प्रशांत किशोर के लिए जन सुराज की रैली ने कैसे उम्मीद बढ़ाई और हताशा भी!
चुनावी रणनीतिकार से नेता बने प्रशांत किशोर ने 11 अप्रैल को अपनी जन सुराज पार्टी की पहली सियासी सभा आयोजित की थी. पिछले अक्टूबर में ही बनी यह पार्टी अब विधानसभा चुनाव की तैयारियों में जुट गई है

"जो कहे, करके दिखावे, उ मिजाज चाहिए हो, जन सुराज चाहिए हो, नया आगाज चाहिए हो" - 11 अप्रैल की शाम पटना के गांधी मैदान में भोजपुरी का यह गीत गूंज रहा था. मानो कोई पुराना आह्वान फिर से जाग उठा हो. इस जोश और उमंग के बीच प्रशांत किशोर मंच पर आए. नीला कुर्ता पहने, सादगी और संकल्प के प्रतीक के साथ, वे उस बेकरार भीड़ के सामने खड़े थे, जो उनके करीब आने को बेताब थी. उस पल में मंच एक युवा उमंग का रंगमंच बन गया.
लोग आगे बढ़े, प्रशांत के साथ सेल्फी लेने की होड़ में. उनका उत्साह देखते ही बनता था, लेकिन यह जोश कहीं-कहीं चुनौती भी बन गया. चुनावी रणनीतिकार से सियासतदां बने प्रशांत के लिए यह नजारा नया था. भीड़ ने उन्हें एक जननेता की तरह गले लगाया. उनके दोनों हाथ हिलते रहे, अनगिनत हाथों से मुलाकात करते हुए. वफादार सहयोगियों ने उन्हें घेर रखा था, ताकि वे इस उमड़ती भीड़ में संभल सकें. उनकी विनम्रता और सहजता ने सबका दिल जीत लिया.
पर्दे के पीछे रणनीति बनाने वाले प्रशांत के लिए ऐसी बेकाबू भीड़ शायद किसी बुरे सपने से कम नहीं. लेकिन जन सुराज के नेता के तौर पर यह पल उनके लिए एक नई राह दिखाने वाला था. उस जोशीले माहौल में एक उम्मीद की किरण चमकी, जो सच्चे जन समर्थन की ताकत को बयां कर रही थी.
11 अप्रैल का दिन जन सुराज पार्टी की पहली सियासी सभा का दिन था. यह पार्टी, जो पिछले अक्टूबर में ही बनी, अब विधानसभा चुनाव की तैयारियों में जुट गई है. लेकिन इस दिन की कहानी पूरी तरह जीत की नहीं थी. अपनी बेबाकी और सटीक रणनीति के लिए पहचाने जाने वाले प्रशांत ने सिर्फ नौ मिनट में अपना भाषण खत्म किया. उनका गुस्सा नीतीश कुमार की सरकार पर फूटा. प्रशांत ने आरोप लगाया कि सरकार ने जन सुराज के समर्थकों को गांधी मैदान तक पहुंचने से रोका. पांच लाख लोगों की उम्मीद खाली कुर्सियों में सिमट गई. प्रशांत के चेहरे पर खुशी और निराशा दोनों की छाया थी.
उन्होंने गरजते हुए कहा, "हमारे समर्थकों को रैली तक आने से रोकने का गुनाह जो इस सरकार ने किया है, इसका हिसाब होगा." अपने छोटे लेकिन जोशीले भाषण में प्रशांत ने बिहार की सियासत के तीन बड़े नामों- मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव- को निशाने पर लिया. "क्या आप नीतीश की सरकार को उखाड़ नहीं फेंकेंगे? क्या आप मोदी की बातों को ना नहीं कहेंगे? क्या आपको लालू के जंगल राज की चाहत है? नवंबर आएगा, तब जनता की सरकार बनानी है," उन्होंने हुंकार भरी.
हालांकि भीड़ की संख्या उम्मीद से कम थी, लेकिन उनका संदेश साफ था. साल 2014 में मोदी और 2015 में नीतीश की जीत की स्क्रिप्ट लिखने वाले प्रशांत अब खुद एक नेता के तौर पर मैदान में हैं. भीड़ का जोश उन्हें सुकून दे रहा था, लेकिन कम तादाद ने उनके समर्थन की गहराई पर सवाल उठाए. यह रैली एक उम्मीद की मशाल थी, तो साथ ही आने वाली चुनौतियों की चेतावनी भी.
पिछले साल जन सुराज ने बिहार के उपचुनावों में अच्छा प्रदर्शन किया था. कई सीटों पर उसे ठीक-ठाक वोट मिले. यह संकेत था कि यह नई पार्टी कोई सियासी ख्वाबगाह नहीं, बल्कि एक उभरता हुआ नाम है.
बिहार की सियासत लंबे समय से क्षेत्रीय दलों और जटिल जातिगत समीकरणों का गढ़ रही है. यहां बीजेपी और कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दल छोटे भाई की भूमिका में सिमट गए हैं. लालू और नीतीश जैसे दिग्गजों का दबदबा हमेशा छाया रहा है. लेकिन इस मोटी दीवार के बीच प्रशांत को मतदाताओं की थकान दरारों सरीखी दिखती हैं. प्रशांत इस सियासी कहानी के दो ध्रुवों को समझते हैं- एक तरफ नीतीश-बीजेपी गठबंधन, दूसरी तरफ राजद-कांग्रेस. मतदाता इन दोनों के बीच झूलते रहे हैं. लेकिन अब प्रशांत एक नया रास्ता दिखाना चाहते हैं, एक ऐसा विकल्प जो इस चक्र को तोड़े.
मगर यह राह आसान नहीं. रैली में कम भीड़ के अलावा, प्रशांत के सामने एक ऐसी सियासत को चुनौती देने की जंग है, जहां निष्ठाएं गहरी जड़ें जमाए बैठी हैं. नीतीश अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) में पूजे जाते हैं, जो संख्या में भारी हैं. तेजस्वी यादव और राजद को मुस्लिम और यादवों का मजबूत साथ है. चिराग पासवान नए दलित चेहरे के तौर पर उभरे हैं. इस सियासी शतरंज में प्रशांत को न सिर्फ ज्यादा मेहनत करनी होगी, बल्कि एक बिल्कुल नया रास्ता बनाना होगा.
लेकिन इन चुनौतियों के बीच एक बड़ा मौका भी है. बिहार, जो देश के सबसे गरीब राज्यों में शुमार है, बेरोजगारी, जर्जर इन्फ्रास्ट्रक्चर और शिक्षा की कमी से जूझ रहा है. प्रशांत का अपने गृह राज्य पर फोकस करना सिर्फ सियासी चाल नहीं, बल्कि जातिगत सियासत और शासन की नाकामी का जवाब है. उनकी 5,000 से ज्यादा गांवों की पदयात्रा कोई चुनावी हथकंडा नहीं, बल्कि आम बिहारी की रोजमर्रा की जिंदगी को समझने और उसका हल निकालने की कोशिश है.
दांव पहले से कहीं ऊंचा है. प्रशांत अब जन सुराज के चेहरा बन चुके हैं. यह अब चुपके से रणनीति बनाने का वक्त नहीं, बल्कि खुलकर नेतृत्व दिखाने का मौका है. उनका संदेश कितना गूंजेगा, क्या यह एक आंदोलन बन पाएगा, यह देखना बाकी है. फिलहाल, 11 अप्रैल का मिला-जुला रिस्पॉन्स एक चेतावनी भी है और एक वादा भी.