी है. उनके मुताबिक, दोषी पार्टी के भीतर के ही लोग हैं, जो भरोसेमंद सहयोगी, यहां तक कि परिवार के लोग हैं जो अब भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के सामने "चुपचाप सरेंडर" कर रहे हैं.

बहरहाल, उनकी चिंता सिर्फ राजनीतिक नहीं थी; यह अस्तित्व से जुड़ी थी. कविता की नजर में, तेलंगाना के स्वाभिमान के सपने पर बनी बीआरएस को बीजेपी द्वारा एक ऐसे एसेट के रूप में देखा जा रहा है जिसे अपने उद्देश्य (साउथ इंडिया में विस्तार) के लिए इस्तेमाल करने के बाद छोड़ दिया जा सकता है.

यह लेटर, हालांकि कभी आधिकारिक रूप से जारी नहीं किया गया, लेकिन पिछले कई हफ्तों से राजनीतिक और मीडिया हलकों में घूम रहा है. और इसके साथ ही, तेलंगाना में एक सवाल ने भी तूल पकड़ लिया है: क्या बीजेपी-बीआरएस का विलय बंद दरवाजों के पीछे हो रहा है?

जो कभी बेकार की अटकलें थीं, अब वे विश्वसनीय चर्चा में बदल गई हैं. कविता की टाइमिंग महज संयोग नहीं थी. उनका नोट ठीक उसी समय आया जब बीजेपी सांसद एम. रघुनंदन राव ने सार्वजनिक रूप से संकेत दिया कि कई बीआरएस नेता, जिनमें कुछ "बहुत सीनियर" भी शामिल हैं, पहले से ही बीजेपी के साथ बातचीत कर रहे हैं.

रिपोर्ट्स के मुताबिक, शीर्ष बीआरएस नेताओं का कहना है कि केसीआर अपनी बेटी के बयानों पर ध्यान दे रहे हैं और यहां तक कि उन्हें पार्टी से बाहर निकालने पर भी विचार कर रहे हैं. हालांकि, बीजेपी और बीआरएस नेताओं ने अलग-अलग इंडिया टुडे को बताया कि उनके नेतृत्व ने उन्हें इस साल के अंत में होने वाले ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम (जीएचएमसी) चुनावों की तैयारी करने के लिए कहा है.

हालांकि बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व अब तक खुलकर बयान देने से बचता रहा है, लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि ये 'कोडेडे कमेंट्स' कुछ दबे-छिपे कामों की तरफ इशारा करते हैं. हाल ही में, पार्टी के राज्यसभा सांसद और राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य डॉ. के. लक्ष्मण को इन अटकलों पर टिप्पणी करने के लिए मजबूर होना पड़ा.

2 जून को डॉ. लक्ष्मण ने कहा, "हमें बीआरएस से कोई विलय प्रस्ताव नहीं मिला है", उन्होंने आगे कहा: "कई बीआरएस नेता खुद ही बीजेपी में शामिल होने के लिए कतार में खड़े हैं." इसे इनकार के तौर पर कम और तरीके के स्पष्टीकरण के तौर पर ज्यादा देखा गया. शायद कोई औपचारिक विलय नहीं हुआ है, बल्कि इरादतन कमजोर किया गया है.

बीजेपी के अपने नए प्रदेश अध्यक्ष की घोषणा के इंतजार ने इस उथल-पुथल में एक और आयाम जोड़ दिया है. बंडी संजय कुमार और जी. किशन रेड्डी पहले से ही नरेंद्र मोदी सरकार में मंत्री हैं, जबकि लक्ष्मण बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव के लिए रिटर्निंग ऑफिसर हैं. यह साफ नहीं है कि बीजेपी अपनी रणनीति को फिर से बनाना चाहती है या पिछड़े वर्ग पर केंद्रित राजनीति करना चाहती है, जिसका पार्टी 2023 की शुरुआत तक समर्थन करती रही है. ये सभी निर्णय विलय और बीआरएस से शामिल होने के आह्वान के साथ लिए जाने हैं.

इस धीमी गति से चलने वाले 'पॉलिटिकल कन्वर्जेंस' की पृष्ठभूमि में पिछले साल लोकसभा चुनावों में बीआरएस का पतन है. तेलंगाना से 17 लोकसभा सांसद चुने जाते हैं. 2024 लोकसभा चुनाव में सत्तारूढ़ कांग्रेस और बीजेपी से आठ-आठ सांसद जीते, जबकि एक सीट ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) को मिली, जिसने हैदराबाद में अपना गढ़ बरकरार रखा.

वहीं बीआरएस, जो पहले तेलंगाना राष्ट्र समिति के नाम से जानी जाती थी, और जिसने कभी राष्ट्रीय पार्टी बनने की महत्वाकांक्षाएं पाल रखी थीं, एक भी संसदीय सीट जीतने में विफल रही.

इससे पहले, दिसंबर 2023 में रेवंत रेड्डी की अगुआई वाली कांग्रेस ने राज्य में केसीआर सरकार को सत्ता से बेदखल कर दिया. बीआरएस के लिए यह सिर्फ हार नहीं थी, बल्कि वजूद का खतरा था. इसके बाद, पार्टी के दिग्गजों का पलायन तेज हो गया, जो या तो सार्वजनिक रूप से कांग्रेस में शामिल हो गए या बीजेपी के साथ गुप्त बातचीत शुरू कर दी.

बीजेपी के लिए यह एक अवसर और एक टेंपलेट दोनों ही था. मोदी-अमित शाह युग के पिछले एक दशक में, बीजेपी ने क्षेत्रीय रंगमंचों पर एक सुसंगत रणनीति अपनाई है: मजबूत क्षेत्रीय दलों के पतन का पूरा फायदा उठाना और अंततः मुकाबले को बीजेपी बनाम कांग्रेस बनाना.

हरियाणा में, यह इंडियन नेशनल लोकदल था. सबसे पहले इसमें विभाजन हुआ और दुष्यंत चौटाला के नेतृत्व वाली जननायक जनता पार्टी का गठन हुआ. पांच साल बाद, दोनों ही पार्टियां संघर्ष कर रही हैं. राज्य में उनका मतदाता आधार या तो बीजेपी की ओर चला गया है या कांग्रेस की ओर.

कर्नाटक में, जनता दल (सेक्युलर) को झटका लगा. महाराष्ट्र में, शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) में विभाजन हुआ. पिछले साल इन पार्टियों के टिकट पर चुनाव जीतने वाले महाराष्ट्र के करीब 20 विधायकों को बीजेपी के वफादार के रूप में देखा जाता है.

तेलंगाना में, बीआरएस एक प्रमुख क्षेत्रीय राजनीतिक ताकत है, जो अभी भी खड़ी लेकिन डगमगाते कदमों के साथ. और बीजेपी का उद्देश्य साफ है: तेलंगाना को कांग्रेस के साथ सीधी लड़ाई में बदलना. वजह चुनावी और संगठनात्मक दोनों है. जब आप मौजूदा पार्टी के कैडर और वोट-बैंक को हासिल कर सकते हैं, तो हर मंडल में नेटवर्क बनाने में दस साल क्यों खर्च करें? इस हिसाब से बीआरएस वैल्यूबल है, लेकिन सिर्फ कुछ हिस्सों में.

बीजेपी भ्रष्टाचार के आरोपों या केसीआर के पारिवारिक शासन से जुड़े वंशवाद के बोझ को विरासत में लेने में दिलचस्पी नहीं रखती. उसे अपने मतलब की कामकाजी इकाइयां चाहिए - विधायक, जिला नेता, पंचायत प्रमुख - जो जमीनी स्तर पर वोट और प्रभाव डाल सकें. विश्लेषकों का तर्क है कि आंध्र प्रदेश के विपरीत, जहां क्षेत्रीय भावनाएं अधिक हैं, तेलंगाना में अलग-अलग समुदाय हैं, जो राष्ट्रीय दलों के लिए अपनी राजनीति करने के लिहाज से मुफीद हैं.

यहीं पर केसीआर के भतीजे टी. हरीश राव और बेटे केटी रामा राव (केटीआर) की भूमिका अहम हो जाती है. दोनों को लंबे समय से उत्तराधिकारी के रूप में देखा जाता था, दोनों की नेतृत्व शैली अलग-अलग है. राज्य के पूर्व वित्त मंत्री हरीश ने कुशल और गैर-विवादास्पद होने की प्रतिष्ठा हासिल की. ये ऐसे गुण हैं जो बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व को पसंद आए. पिछले एक साल में, बीजेपी के मध्यस्थों के साथ उनकी पहुंच और अधिक स्पष्ट हो गई है.

इस बीच केटीआर खुद को एक अस्पष्ट स्थिति में पाते हैं. वे प्रमुख रणनीतिक निर्णयों से हटाए गए, पीढ़ीगत बदलाव और अपने पिता की पुरानी गार्ड की प्रवृत्ति के बीच फंसे हुए हैं. बीजेपी की तेलंगाना टीम के करीबी लोगों के अनुसार, वे भी शुरुआती बातचीत में हैं, हालांकि उनकी एंट्री संभवतः बीआरएस के बाद के परिदृश्य में उनके राजनीतिक भविष्य की गारंटी पर निर्भर है.

हालांकि कविता अपनी बात पर अड़ी हुई हैं. बीजेपी के साथ किसी भी गठजोड़ का उनका विरोध न सिर्फ राजनीतिक, बल्कि तेजी से व्यक्तिगत होता जा रहा है. दिल्ली शराब आबकारी मामले में केंद्रीय जांच एजेंसियों के दबाव का सामना कर रही कविता का मानना ​​है कि बीजेपी के साथ गठबंधन को एक सौदे के रूप में देखा जाएगा- चुप रहने या समझौते के लिए एक लेन-देन.

कविता के लिए पार्टी अभी भी तेलंगाना आंदोलन का प्रतीक है. उनके करीबी सूत्रों का कहना है कि वे इस विलय की बात को न केवल विचारधारा बल्कि पहचान के साथ विश्वासघात के रूप में देखती हैं. ऐसा लगता है कि वे पार्टी के भीतर और बाहर दोनों जगह अलग-थलग पड़ने का जोखिम उठाने के लिए तैयार हैं.

केसीआर, हमेशा की तरह सार्वजनिक तौर पर चुप हैं. लेकिन अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि अब उनका इरादा पार्टी को फिर से खड़ा करने का नहीं है. माना जा रहा है कि वे एक व्यवस्थित तरीके से बाहर निकलने की सोच रहे हैं- या तो अपने किसी रिश्तेदार को पार्टी की कमान सौंपकर या सम्मानजनक विलय करवाकर, बशर्ते उनकी विरासत बनी रहे. उनके एक करीबी सहयोगी कहते हैं, "वे अगला चुनाव लड़ने की योजना नहीं बना रहे. वे यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि जब चुनाव हो तो उनके परिवार की अहमियत बनी रहे."

हालांकि, यह कैलकुलेशन भी जोखिम से खाली नहीं है. औपचारिक विलय का मतलब होगा बीआरएस का एक राजनीतिक इकाई के रूप में अंत. यह दो दशकों में बनी अपनी पहचान को मिटा देगा, आंदोलन के दिनों से लेकर राज्य का दर्जा पाने तक और सत्ता के दो कार्यकालों तक. इससे भी बदतर, इसे सरेंडर के रूप में देखा जाएगा. यही वजह है कि बीजेपी, चर्चा के बावजूद एक अलग रास्ता पसंद कर सकती है.

जैसा कि लक्ष्मण के बयान से पता चलता है, बीजेपी अलग-अलग नेताओं को शामिल करके, स्थानीय नेटवर्क को तोड़कर और इसके ढांचे को अप्रासंगिक बनाकर बीआरएस को टुकड़ों में शामिल करना पसंद करेगी. विलय कभी औपचारिक नहीं हो सकता. लेकिन इसका नतीजा यही होगा कि बीआरएस गायब हो जाएगी.

कांग्रेस इस तमाशे को खुशी और सावधानी के साथ देख रही है. 2023 के विधानसभा चुनावों में सत्ता में वापसी करने और राज्य में लोकसभा चुनावों में मजबूत प्रदर्शन करने के बाद, पार्टी का मानना ​​है कि वह आगे की राह पर है. मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी ने संगठन पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली है और यहां तक ​​कि उन्होंने केसीआर की रणनीति को भी अपनाया है, जिसमें कल्याणकारी लोकलुभावनवाद को ताकतवर बयानबाजी के साथ मिलाया गया है.

खुले तौर पर कांग्रेस नेताओं ने बीजेपी-बीआरएस की नजदीकी को सुविधानुसार शादी बताकर मजाक उड़ाया है. निजी तौर पर उन्हें चिंता है कि अगर बीजेपी बीआरएस के आधे से ज्यादा क्षेत्रीय नेतृत्व को भी अपने साथ मिला लेती है, तो 2028 का चुनावी गणित बदल सकता है.

हालात ऐसे हैं कि बीआरएस राजनीतिक रूप से आधी-अधूरी जिंदगी में फंस गई है. यह अब राज्य के भविष्य को आकार देने के लिए पर्याप्त मजबूत नहीं है, लेकिन अभी तक इतनी खत्म भी नहीं हुई कि इसे भुला दिया जाए. इसके नेता बंटे हुए हैं, जमीनी कार्यकर्ताओं में वैचारिक मजबूती बहुत कम बची है.

पार्टी का ब्रांड, जो कभी आग और भूख हड़ताल में गढ़ा गया था, आज खाने की मेज पर इस बात की चर्चा तक सीमित रह गया है कि अगला कौन बीजेपी में शामिल होगा.

कविता का लेटर इस तूफान को रोक तो नहीं सकता. लेकिन इसे उस क्षण के रूप में याद किया जाएगा जब पार्टी का अंतिम हिसाब-किताब सार्वजनिक हुआ. अपने चरम पर, बीआरएस ने उन लोगों की उम्मीदों का प्रतिनिधित्व किया जिन्हें दशकों तक अपनी आवाज से वंचित रखा गया था. अब, यह बीजेपी की क्षेत्रीय अधिग्रहण की लंबी सूची में सिर्फ एक और एंट्री बनने का जोखिम उठा रही है.

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