यूपी के एक्सप्रेस-वे हर साल कोहरे में जानलेवा क्यों बन जाते हैं; असल गलती किसकी?

16 दिसंबर को जब मथुरा में एक्सप्रेस-वे पर दुर्घटनाओं में 13 लोग जलकर मारे गए, उसी दिन यूपी के आठ जिलों में सड़क हादसों में कम से कम 26 लोगों की मौत हो गई

यमुना एक्सप्रेसवे पर हुए सड़क हादसे में 13 की मौत. (Photo: Screengrab)
यमुना एक्सप्रेस-वे पर हुए सड़क हादसे में जली हुई बस

यमुना एक्सप्रेस-वे के माइलस्टोन 127 पर जो हुआ, वह किसी एक गलती या एक वाहन का हादसा नहीं था. वह एक पूरी चेन थी, जिसमें कोहरा, रफ्तार, लापरवाही और सिस्टम की खामियां एक के बाद एक जुड़ती चली गईं. 

16 दिसंबर की सुबह पौने चार बजे, जब दृश्यता लगभग शून्य थी, एक अर्टिगा और स्विफ्ट डिजायर की टक्कर से शुरू हुई मामूली घटना कुछ ही मिनटों में महाविनाश में बदल गई. सड़क पर खड़े होकर झगड़ते लोग शायद यह नहीं समझ पाए कि हाई-स्पीड एक्सप्रेस-वे पर रुकना मौत को बुलाना है. तीसरी कार टकराई, फिर तेज रफ्तार डबल डेकर बस आई, और उसके बाद आग, लपटें, चीख-पुकार और जिंदा जलते लोग. 

यह कोई पहली बार नहीं है. उत्तर प्रदेश के एक्सप्रेस-वे, खासकर यमुना और आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस-वे, हर सर्दी में इसी तरह के हादसों की खबरों से भर जाते हैं. फर्क सिर्फ इतना होता है कि कभी मृतकों की संख्या कम होती है, कभी ज्यादा. सवाल यह नहीं है कि हादसे क्यों होते हैं, बल्कि यह है कि हर साल वही पैटर्न दोहराने के बावजूद उन्हें रोकने में हम क्यों नाकाम हैं. 

उत्तर भारत में सर्दियों का कोहरा कोई नई घटना नहीं. यमुना एक्सप्रेस-वे के आसपास खुला इलाका, खेत, नहरें और बहता पानी घने कोहरे को जन्म देता है. यमुना एक्सप्रेस-वे इंडस्ट्र‍ि‍यल डेवलेपमेंट अथॉरिटी (YEIDA) के अधिकारी भी मानते हैं कि यह भौगोलिक सच्चाई है. लेकिन समस्या कोहरे की मौजूदगी नहीं, बल्कि उसके बावजूद हाई-स्पीड ट्रैफिक को उसी तरह चलने देना है जैसे साफ मौसम में चलता है. 

16 दिसंबर को ही, जब मथुरा में एक्सप्रेस-वे पर 13 लोग जलकर मारे गए, उसी दिन यूपी के आठ जिलों में सड़क हादसों में कम से कम 26 लोगों की मौत हो गई. आगरा, प्रयागराज, बरेली, मुरादाबाद सहित 35 जिलों में दृश्यता 10 मीटर से भी कम थी. यह आंकड़ा बताता है कि यह एक स्थानीय समस्या नहीं, बल्कि राज्यव्यापी संकट है.

आंकड़े भी दे रहे हैं चेतावनी 

एक्सप्रेस-वे को तेज, सुगम और सुरक्षित यात्रा के लिए बनाया जाता है. लेकिन तेज रफ्तार तब खतरा बन जाती है जब उसे नियंत्रित न किया जाए. यमुना एक्सप्रेस-वे पर कारों की अधिकतम गति सीमा 120 किमी प्रति घंटा है. साफ मौसम में भी यह रफ्तार पूरी तरह सुरक्षित नहीं मानी जाती, लेकिन घने कोहरे में यही गति जानलेवा बन जाती है. मथुरा हादसे में शुरुआती टक्कर के बाद वाहन रुके, लेकिन पीछे से आ रही बसें उसी गति से आती रहीं. ड्राइवरों के पास न तो समय था, न दृश्यता, न चेतावनी. नतीजा यह हुआ कि एक वाहन दूसरे को धक्का देता गया और आग लगते ही पूरी श्रृंखला जलने लगी.

2012 से 2023 के बीच केवल कोहरे के कारण यमुना एक्सप्रेस-वे पर 338 दुर्घटनाएं हुईं. इनमें 75 लोगों की मौत और 665 से ज्यादा लोग घायल हुए. यानी हर साल औसतन 28 से ज्यादा हादसे सिर्फ कोहरे की वजह से. आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस-वे की तस्वीर भी डराने वाली है. जनवरी 2021 से सितंबर 2025 तक 57 महीनों में 7024 सड़क हादसे हुए. इनमें से 54.71 प्रतिशत हादसे ड्राइवर की नींद या झपकी के कारण हुए. इसका मतलब यह है कि लंबी दूरी, थकान, रात की ड्राइव और कोहरा मिलकर एक खतरनाक कॉम्बिनेशन बनाते हैं.

ट्रैफिक बढ़ा, इंतजाम नहीं

उत्तर प्रदेश एक्सप्रेसवेज औद्योगिक विकास प्राधिकरण (यूपीडा) के आंकड़े बताते हैं कि जनवरी 2020 में जहां एक्सप्रेस-वे से करीब 5.45 लाख वाहन गुजरते थे, वहीं जनवरी 2025 में यह संख्या बढ़कर 11.16 लाख हो गई. यानी ट्रैफिक लगभग दोगुना हो चुका है. लेकिन क्या उसी अनुपात में सुरक्षा इंतजाम बढ़े हैं? जनसुविधाओं की कमी इसका एक उदाहरण है. इंडियन रोड कांग्रेस के मानकों के अनुसार, एक्सप्रेस-वे पर हर 30 से 60 किमी पर रेस्ट एरिया, टॉयलेट, कैफे और पार्किंग जैसी सुविधाएं होनी चाहिए. आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस-वे समेत सभी एक्सप्रेस-वे पर फिलहाल ऐसे स्थान गिने-चुने हैं. थका हुआ ड्राइवर अगर रुकना ही न पाए, तो झपकी लगना तय है. 

एक और बड़ा सवाल दोपहिया वाहनों का है. केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्रालय के अनुसार, एक्सेस कंट्रोल्ड एक्सप्रेस-वे पर दोपहिया और तीन पहिया वाहनों का प्रवेश प्रतिबंधित है. इसके बावजूद, आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस-वे पर हजारों दोपहिया वाहन रोज चलते हैं. आंकड़ों के मुताबिक, 2021 से 2025 के बीच दोपहिया के 769 हादसे हुए, जिनमें 133 मौतें हुईं. दूसरी तरफ भारी वाहन और बसें हैं, जो कोहरे में भी तेज रफ्तार से चलती हैं. सड़क सुरक्षा विशेषज्ञ केसी जैन का कहना है कि दृश्यता शून्य होने पर भी इन वाहनों पर कोई वास्तविक नियंत्रण नहीं होता. सलाह दी जाती है, अपील की जाती है, लेकिन सख्त रोक नहीं लगाई जाती.

कानून है, लेकिन इस्तेमाल नहीं

मोटर वाहन अधिनियम, 1988 की धारा 115 राज्य सरकार को यह अधिकार देती है कि वह सार्वजनिक सुरक्षा के लिए किसी सड़क पर यातायात को नियंत्रित या अस्थायी रूप से प्रतिबंधित कर सके. यानी कानून साफ है. अगर दृश्यता शून्य है, तो एक्सप्रेस-वे को कुछ समय के लिए बंद किया जा सकता है या भारी वाहनों की आवाजाही रोकी जा सकती है. लेकिन व्यवहार में ऐसा शायद ही होता है. कारण साफ है: एक्सप्रेस-वे बंद करना प्रशासनिक रूप से कठिन और आर्थिक रूप से असुविधाजनक माना जाता है. नतीजा यह होता है कि जोखिम ड्राइवर और यात्रियों पर छोड़ दिया जाता है.

दुनिया के कई देशों में घने कोहरे वाले इलाकों में ऑटोमैटिक फॉग डिटेक्शन सिस्टम लगे होते हैं. जैसे ही दृश्यता एक तय सीमा से नीचे जाती है, इलेक्ट्रॉनिक साइन बोर्ड पर स्पीड लिमिट घट जाती है, लेन बंद हो जाती हैं या ट्रैफिक रोका जाता है. भारत में भी तकनीक उपलब्ध है, लेकिन उसका इस्तेमाल सीमित है. YEIDA के अधिकारी रेडियम पेंट, वर्टिकल मार्किंग और कैट्स आई लगाने की बात करते हैं. ये जरूरी कदम हैं, लेकिन पर्याप्त नहीं. जब तक रफ्तार पर सख्ती से नियंत्रण नहीं होगा, तब तक ये उपाय सिर्फ सहायक ही रहेंगे.

हादसे के बाद की सक्रियता

हर बड़े हादसे के बाद जांच समिति बनती है, रिपोर्ट मांगी जाती है, मुआवजे की घोषणा होती है. मथुरा हादसे के बाद भी मजिस्ट्रेट जांच के आदेश दिए गए, 48 घंटे में रिपोर्ट मांगी गई. प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री ने मुआवजा घोषित किया. यह सब जरूरी है, लेकिन सवाल यह है कि क्या अगली सर्दी तक कुछ बदलेगा? पिछले वर्षों के अनुभव बताते हैं कि ज्यादातर सिफारिशें फाइलों में ही रह जाती हैं. अगली बार कोहरा आता है, फिर हादसा होता है, फिर वही प्रक्रिया दोहराई जाती है. 

विशेषज्ञों का मानना है कि समाधान किसी एक कदम से नहीं आएगा. इसके लिए बहुस्तरीय रणनीति चाहिए. पहला, घने कोहरे में एक्सप्रेस-वे पर गति सीमा को अनिवार्य रूप से घटाया जाए. सिर्फ सलाह नहीं, बल्कि इलेक्ट्रॉनिक निगरानी और चालान के जरिए. दूसरा, शून्य या अत्यंत कम दृश्यता की स्थिति में भारी वाहनों और बसों की आवाजाही अस्थायी रूप से रोकी जाए. तीसरा, ड्राइवरों के लिए रेस्ट एरिया की संख्या बढ़ाई जाए, ताकि थकान और झपकी से होने वाले हादसे कम हों. चौथा, दोपहिया वाहनों पर प्रतिबंध को सख्ती से लागू किया जाए. और सबसे जरूरी, हर सर्दी से पहले एक्सप्रेस-वे सुरक्षा का विशेष ऑडिट हो, जिसमें सिर्फ कागजी नहीं, बल्कि जमीनी हालात देखे जाएं.

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