देश में वसीयतनामे का सबसे लंबा केस हारना कैसे राजस्थान के लिए गले की फांस बन गया?

खेतड़ी एस्टेट पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला देश में संपत्ति के अधिकारों को नए सिरे से परिभाषित करता है. वहीं, वसीयत और निजी विवादों पर सरकार की शक्ति को भी निर्धारत करता है

खेतड़ी रियासत की एक संपत्ति

न्याय की लड़ाई भले ही खत्म हो गई हो लेकिन नियंत्रण की लड़ाई आगे जारी है. 1 सितंबर को भारत के सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया, जिसने देश की सबसे लंबी प्रोबेट या वसीयत की कानूनी पुष्टि संबंधी लड़ाई का अंत कर दिया. 

खेतड़ी एस्टेट की अनुमानित तौर पर 3,000 करोड़ रुपये की संपत्ति को लेकर पिछले 36 साल से विवाद चल रहा था. हालांकि, अदालती फैसले के बावजूद भी राजस्थान सरकार इसके हस्तांतरण में देरी कर रही है, जिस पर अवमानना के मामले का सामना करना पड़ सकता है.

कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि किले, महल, हवेलियों और कृषि भूमि समेत करीब 180 संपत्तियों का असली उत्तराधिकारी खेतड़ी ट्रस्ट है जिसे खेतड़ी रियासत के अंतिम शासक राजा बहादुर सरदार सिंह ने बनाया था. कोर्ट ने 1987 में राजा की मृत्यु के तुरंत बाद एस्कीट्स अधिनियम के तहत संपत्तियां जब्त करने के राजस्थान सरकार के फैसले को “अवैध, मनमाना और संवैधानिक अधिकारों के खिलाफ” माना.
 
नजीर बना फैसला

जस्टिस बी.वी. नागरत्ना और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने मामले का निपटारा दो बुनियादी सवालों के आधार पर किया. पहला, क्या राज्य निजी प्रोबेट विवाद में पक्षकार बन सकता है? इस पर न्यायालय ने स्पष्ट किया कहा कि नहीं, सिवाय इसके कि जब कोई उत्तराधिकारी न हो या कोई वसीयत न हो. न्यायालय ने कहा कि सजातीय और सगोत्रीय की तो बात ही छोड़ दें, राज्य ने उत्तराधिकारियों और दावेदारों का पता लगाने तक का भी कोई प्रयास नहीं किया. और, उसे वसीयत की प्रोबेट को चुनौती देने का कोई अधिकार नहीं है. दूसरा, सवाल यह था कि क्या संरक्षक के तौर पर राज्य प्रतिद्वंद्वी दावेदार बन सकता है? इसका उत्तर भी नहीं था.

कानूनी जानकारों का मानना है कि फैसला नौकरशाही के दखल से वसीयतनामे की स्वतंत्रता की रक्षा करता है. ट्रस्ट की तरफ से मुकदमा लड़ने वाले वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने कहा, “अगर फैसला राज्य के पक्ष में आता तो हर वसीयत को कानूनी चुनौती मिलने की आशंका बढ़ जाती.”
 
अब, साकार हो सकेगा एक सपना

कैम्ब्रिज से पढ़े वकील, संविधान सभा के सदस्य और राज्यसभा सांसद राजा बहादुर सरदार सिंह ने अपनी पूरी संपत्ति शैक्षिक उद्देश्यों के लिए ट्रस्ट को दे दी थी. उनकी वसीयत में भारत के वंचितों के लिए छात्रवृत्ति, संस्थान और अवसरों की परिकल्पना की गई थी. हालांकि, वसीयत की कानून पुष्टि होने से पहले ही सरकार ने इस मामले में दखल दिया और संपत्ति को मालिकहीन घोषित करके अपने अधीन कर लिया. इस संपत्ति की कोई सूची भी नहीं बनाई गई. अगले कुछ दशकों में अमूल्य पांडुलिपियां, कलाकृतियां और अन्य धरोहरें गायब हो गईं. कभी हेरिटेज होटल रहा जयपुर का खेतड़ी हाउस लगभग पूरी तरह तहस-नहस हो गया.

कानूनी पेचीदगियों और शारीरिक रूप से हमलों के शिकार होने के बाद जब ट्रस्ट के बाकी सहयोगियों और कुछ प्रतिष्ठित हस्तियों ने मामले में अपने हाथ पीछे खींच लिए, तब भी पिछले दो दशक से ये कानूनी जंग लड़ते रहे पृथ्वी राज सिंह कहते हैं, “यह महज एक मुकदमे का निपटारा भर नहीं है. बल्कि इसने एक ऐसे व्यक्ति की तरफ से किए गए वादे को पूरा करने का रास्ता खोला है जो चाहता था कि उसकी संपत्ति भारत के सबसे कमजोर लोगों को शिक्षित करने के काम आए.”
 
भारतीय विरासत से जुड़ा एक मामला

खेतड़ी विरासत देश के राजनीतिक और आध्यात्मिक इतिहास का अटूट हिस्सा है. 1890 के दशक में खेतड़ी के अजीत सिंह ने स्वामी विवेकानंद को संरक्षण दिया, उनकी प्रसिद्ध शिकागो यात्रा के लिए रुपये-पैसे की व्यवस्था की और उन्हें “विवेकानंद” नाम दिया. नेहरू परिवार का भी खेतड़ी से गहरा नाता रहा है. मोतीलाल नेहरू का जन्म वहीं हुआ था, और उनके बड़े भाई नंदलाल खेतड़ी के दीवान के तौर पर कार्यरत थे. इसलिए, यह फैसला सिर्फ एक कानूनी जीत से आगे बढ़कर एक सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण से जुड़ा है.
 
राज्य की नाकामी

कोर्ट ने अपने कर्तव्यों का ठीक से पालन न करने के लिए राजस्थान सरकार की खिंचाई की. फैसले में कहा गया, “महलों को लूटा गया, किलों में तोड़फोड़ की गई, अमूल्य स्मृतियों को मिटा दिया गया- यह सब सरकारी स्वामित्व के तहत हुआ.” एक अन्य पूर्व फैसले में भी राज्य को संपत्तियों के नुकसान का जवाबदेह मानते हुए उन्हें बहाल करने का निर्देश दिया गया था.

संपत्तियां सौंपने में सरकार की ओर से की जा रही देरी से अब अवमानना की कार्यवाही का खतरा बढ़ रहा है. ट्रस्ट की तरफ से तैनात गार्ड पहले से ही कुछ जगहों की सुरक्षा में मुस्तैद हैं. लेकिन इस विशाल संपत्ति का जीर्णोद्धार कब और कैसे होगा, इस पर अनिश्चितता कायम है.
 
आगे क्या?

राजस्थान हाईकोर्ट की तरफ से पहले ही अवैध ठहराए जा चुके एस्कीट कार्यवाही मामले में सुप्रीम कोर्ट में अभी एक और मामला लंबित है. कुछ कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि राज्य सरकार को अपनी अपील वापस ले लेनी चाहिए लेकिन ट्रस्ट के प्रतिनिधियों का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में पहले ही राज्य सरकार को संपत्तियों के जीर्णोद्धार और संरक्षण पर 5 करोड़ रुपये खर्च करने का आदेश दिया है. इसके अलावा, कोर्ट ने नुकसान के लिए राज्य सरकार को जिम्मेदार ठहराया है, और खेतड़ी ट्रस्ट मुआवजे और क्षतिपूर्ति की मांग करेगा.

ट्रस्ट अपना शैक्षिक मिशन फिर से स्थापित करने की तैयारी कर रहा है, जिसके तहत पुस्तकालयों का पुनरुद्धार, विरासत भवनों का जीर्णोद्धार और छात्रवृत्ति कार्यक्रम शुरू करना शामिल है. हालांकि, यह काम तभी आगे बढ़ सकता है जब संपत्तियों का भौतिक नियंत्रण पूरी तरह उसके हाथों में आ जाए. अब, सवाल ये है कि क्या राजस्थान सरकार जल्द अदालती फैसले का पालन करेगी या इसे लटकाकर अवमानना की कार्यवाही होने का इंतजार करेगी.

चार दशकों तक चले संवैधानिक सिद्धांतों को कसौटी पर परखने वाले इस मामले में 1 सितंबर का फैसला इसकी पुष्टि करता है कि न्याय में देरी हमेशा न्याय से वंचित नहीं करती. हालांकि, जब तक ट्रस्ट को इसकी चाबी नहीं मिल जाती, खेतड़ी एस्टेट की कहानी आगे बढ़ना मुश्किल है.

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