उगाही कांड में फंसे RJD विधायक ने कैसे तेजस्वी यादव और पार्टी को उलझा दिया?

RJD के विधायक रितलाल यादव ने उगाही के एक मामले में अदालत में सरेंडर किया है लेकिन इस घटनाक्रम ने चुनाव से पहले तेजस्वी यादव की मुश्किलें बढ़ा दी हैं

आरजेडी विधायक रीतलाल यादव (फाइल फोटो)
आरजेडी विधायक रीतलाल यादव (फाइल फोटो)

बिहार में अपराध और सियासत का गठजोड़ कोई नई बात नहीं, खासकर चुनावी साल में. लेकिन राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के विधायक रितलाल यादव का उगाही मामले में सरेंडर इस गठजोड़ की काली सच्चाई को फिर उजागर करता है. बिहार में, जहां अपराधी और नेताओं का अंतर करने वाली रेखा अक्सर धुंधली हो जाती है, यह कांड तेजस्वी यादव के लिए सियासी संकट बनकर उभरा है.

53 साल के रितलाल यादव (दानापुर से आरजेडी के विधायक) ने अपने भाई पिंकू यादव, साले छिक्कू यादव और साथी श्रवण यादव के साथ पटना की एक अदालत में समर्थकों के जुलूस के बीच सरेंडर किया. यह हार और हेकड़ी का अजीब मेल था. मामला तब गरमाया, जब एक स्थानीय निर्माण फर्म के दो साझेदारों ने FIR दर्ज की.

आरोप था कि यादव और उनके गुर्गों ने दानापुर विधानसभा क्षेत्र में एक रिहायशी प्लॉट के विकास के लिए 30 लाख रुपये की रंगदारी मांगी. शिकायत के मुताबिक, 4 लाख रुपये दिए गए, लेकिन धमकियां बंद नहीं हुईं.

पटना पुलिस ने तुरंत कार्रवाई की और विधायक व उसके गिरोह से जुड़े 11 ठिकानों पर छापे मारे. छापों में 10.5 लाख रुपये नकद, 77.5 लाख के खाली चेक, 14 प्रॉपर्टी डीड, 17 चेकबुक, पांच सरकारी स्टैंप, छह पेनड्राइव और एक वॉकी-टॉकी समेत कई चीजें बरामद हुईं.

इतने सबूतों के बावजूद, आरजेडी विधायक ने आरोपों को सियासी साजिश करार दिया, जिसका मकसद उन्हें "खत्म करना" है. लेकिन रितलाल का यह दावा उनके लंबे आपराधिक रिकॉर्ड के सामने फीका पड़ता है. उनके खिलाफ हत्या, हत्या का प्रयास, उगाही, दंगा, और आर्म्स एक्ट जैसे 42 मामले चल रहे हैं, हालांकि अभी तक किसी में सजा नहीं हुई.

एक छोटे किसान रामाशीष राय के बेटे रितलाल की पढ़ाई 12वीं तक ही हुई, लेकिन उनकी महत्वाकांक्षा की कोई सीमा नहीं थी. पुलिस सूत्रों के मुताबिक, ज्यादातर स्थानीय डेवलपर्स ‘मुखियाजी’, जैसा कि यादव को बुलाया जाता है, को पैसे देकर मुसीबत टाल लेते थे. लेकिन कुछ ने उनका विरोध किया.

रितलाल यादव का सियासी सफर जितना गैर-पारंपरिक है, उतना ही विवादास्पद. 2010 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने दानापुर से निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर लड़कर बीजेपी की आशा देवी सिन्हा के खिलाफ दूसरा स्थान हासिल किया. 2014 में, जब लालू प्रसाद यादव की बेटी मीसा भारती लोकसभा चुनाव में बीजेपी के राम कृपाल यादव से टक्कर ले रही थीं, तब आरजेडी सुप्रीमो ने यादव का साथ मांगा. बेउर सेंट्रल जेल में बंद यादव को आरजेडी का महासचिव बनाया गया—यह बाहुबल वाली सियासत का प्रतीक था, हालांकि मीसा की जीत नहीं हुई.

2020 में रितलाल यादव ने आरजेडी के टिकट पर दानापुर से चार बार की बीजेपी विधायक आशा देवी सिन्हा को 15,900 से ज्यादा वोटों से हराकर अपनी पकड़ मजबूत की. यह बाहुबल और वोट की जीत का असहज गठजोड़ था.

अब, जब बिहार विधानसभा चुनाव की ओर बढ़ रहा है, यादव का उगाही कांड विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी के लिए गलत वक्त पर आया है. दो दशक से जनता दल (यूनाइटेड) और बीजेपी का सत्तारूढ़ गठबंधन ‘जंगल राज’ के नैरेटिव को आरजेडी के खिलाफ हथियार बनाता रहा है. इन पार्टियों के मुताबिक 1990 से 2005 तक के 15 साल का आरजेडी शासन अराजकता का दौर था.

2020 में लालू के बेटे तेजस्वी यादव ने आरजेडी की अगुवाई वाले महागठबंधन को सत्ता से सिर्फ एक दर्जन सीटें दूर ले गए थे. लेकिन अब रितलाल कांड ने तेजस्वी को मुश्किल में डाल दिया है. उन्हें ‘जंगल राज’ के ठप्पे से साफ तौर पर दूरी बनानी होगी और अपनी पार्टी को अपराध के दाग से बचाना होगा. लेकिन ऐसा करने में वे एक वफादार वोट-बैंक को नाराज करने का जोखिम उठाएंगे, जिसके जमीनी काम कुछ इलाकों में वोटों में तब्दील होते हैं. तेजस्वी अब तक इस मामले से दूर रहे हैं, लेकिन इससे यही अवधारणा मजबूत होती है कि बिहार की सियासत के ऐसे काले पहलुओं पर आंखें मूंद ली जाती हैं.

सियासी विश्लेषकों का कहना है कि स्विंग वोटर, जो यह तय करेंगे कि आरजेडी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) से सत्ता छीन पाएगी या नहीं, एक मौजूदा विधायक को हथियारबंद पुलिस की हिरासत में देखकर प्रभावित हो सकते हैं. शहरी और अर्ध-शहरी वोटरों के लिए कानून-व्यवस्था सबसे बड़ा मुद्दा है. रितलाल यादव का मामला आरजेडी शासन के दौरान अपहरण और उगाही रैकेट की यादें ताजा करता है, और कम मार्जिन से जीती गई सीटों पर नतीजे बदल सकता है.

सत्तारूढ़ गठबंधन इस मौके को बखूबी भुना रहा है. ‘आरजेडी और अपराधी साझीदार हैं’ का नारा जेडी(यू) के बड़े नेताओं जैसे मुख्य प्रवक्ता नीरज कुमार के भाषणों में गूंज रहा है. लेकिन इतिहास बताता है कि बिहार का वोटर स्थानीय रिश्तों और जातिगत वफादारी के सामने सबसे बुरे नैरेटिव को भी पलट सकता है. सवाल यह है कि क्या आरजेडी की चुनावी मशीनरी एक मजबूत जवाबी नैरेटिव बना पाएगी- जो विकास, कल्याण योजनाओं और कृषि पुनरुद्धार पर जोर दे—ताकि एक और अदालती ड्रामे का सियासी असर खत्म हो सके.

यादव का सरेंडर बिहार की लोकतांत्रिक सियासत के एक विरोधाभास को उजागर करता है: एक ऐसा वोटर, जो बाहुबली की मौजूदगी और अच्छा शासन, दोनों चाहता है. आरजेडी के लिए चुनौती इस विरोधाभास को सुलझाने की है.

ऐसी सियासत में, जहां अतीत कभी अतीत नहीं रहता, तेजस्वी के लिए असली इम्तिहान शब्दों में नहीं, बल्कि कर्मों में है. उन्हें साफ तौर पर घोषणा करनी होगी कि बाहुबल अब जनादेश की जगह नहीं ले सकता. और व्यवहार में ‘जंगल राज’ की छाया से नाता तोड़ना होगा. तभी वोटरों को यकीन होगा कि बिहार का भविष्य अपने जस-का-तस मौजूदा बोझ से मुक्त हो सकता है.

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