RJD बिहार चुनाव में गानों का तड़का लगाने वाले भोजपुरी गायकों पर क्यों भड़का?

RJD ने 14 भोजपुरी गायकों को पार्टी की पहचान के ‘अवैध’ इस्तेमाल को लेकर नोटिस भेजा है, इससे यह भी पता चलता है कि चुनाव में हार के बाद नैरेटिव मैनेजमेंट की कोशिश की जा रही है

तेजस्वी यादव (फाइल फोटो)

बिहार में जब चुनाव प्रचार पूरे शबाब पर था, तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने “मारब सिक्सर के, छह गोली छाती में” और “आएगी भैया की सरकार, बनेंगे रंगदार” जैसे भोजपुरी गानों का जिक्र कर इसे तेजस्वी यादव की राष्ट्रीय जनता दल (RJD) की मानसिकता का प्रतीक करार दे दिया. इसने तुरंत राजनीतिक माहौल को गर्मा दिया. आमतौर पर एक मामूली सांस्कृतिक अभिव्यक्ति रह जाने वाले ये गाने अचानक राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में आ गए और इसे एक गहरे राजनीतिक झुकाव का सबूत माना गया.

जाति-गौरव का बखान करने वाले इन गानों से चुनावी नुकसान का सही आकलन करना तो नामुमकिन है, फिर भी इसमें कोई दो-राय नहीं हैं कि प्रधानमंत्री की तरफ से इनका जिक्र किए जाने के बाद जनता के मन में कुलबुलाती बेचैनी पहले की तुलना में कहीं ज्यादा बढ़ गई. उनके दखल ने सिर्फ विवादित गानों को बढ़ावा ही नहीं दिया; बल्कि मतदाताओं को यह सोचने पर बाध्य भी कर दिया कि यह कल्चरल नॉस्टैल्जिया सामाजिक न्याय का नारा बुलंद करने वाले RJD की दबदबा और वर्चस्व कायम करने वाली सोच का प्रतीक है.

अब, 243 सदस्यीय विधानसभा में सिर्फ 25 सीटों पर सिमट चुके RJD ने करारी चुनावी हार के बाद अपना ध्यान उस सांस्कृतिक माहौल पर केंद्रित किया है, जिसे रोकने की उसने पहले या तो कोशिश नहीं की या फिर इसमें नाकाम रहा. हार के कारण तलाशने में जुटी पार्टी ने इस हफ्ते बेहद आहत होकर 14 भोजपुरी गायकों को बिना इजाजत कथित तौर पर RJD के झंडे, चुनाव चिह्न और नेताओं के नाम इस्तेमाल करने या यूं कहें कि पार्टी की पहचान के “अनधिकृत” इस्तेमाल के लिए कारण बताओ नोटिस जारी किया. 

पार्टी का तर्क है कि इनमें से कई गाने जाति-गौरव का बखान करने वाले थे, जो दूसरे समुदायों को नीचा दिखाने वाले और लोकतांत्रिक एकजुटता के खिलाफ सोच को बढ़ावा दे रहे थे. पार्टी की एक और नाराजगी ये है कि गायकों ने ऐसा कंटेंट बनाया जिसने न सिर्फ पार्टी नेतृत्व का मजाक उड़ाया, बल्कि खतरनाक ‘जंगलराज’ की वापसी का डर भी जगा दिया.

RJD प्रवक्ता शक्ति सिंह यादव ने इंडिया टुडे को बताया, “RJD ने अब तक 14 गायकों को कारण बताओ नोटिस भेजा है, जिन्होंने पार्टी झंडे या चुनाव चिह्न का इस्तेमाल किया, या पार्टी नेतृत्व की इजाजत लिए बिना नेताओं के नाम लिए. अगर हम उनके जवाब से खुश नहीं हुए तो कानूनी कार्रवाई की जाएगी.”

प्रक्रियागत गंभीरता के साथ उठाया गया कदम, बौद्धिक संपदा के सैद्धांतिक बचाव से कहीं ज्यादा, चुनावी हार के बाद छवि सुधारने की कोशिश लगता है. RJD की सक्रियता कहीं न कहीं अपनी इज्जत बचाने की कवायद है.

ऐसे गाने न सुनने के आदी लोगों को ये भद्दे कार्निवल से ज्यादा कुछ नहीं लग सकते- पूरी तड़क-भड़क के साथ दोहराए जाने वाले इन गानों में मर्दानगी का बढ़ा-चढ़ाकर महिमामंडन किया गया. फिर भी, बिहार के राजनीतिक माहौल में ये सुरीले गानों की तुलना में कहीं ज्यादा छाए रहे. “RJD सरकार बनतौ” और “यादव रंगदार बनतौ” जैसे बोलों का सीधा मतलब था कि अगर RJD सरकार बनी तो वसूली करने वालों का दबदबा बढ़ेगा. गांव के साउंड सिस्टम तेजी से बजते ये गाने WhatsApp ग्रुप और स्थानीय चुनावी सभाओं में गूंजते-गूंजते नेशनल टीवी पर बहस-चर्चा का विषय भी बन गए. राजनीतिक विरोधियों ने इन गानों को पार्टी के इरादों का सबूत बताते हुए अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करने में कोई कसर नहीं छोड़ी.

RJD अब गायकों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की सोच रहा है तो इसे बहुत देर से उठाया गया कदम माना जा रहा है. आलोचक सवाल उठा रहे हैं- अब क्यों? जब ये गाने पहली बार रिलीज हुए, तभी पार्टी ने इससे दूरी बनाना उचित क्यों नहीं समझा. उस समय भी इनके प्रसारण पर रोक लगाई जा सकती थी और खराब छवि के कारण हुए चुनावी नुकसान को रोका जा सकता था.

प्रक्रियागत और नैतिक स्तर दोनों ही लिहाज से ये सवाल काफी मायने रखता है. क्योंकि असल सवाल ये है कि क्या सामाजिक न्याय का दावा करने वाली एक पार्टी अनजाने में ही सही ऐसे पॉपुलर कल्चर को बर्दाश्त कैसे कर सकती है जो डराने-धमकाने को बढ़ावा देता हो या जातिगत भेदभाव की बात करता हो. सोचने वाली बात ये भी है कि क्या पार्टी नेतृत्व को इस बात का अंदाजा नहीं था कि राज्य में लोकप्रिय होते ये गाने उसे चुनावी नुकसान पहुंचा सकते हैं. इससे भी बड़ा मुद्दा ये है कि क्या पार्टी की रणनीतिक लापरवाही ने एक ऐसा नैरेटिव मजबूत होने दिया जिसे बाद में विरोधियों ने अपनी आक्रामक राजनीति का हथियार बना लिया.

हालांकि, कई वजहें तार्किक तौर पर सही नजर आती हैं. प्रशासनिक पहलू की बात करें तो भोजपुरी म्यूजिक माइक्रो-प्रोड्यूसर्स, YouTube चैनल्स और इनफॉर्मल स्टूडियो की तेजी से बढ़ती दुनिया का हिस्सा है, जिस पर किसी तरह का नियंत्रण आसान नहीं है. ये सभी राजनीतिक निगरानी की आसान पहुंच से बाहर होते हैं. किसी पार्टी का लीगल सिस्टम चाहे कितना भी चौकन्ना क्यों न हो, इतनी तेजी से मुकाबले के लिए तैयार नहीं होता है जितनी तेजी से ये गाने अपनी पहुंच बढ़ाते हैं.

अब बात करें राजनीतिक समीकरणों की तो पार्टियां अक्सर ऐसी बयानबाजी को चुपचाप नजरअंदाज़ कर देती हैं, जिससे उनके मुख्य जनाधार में ऊर्जा का संचार होता हो. बहुत जल्द दखल से तानाशाही रुख दिखने या मुखर समर्थकों को दरकिनार करने का खतरा होता है. तीसरी बात, सबसे ज्यादा बुरा कारण शायद ये था कि सोच-समझकर इन्हें नजरअंदाज किया. क्योंकि ये गाने नुकसान पहुंचाने से पहले तक राजनीतिक नैरेटिव को आगे बढ़ाने वाले ही नजर आ रहे होंगे.

फिर भी, इनमें कोई भी वजह पार्टी की तरफ से की गई अनदेखी को जायज नहीं ठहराती. नेतृत्व की तरफ से कुछ सीमाएं तय करना बेहद जरूरी होता है. जब गाने रंगदारी वसूलने, डराने-धमकाने या आपराधिक छवि को बढ़ावा देने वाले हों तो इन्हें नैतिकता की हद पार करने वाला ही माना जाएगा. इसलिए, इतनी देर से नोटिस देना नैतिक साफगोई कम और डैमेज कंट्रोल ज़्यादा लगता है. यह एक ऐसे नैरेटिव को बदलने की कोशिश भर है जो पहले ही क्षति पहुंचा चुका है.

मोदी के दखल ने राजनीतिक पेंच और कस दिया. चुनावी रैलियों में इन गानों का जिक्र करके उन्होंने न सिर्फ इन गानों का मजाक बनाया बल्कि इस राष्ट्रीय स्तर पर चर्चाओं में भी ला दिया. पहले से क्षेत्रीय अश्लीलता के परिचायक रहे ये गाने एक बड़े सांस्कृतिक खतरे के तौर पर देखे जाने लगे. इन्हें ऐसे समय पर सिर्फ पैरोडी के बजाय एक पुख्ता संकेत बताकर लोगों के जख्मों को हरा कर दिया गया जब तेजस्वी खुद को ‘जंगल राज’ के आधुनिक और शासन पर फोकस करने वाले विकल्प के तौर पर फिर से खड़ा करने की कोशिश कर रहे थे.

यह घटना एक बड़ी कानूनी और सांस्कृतिक दुविधा की स्थिति भी उत्पन्न करती है. एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में कला की अभिव्यक्ति की आज़ादी और मानहानि के बीच की सीमारेखा बहुत हल्की होती है. सटायर और गानों को हमेशा छूट मिली है, फिर भी वह आजादी असीमित नहीं हो सकती. RJD के कदम से अब एक अजीब स्थिति उपजी है- क्या ये गाने राजनीतिक अभिव्यक्ति के दायरे में आते हैं या फिर मानहानि का कारण हैं? कोर्ट इस पर कैसी प्रतिक्रिया देगा, इसका असर न सिर्फ बिहार की राजनीति पर पड़ेगा, बल्कि कला और चुनावी संवाद का भविष्य भी तय करेगा.

राजनीतिक स्तर पर देखें तो ये नोटिस नैरेटिव को फिर से सुधारने की कोशिश हैं. हार के बाद पार्टियां अक्सर दोष दूसरों पर मढ़ती हैं-अपनी गलतियों के बजाय संकेतों-संदेशों, मीडिया या गलतबयानी को जिम्मेदार ठहराती हैं. गायकों पर निशाना साधने से जवाबदेही चुनाव अभियान की ढांचागत कमियों के बजाय कला के जरिये हमला करने वालों पर केंद्रित हो जाती है. ये जाना-पहचाना पैंतरा कुछ समय लिए कारगर तो साबित हो सकता है लेकिन इसकी बदौलत लंबे समय में मतदाताओं का भरोसा जीतना मुमकिन नहीं लगता.

आखिरकार मतदाता ऐसे कानूनी नोटिसों पर कोई गौर नहीं करते. उन्हें सिर्फ इस बात से फर्क पड़ता है कि सरकार ने कैसा काम किया, आर्थिक मौकों की स्थिति क्या रही और साख कैसी है. अगर RJD को लगता है कि इस तरह कदमों से उसकी छवि ठीक हो जाएगी, तो उसे सही ढंग से आत्ममंथन भी करना चाहिए: नए तरीके से संदेश देने, भरोसेमंद नेतृत्व को नए रूप में सामने रखने के साथ इस तरह राजनीतिक दृष्टिकोण को भी स्थापित करना होगा जो डराने-धमकाने की संस्कृति को नकारता हो.

बहरहाल, गायकों के लिए मौजूदा स्थिति काफी मुश्किल भरी है. कई लोग एक ऐसी creative economy पर निर्भर हैं जो बहुत नाजुक है, जिसमें विवाद से पहचान मिलती है और यही पहचान उनकी रोजी-रोटी चलाती है. उन पर एक साथ केस चला तो एक ऐसे इकोसिस्टम में जवाबदेही को लेकर एक बड़ी बहस छिड़ सकती है-जहां राजनीति, मुनाफा और भड़काऊ बातें एक-दूसरे के साथ जटिलता से जुड़ी हुई हैं.

बिहार के चुनाव भले ही खत्म हो गए हों लेकिन गानों की गूंज अभी तक खत्म नहीं हुई है. RJD के भेजे नोटिस अभिव्यक्ति, जवाबदेही और राजनीतिक साठगांठ पर एक लंबी बहस की शुरुआत भर हैं. आखिरकार गाने सिर्फ मनोरंजन का साधन ही नहीं होते बल्कि वे नजरिया दर्शाते हैं और बेहत सशक्त तरीके से लोगों की भावनाओं को प्रभावित करते हैं.

आखिरकार ये घटनाक्रम सिर्फ गायकों या नारों तक सीमित नहीं है. ये मॉडर्न कैंपेनिंग के जोखिमों को भी सामने लाता है, जिनमें म्यूजिक, मीम्स और माइक्रोफोन मिलकर राजनीतिक माहौल का हाल बयां करते हैं. RJD ने तूफान गुजरने के बाद आखिरकार इस गठजोड़ की ताकत को समझ लिया है, भले ही उसे समझने में देर हुई और अपने बचाव के प्रति उसका रवैया लचर ही रहा.

कार्रवाई एक मिसाल बनेगी या सिर्फ चुनावी नतीजों में एक फुटनोट बनकर रह जाएगी, यह इससे तय होगा कि वह अपनी ताकत इस्तेमाल कर पाएगा या फिर यूं ही पूरा मामला ठंडा पड़ जाएगा.

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