उत्तर प्रदेश : आज़म खान की रिहाई कैसे बनी सियासी हार-जीत का सवाल?

हाईकोर्ट से जमानत मिलने के बावजूद सपा नेता आज़म खान जेल से बाहर नहीं आ पा रहे हैं क्योंकि पुलिस पुराने मामलों में नई धाराएं जोड़ रही है. सरकार इसे कानून का राज बता रही, जबकि विपक्ष इसे राजनीतिक बदला करार दे रहा है

वरिष्ठ सपा नेता आजम खान.
सपा नेता आज़म खान (फाइल फोटो)

समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता और उत्तर प्रदेश के पूर्व कैबिनेट मंत्री आज़म खान को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 18 सितंबर को जमानत दे दी थी. हालांकि सीतापुर जिला जेल से उनकी रिहाई में कानूनी अड़चन आ गई है. 23 महीने से सलाखों के पीछे बंद खान के रिहा होने की उम्मीद थी, लेकिन रामपुर पुलिस द्वारा एक अन्य मामले में जोड़े गए नए आरोपों ने उनकी रिहाई रोक दी है. 

हाईकोर्ट ने उन्हें रामपुर जिले में क्वालिटी बार की जमीन हड़पने के मामले में जमानत दी थी. यह उन कई मामलों में से आखिरी था जिसमें आज़म जमानत मांग रहे थे और 21 अगस्त को आदेश सुरक्षित रखा गया था. 

फैसले के बाद आज़म के वकील ने कहा था कि आदेश ने आखिरकार आज़म खान के जेल से बाहर आने का रास्ता साफ कर दिया है, क्योंकि यह उनके खिलाफ आखिरी आपराधिक मामला था जिसमें जमानत का इंतजार था. आठ दिनों में आज़म खान को यह लगातार तीसरी राहत है. 10 सितंबर को, हाई कोर्ट ने उन्हें डूंगरपुर मामले में जमानत दी थी हालांकि, 18 सितंबर की देर शाम, उनके वकील इमरान उल्लाह ने बताया कि रामपुर में दर्ज एफआईआर संख्या 126/20, जो मोहम्मद अली जौहर विश्वविद्यालय और शत्रु संपत्ति पर कथित अतिक्रमण से जुड़ी है, में पुलिस ने अब तीन अतिरिक्त आईपीसी धाराएं- 467 (सरकारी दस्तावेजों की जालसाजी), 471 (फर्जी दस्तावेजों को असली बताकर इस्तेमाल करना) और 201 (साक्ष्य नष्ट करना)- लगाई हैं. 

वकील ने कहा, "शुरुआत में, पुलिस ने खान पर आईपीसी की धारा 420, 120-बी और 468 के तहत आरोप लगाए थे. उन्हें इन सभी धाराओं में पहले ही जमानत मिल चुकी थी. लेकिन इन नई धाराओं के जुड़ने के बाद, उन्हें नए सिरे से जमानत के लिए आवेदन करना होगा." इन अतिरिक्त धाराओं में सात साल की जेल से लेकर आजीवन कारावास तक की सजा हो सकती है.

रामपुर की एमपी/एमएलए कोर्ट में 20 सितंबर को इस मामले की सुनवाई होनी है. यूपी पुलिस ने साल 2014 में सिविल लाइंस में हाईवे पर सैद नगर हरदोई पट्टी में होटल क्वालिटी बार की जमीन के एक प्लॉट के फर्जी आवंटन के लिए आज़म की पत्नी तंजीम फातिमा, बेटे और पूर्व विधायक अब्दुल्ला आज़म और जिला सहकारी संघ के अध्यक्ष सैयद जाफर अली जाफरी के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज किया था. 1,200 रुपये प्रति माह की उनकी बोली सबसे अधिक पाए जाने के बाद यह संपत्ति अब्दुल्ला और तंजीम फातिमा के नाम आवंटित की गई थी. 

आरोप लगाया गया था कि जिला मजिस्ट्रेट के प्रशासन के अधीन एक संपत्ति को अवैध रूप से आवेदकों को किराए पर दिया गया था. 2019 की इस एफआईआर में आज़म का नाम नहीं था. बाद में, पांच साल बाद मामले की दोबारा जांच की गई और सपा नेता को मामले में आरोपी बनाया गया. इनमें से सात मामलों में अंतिम रिपोर्ट दाखिल हो चुकी है, एक मामले को अदालत ने खारिज कर दिया है और नौ मामले पिछली सरकार ने वापस ले लिए थे. अदालतों द्वारा तय किए गए 12 मामलों में से, खान को छह में सजा सुनाई गई है और बाकी छह में जमानत मिल गई है. 81 मामले अभी भी विचाराधीन हैं.

आज़म खान की रिहाई की राह में आने वाली लगातार मुश्किलों ने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या योगी सरकार उन्हें जेल से बाहर नहीं आने देना चाहती. कागज़ पर देखें तो हर केस का अपना कानूनी ढांचा है, पुलिस जांच करती है और अदालत फैसले देती है. लेकिन जिस पैटर्न में घटनाक्रम सामने आते हैं, उससे यह धारणा बन गई है कि सरकार और प्रशासन की रणनीति यही है कि आज़म किसी भी हाल में जेल से बाहर न आ सकें. 

रामपुर पुलिस का रवैया सबसे ज्यादा सवालों के घेरे में है. जब भी हाईकोर्ट या निचली अदालत से आज़म को राहत मिलती है, पुलिस नए आरोप या धाराएं जोड़ देती है. हाल का उदाहरण सामने है. क्वालिटी बार केस में हाईकोर्ट से जमानत मिलने के तुरंत बाद शत्रु संपत्ति मामले में धारा 467, 471 और 201 जोड़ दी गईं. इन धाराओं में आजीवन कारावास तक की सजा हो सकती है. नतीजा यह कि आज़म को फिर से जमानत प्रक्रिया में जाना पड़ेगा और उनकी रिहाई टल जाएगी. उनके वकील फ़ैज़ान ख़ान कहते हैं, “ये सारे मुक़दमे राजनीति से प्रेरित हैं. सबूत इतने कमज़ोर हैं कि अदालतें बार-बार राहत देती रही हैं. सरकार की कोशिश सिर्फ़ इतनी है कि उन्हें जितना लंबा जेल में रखा जा सके, रखा जाए.” 

समाजवादी पार्टी का आरोप है कि यह सब राजनीतिक बदले की कार्रवाई है. अखिलेश यादव ने कई बार सार्वजनिक मंच से कहा है कि आज़म खान को अन्यायपूर्ण तरीके से जेल में रखा गया है. सपा नेताओं का कहना है कि सरकार मुस्लिम समाज को यह संदेश देना चाहती है कि उसका कोई भी बड़ा नेता सुरक्षित नहीं है. इस तरह के केसों का इस्तेमाल विपक्ष की ताकत को कमजोर करने के लिए किया जा रहा है. 

वहीं बीजेपी खेमे का तर्क बिल्कुल उलट है. पार्टी की दलील है कि आज़म खान पर दर्ज मामले गंभीर हैं और कानून के अनुसार जांच व कार्रवाई हो रही है. पार्टी प्रवक्ता समीर सिंह कहते हैं, “अगर अदालतें आज़म खान को निर्दोष मानेंगी तो वे बाहर आ जाएंगे. लेकिन जब तक गंभीर धाराओं में आरोप साबित हो रहे हैं, तब तक सरकार का काम कानून को लागू करना है, चाहे आरोपी कितना भी बड़ा नेता क्यों न हो.” फिर भी, हाल के घटनाक्रमों ने यह सवाल खड़ा किया कि क्या सरकार प्रशासनिक स्तर पर भी पूरी तैयारी कर रही है. मुरादाबाद मंडल के कमिश्नर आंजनेय सिंह को हाल ही में एक्सटेंशन दिया गया. विपक्ष ने इसे आज़म ख़ान को काबू में रखने की रणनीति बताया. राजनीतिक विश्लेषक डॉ. सुधांशु त्रिपाठी कहते हैं, “सरकार को पता है कि आज़म ख़ान जेल से बाहर आते हैं तो सबसे पहले उनका असर रामपुर में दिखेगा. वहां जुलूस, भीड़ और सपा का मनोबल बढ़ेगा. ऐसे में सख़्त अफ़सर को तैनात रखना सरकार के लिए सुरक्षा कवच जैसा है.”

रामपुर की गलियों में भी यह चर्चा है कि प्रशासन की हर तैनाती आज़म ख़ान को ध्यान में रखकर ही की जाती है. रामपुर में आज़म खान के करीबी नेता वीरेंद्र गोयल कहते हैं, “यहां आज़म ख़ान की गैरमौजूदगी में भी उनका ही नाम गूंजता है. चाहे बिजली का मसला हो या थाने में सुनवाई का, लोग कहते हैं कि अगर आज़म साहब होते तो हालात अलग होते. सरकार इस प्रतीकात्मक असर से डरती है.” 

यूपी की राजनीति में आज़म ख़ान का रोल अब भी अहम है. साल 2017 के बाद से उनकी ताक़त भले घटी हो, लेकिन 2022 के विधानसभा चुनाव में रामपुर की सीट उन्होंने जेल में रहते हुए भी जिताई. उनकी पत्नी और बेटे ने चुनाव लड़ा और सपा को वोट मिले. विश्लेषकों का मानना है कि यह साफ़ संदेश है कि आज़म ख़ान आज भी वोट दिलाने की ताक़त रखते हैं. लखनऊ के शिया कालेज में असिस्टेंट प्रोफेसर अमित राय बताते हैं, “आज़म ख़ान मुस्लिम राजनीति के सबसे बड़े चेहरों में से एक हैं. उनकी रिहाई विपक्ष के लिए एक बड़ी राजनीतिक जीत होगी. बीजेपी चाहेगी कि वे जेल में ही रहें ताकि समय के साथ लोगों पर उनकी पकड़ ढीली पड़ जाए.”

आज़म ख़ान का जेल से बाहर आना दरअसल सत्ता और विपक्ष दोनों के लिए हार-जीत का सवाल बन चुका है. अगर सपा नेता लंबे समय तक जेल में रहते हैं तो इसे बीजेपी की जीत और सपा की कमजोरी माना जाएगा. वहीं अगर वे बाहर आकर सक्रिय राजनीति में लौटते हैं तो यह बीजेपी के लिए पश्चिमी यूपी में झटका साबित होगा. रामपुर के एक कॉलेज शिक्षक असलम सैफ़ी कहते हैं, “यह सिर्फ़ एक व्यक्ति की आज़ादी का मामला नहीं है. यह सवाल है कि विपक्ष की आवाज़ को दबाया जा सकता है या नहीं. अगर आज़म साहब बाहर आकर फिर से राजनीति में सक्रिय होते हैं तो यह संदेश जाएगा कि डर के बावजूद सच दबाया नहीं जा सकता.” 

सत्ता-पक्ष इसे अलग तरह से देखता है. बीजेपी नेताओं का मानना है कि आज़म ख़ान का दौर अब बीत चुका है. पार्टी के प्रदेश मंत्री और रामपुर के पूर्व जिला प्रभारी डा. चंद्रमोहन कहते हैं, “लोगों ने विकास को चुना है, जाति और धर्म की राजनीति को नहीं. आज़म ख़ान की रिहाई से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा. अब रामपुर भी बदल रहा है.”

फिर भी, रामपुर की गलियां, वहां की रौनक और भीड़ आज भी किसी और नाम से नहीं, बल्कि आज़म ख़ान से ही जुड़ती है. यही वजह है कि उनकी रिहाई अदालत से ज़्यादा राजनीतिक अखाड़े में चर्चा का विषय बनी हुई है. अदालत यह तय करेगी कि वे जेल से बाहर आएंगे या नहीं, लेकिन जनता यह तय करेगी कि बाहर आने के बाद उनकी ताक़त कितनी बची है.

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