योगी सरकार के हर विभाग के पास भारी बजट है, योजनाएं भी हैं लेकिन काम कहां अटक रहा?

रिकॉर्ड बजट और चुनावी तैयारियों के बीच उत्तर प्रदेश सरकार के कई प्रमुख विभाग समय पर फंड खर्च नहीं कर पा रहे हैं, जिससे विकास योजनाओं की रफ्तार धीमी पड़ती दिख रही है

कृषि और किसानों के लिए अभूतपूर्व योजनाएं संचालित कर रही सरकार- योगी
उत्तर प्रदेश सरकार ने चालू वित्त वर्ष 2025-26 के लिए रिकॉर्ड 8.40 लाख करोड़ रुपये का बजट पेश किया था

उत्तर प्रदेश सरकार ने चालू वित्त वर्ष 2025-26 के लिए रिकॉर्ड 8.40 लाख करोड़ रुपये का बजट पेश किया था. पंचायत चुनाव और 2027 के विधानसभा चुनाव को देखते हुए सरकार ने योजनाओं और परियोजनाओं के लिए खुलकर धनराशि रखी. सड़कों से लेकर जल जीवन मिशन, महिला कल्याण से लेकर शहरी विकास तक, लगभग हर क्षेत्र में बड़े ऐलान हुए. 

लेकिन जमीन पर तस्वीर वैसी नहीं दिख रही, जैसी बजट भाषणों में उभरी थी. वित्तीय वर्ष के पहले आठ महीने, यानी 1 अप्रैल से 30 नवंबर 2025 तक, सरकार अपने ही बजट का आधा भी खर्च नहीं कर पाई. प्रमुख विभागों का औसत बजट उपयोग 49 फीसदी  के आसपास है. योजनाओं के लिए तय करीब 3.88 लाख करोड़ रुपये में से नवंबर तक सिर्फ 1.28 लाख करोड़ रुपये ही खर्च हो सके. दो-तिहाई वित्तीय वर्ष गुजर जाने के बाद भी एक-तिहाई से कम खर्च ने सरकार के भीतर चिंता बढ़ा दी है.

मुख्यमंत्री की नाराज़गी और समीक्षा बैठक

इस सुस्ती को गंभीरता से लेते हुए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने वित्तीय स्वीकृतियों और विभागीय खर्च की समीक्षा बैठक बुलाई. एक वरिष्ठ अधिकारी के मुताबिक मुख्यमंत्री ने साफ शब्दों में कहा कि वित्तीय वर्ष खत्म होने से पहले फंड का अधिकतम उपयोग सुनिश्चित किया जाए. उनका जोर इस बात पर था कि योजनाएं कागजों में नहीं, जमीन पर दिखनी चाहिए. मुख्यमंत्री की चिंता सिर्फ आंकड़ों तक सीमित नहीं है. सरकार जानती है कि अगर योजनाएं समय पर पूरी नहीं हुईं, तो उसका सीधा असर जनता की धारणा और आगामी चुनावों पर पड़ेगा. 

साथ ही देरी का मतलब है बढ़ती निर्माण लागत, अधूरी परियोजनाएं और केंद्र से मिलने वाली सहायता में कटौती का खतरा. अगर विभागवार तस्वीर देखें, तो असंतुलन साफ दिखता है. ऊर्जा विभाग ने 60 फीसदी और महिला कल्याण विभाग ने 64 फीसदी बजट खर्च कर आधे लक्ष्य को पार कर लिया है. ये वे विभाग हैं, जहां योजनाओं का ढांचा अपेक्षाकृत स्पष्ट है और फील्ड स्तर पर अमल आसान रहा है.

इसके उलट लोक निर्माण विभाग, जो सड़कों और पुलों जैसे बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर का जिम्मा संभालता है, सिर्फ 40 फीसदी खर्च कर पाया है. कृषि विभाग 41 फीसदी और बाल विकास विभाग 44 फीसदी पर अटका है. सबसे खराब स्थिति ग्रामीण विकास, शहरी विकास और इंफ्रास्ट्रक्चर व औद्योगिक विकास विभाग की है, जहां खर्च 19 से 23 फीसदी के बीच सिमटा हुआ है. नमामि गंगे और ग्रामीण जल आपूर्ति जैसे अहम विभागों ने तो सिर्फ 15 फीसदी फंड ही इस्तेमाल किया है. ये आंकड़े इसलिए भी चौंकाते हैं, क्योंकि इन्हीं विभागों से जुड़े प्रोजेक्ट सीधे आम लोगों के जीवन को प्रभावित करते हैं, जैसे सड़क, पानी, आवास और रोजगार.

केंद्रीय सहायता का अधूरा लक्ष्य

राज्य सरकार को केंद्र से मिलने वाली सहायता भी पूरी तरह हासिल नहीं हो पाई है. गृह विभाग को जरूर 94.7 फीसदी केंद्रीय सहायता मिली है, लेकिन ग्रामीण विकास को सिर्फ 59.6 प्रतिशत, बाल विकास को 49.9 फीसदी और पंचायती राज को 46.4 फीसदी ही मिल पाई. महिला कल्याण विभाग को 25.3 फीसदी और ऊर्जा विभाग को 23.2 फीसदी केंद्रीय मदद मिली है. 

विशेषज्ञों का मानना है कि केंद्र से मिलने वाली सहायता का बड़ा हिस्सा राज्यों की प्रगति रिपोर्ट और खर्च की गति पर निर्भर करता है. अगर राज्य समय पर पैसा खर्च नहीं कर पाता, तो अगली किस्त अटक जाती है. इसका नतीजा यह होता है कि योजनाएं बीच में लटक जाती हैं और राज्य को दोहरी मार झेलनी पड़ती है.

गड़बड़ी कहां है?

सरकारी तंत्र से जुड़े अधिकारी निजी बातचीत में कई कारण गिनाते हैं. सबसे पहला कारण है नौकरशाही की सुस्ती. फाइलें विभागों, निदेशालयों और जिलों के बीच घूमती रहती हैं. टेंडर प्रक्रिया में देरी, तकनीकी स्वीकृतियों में अड़चन और बार-बार मांगे जाने वाले स्पष्टीकरण काम की रफ्तार तोड़ देते हैं. 

दूसरा बड़ा कारण है फील्ड स्तर पर क्षमता की कमी. जिलों में परियोजनाओं की निगरानी के लिए जरूरी तकनीकी स्टाफ और अनुभवी अफसरों की कमी बताई जाती है. कई जगह योजनाओं के डीपीआर समय पर तैयार नहीं होते, जिससे बजट होने के बावजूद काम शुरू नहीं हो पाता. तीसरा कारण है जवाबदेही का अभाव. जब तय समय में खर्च नहीं होता, तो अक्सर इसकी व्यक्तिगत जिम्मेदारी तय नहीं होती. नतीजतन, अधिकारी सुरक्षित खेल खेलते हैं और जोखिम लेने से बचते हैं.

विकास योजनाओं पर असर

कम खर्च का सबसे बड़ा असर योजनाओं की समयसीमा पर पड़ रहा है. ग्रामीण इलाकों में सड़कें अधूरी हैं, जल जीवन मिशन के तहत पाइपलाइन बिछाने का काम धीमा है और शहरी विकास परियोजनाएं कागजों में आगे हैं, जमीन पर नहीं. इससे जनता को मिलने वाले लाभ में देरी हो रही है. अर्थशास्त्रियों के मुताबिक बजट खर्च का सीधा संबंध आर्थिक गतिविधि से होता है. जब सरकार पैसा खर्च नहीं करती, तो निर्माण, रोजगार और स्थानीय बाजारों पर असर पड़ता है. इसका मतलब है कि जिस आर्थिक रफ्तार की उम्मीद की जा रही थी, वह भी कमजोर पड़ती है. 

विपक्ष ने इस मुद्दे को सरकार पर हमला बोलने का मौका बना लिया है. समाजवादी पार्टी और कांग्रेस लगातार सवाल उठा रही हैं कि अगर सरकार अपने ही बजट को खर्च नहीं कर पा रही, तो विकास के दावे कैसे किए जा सकते हैं. विपक्ष का आरोप है कि बड़े-बड़े ऐलान सिर्फ राजनीतिक लाभ के लिए किए गए, लेकिन उन्हें लागू करने की इच्छाशक्ति और प्रशासनिक क्षमता कमजोर है. विधानसभा और बाहर दोनों जगह यह मुद्दा उठाया जा रहा है कि बजट का पैसा कागजों में बंद है, जबकि जनता सड़क, पानी और रोजगार के लिए तरस रही है.

सरकार इन आरोपों को सिरे से खारिज करती है. यूपी बीजेपी के प्रवक्ता संजीव सिंह कहते हैं “शुरुआती महीनों में खर्च की गति धीमी रहना असामान्य नहीं है, खासकर तब जब परियोजनाएं बड़ी हों.” सरकार यह भी दावा करती है कि वित्तीय वर्ष के आखिरी महीनों में खर्च की रफ्तार तेज होती है और लक्ष्य हासिल कर लिया जाएगा. मुख्यमंत्री की समीक्षा बैठक को इसी दिशा में एक सख्त संदेश माना जा रहा है. संकेत साफ हैं कि जिन विभागों ने हीला-हवाली की है, उनके अधिकारियों पर कार्रवाई हो सकती है. सरकार चाहती है कि योजनाओं का लाभ जल्द से जल्द जनता तक पहुंचे और चुनावी साल में विकास का असर दिखे. 

आगे की चुनौती

इसी बीच वित्त विभाग अगले वित्तीय वर्ष 2026-27 के बजट की तैयारी में जुट गया है. अनुमान है कि 1 अप्रैल 2026 से शुरू होने वाले वर्ष में बजट का आकार 9.05 लाख करोड़ रुपये के आसपास होगा, जो मौजूदा बजट से करीब एक लाख करोड़ ज्यादा है. इसके बाद 2027-28 में बजट 10 लाख करोड़ और 2028-29 में 11.35 लाख करोड़ रुपये से ऊपर जाने का अनुमान है. सरकार का लक्ष्य 2029-30 तक उत्तर प्रदेश की अर्थव्यवस्था को एक ट्रिलियन डॉलर तक पहुंचाने का है. 

लेकिन सवाल यही है कि अगर खर्च करने की क्षमता नहीं बढ़ी, तो बढ़ता बजट आकार सिर्फ आंकड़ों तक सीमित रह जाएगा. 19 दिसंबर से विधानमंडल के प्रस्तावित शीतकालीन सत्र में 2025-26 का पहला अनुपूरक बजट पेश किया जा सकता है. इसके लिए विभागों ने अतिरिक्त धन की मांग भेजनी शुरू कर दी है. अनुपूरक बजट के बाद कुल बजट आकार 8.08 लाख करोड़ रुपये से भी आगे निकल सकता है.

असल परीक्षा यही होगी कि क्या सरकार और नौकरशाही मिलकर खर्च की रफ्तार बढ़ा पाते हैं या नहीं. क्योंकि बजट सिर्फ धन का आवंटन नहीं, बल्कि उसे समय पर और सही जगह खर्च करने की क्षमता का भी नाम है. उत्तर प्रदेश के सामने फिलहाल यही सबसे बड़ी चुनौती है.

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