बांके बिहारी मंदिर के बंद कमरे में क्या है? 54 साल बाद अब हटेगा इस रहस्य से पर्दा

वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर का तोषखाना यानी खजाना 54 साल बाद खुलने जा रहा है

बांके बिहारी मंदिर

वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर को लेकर सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर गठित उच्चाधिकार प्राप्त समिति ने 11 सितंबर की शाम चौथी बैठक में जो निर्णय लिए, उन्होंने पूरे ब्रजवासियों और भक्त समुदाय के बीच नई उत्सुकता पैदा कर दी है. समिति ने तय किया है कि मंदिर की चल-अचल संपत्तियों का तीन साल की अवधि, 2013 से 2016 तक, का विशेष ऑडिट कराया जाएगा 

इसकी सारी विस्तृत जानकारी 15 दिनों के भीतर पेश की जाएगी. साथ ही लंबे समय से विवाद और रहस्य का केंद्र बने गर्भगृह के पास स्थित सीलबंद कमरे, जिसे लोग तोषखाना या तोषगृह कहते हैं, को 54 साल बाद खोला जाएगा. समिति ने इसके साथ ही मंदिर में लंबे समय से चली आ रही वीआईपी दर्शन की प्रथा को भी समाप्त कर दिया है.

तोषखाना यानी खजाना बांके बिहारी मंदिर का वह हिस्सा है जो भक्तों और सेवायतों या सेवादारों, दोनों के लिए रहस्य और आस्था का केंद्र रहा है. इसे आखिरी बार 1971 में खोला गया था, जब मंदिर प्रबंधन समिति के तत्कालीन अध्यक्ष प्यारेलाल फतेहलाल गोयल के कार्यकाल में वहां रखे आभूषण और बेशकीमती सामान एक बक्से में डालकर मथुरा के भारतीय स्टेट बैंक की भूतेश्वर शाखा के लॉकर में जमा करा दिए गए थे. 

उसके बाद इस कमरे को बंद कर दिया गया और तब से अब तक इसकी सील नहीं टूटी. मंदिर सेवायत आचार्य प्रह्लाद वल्लभ गोस्वामी बताते हैं कि यह कमरा ठाकुरजी के आसन के नीचे है और परंपरा के अनुसार इसमें सोने-चांदी के आभूषणों के साथ-साथ मंदिर की अचल संपत्तियों से जुड़े दस्तावेज भी रखे जाते थे. लेकिन वहां अब क्या है, इस पर किसी के पास पक्की जानकारी नहीं है.

इतिहासकारों और सेवायतों का कहना है कि तोषखाने में पहले चोरी भी हो चुकी है. ब्रिटिश शासन के दौरान 1926 और 1936 में दो बार चोरी हुई थी, जिसके बाद चार लोगों को गिरफ्तार भी किया गया था. तभी से गोस्वामी समाज ने तोषखाने की सुरक्षा के लिए उसमें एक छोटा सा छेद बनाया था, जिससे चढ़ावे में आए आभूषण तो अंदर डाले जा सकते थे, लेकिन ताले की वजह से उन्हें बाहर निकालना संभव नहीं था. इस तरह यह व्यवस्था बनी रही कि तोषखाना बंद ही रहे लेकिन ठाकुरजी को अर्पित आभूषण सुरक्षित रूप से उसके भीतर जाते रहें.

बाद के वर्षों में कई बार सेवायतों ने इसे खुलवाने की कोशिश की. 2002 में एक ज्ञापन पर हस्ताक्षर हुए, 2004 में भी प्रयास हुआ, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला. अब सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में पहली बार यह कमरा आधिकारिक रूप से खोला जाएगा और जो कुछ भी वहां है, उसकी सूची और वीडियोग्राफी की जाएगी. इसके लिए एक विशेष पर्यवेक्षी समिति का गठन हुआ है, जिसमें सिविल जज, क्षेत्राधिकारी, लेखा परीक्षक और गोस्वामी समाज का प्रतिनिधि शामिल हैं.

बांके बिहारी मंदिर का निर्माण 1864 में हुआ था जब ठाकुरजी को वर्तमान स्थान पर लाया गया. लेकिन मंदिर की संपत्ति और उसकी परंपरा इससे कहीं अधिक पुरानी है. इतिहासकार आचार्य प्रह्लाद वल्लभ गोस्वामी बताते हैं कि श्रीबांकेबिहारी की सेवा के लिए उनके प्राकट्यकाल से लेकर अब तक भक्तों, राजाओं और नवाबों ने बहुत सी चल-अचल संपत्तियां दान में दी हैं. इनमें भूमि, भवन, मंदिर, खेत, कीमती आभूषण सब शामिल हैं. इस परंपरा में हिंदू राजा-महाराजाओं के साथ-साथ मुस्लिम शासक और नवाब भी शामिल रहे. 

सन् 1592 में जयपुर नरेश सवाई मानसिंह ने तीन एकड़ जमीन बांकेबिहारी जी को दान दी. 1594 में अकबर ने वृंदावन और राधाकुंड में 25 बीघा जमीन अर्पित की. 1595 में हरिराम व्यासात्मज किशोरदास ने किशोरपुरा भूखंड दान किया. 1596 में मित्रसेन कायस्थ और उनके पुत्र बिहारिनदास ने बिहारिनदेव टीलावाली भूमि भेंट की. 1748 में सवाई ईश्वरी सिंह ने 1.15 एकड़ जमीन दी. 1769 में भरतपुर और करौली की सरकारों ने भूमिदान किया. 1780 में विंध्याचल राजपरिवार ने भूमि और बहुमूल्य आभूषण अर्पित किए. 1785 में ग्वालियर रियासत ने भूमि, भवन और आभूषण दिए. यहां तक कि 20वीं सदी में भी यह परंपरा जारी रही. 1960 में राजस्थान के एक भक्त परिवार ने कोटा में 90 बीघा जमीन दान की और 2005 में कोलकाता के एक भक्त ने वृंदावन में अपना मकान समर्पित किया.

इतिहास इससे भी पीछे जाता है. हरिदासजी महाराज बांके बिहारी के प्राकट्यकर्ता (कहा जाता है कि उनकी समाधि से यह मूर्ति प्रकट हुई) माने जाते हैं. उनके पूर्वजों को भी उपहार और दान प्राप्त हुए थे. वर्ष 1440 के करीब मुल्तान जिले के चरणोदक नगर में विष्णुदेवजी को उनके शिष्य लक्ष्मीनारायण वर्मा ने घर और खेत दान किए थे. 1485 में हरिदासजी के पितामह गजाधरजी को मुल्तान की लंगाह सल्तनत के शासक शाह हुसैन ने पांच गांव दान किए थे. 1525 में हरिदासजी के पिता आशुधीरजी को हरिगढ़ के गुर्जर राजा ने हरिदासपुर सहित पांच गांव दिए थे. बांकेबिहारी मंदिर के प्रबंधन से जुड़े रहे एक पदाधिकारी जानकारी देते हैं, “दिल्ली के फराशखाने में मंदिर और भवन, पाकिस्तान के मुल्तान, शक्कर सिंध और सियालकोट में मंदिर और हवेलियां भी बिहारीजी की धरोहर मानी जाती हैं. इन सबका उल्लेख अनेक ग्रंथों और दस्तावेजों में मिलता है.”

इन पदाधिकारी के मुताबिक इतनी बड़ी धरोहर और संपत्ति होने के बावजूद प्रबंधन में लापरवाही और सामाजिक उदासीनता ने स्थिति यह बना दी कि आज गोस्वामी समाज की नई पीढ़ी को अपने पूर्वजों की अधिकांश संपत्तियों की जानकारी तक नहीं है. ठाकुर बांके बिहारी मंदिर प्रबंध समिति द्वारा प्रकाशित स्वामी हरिदास अभिनंदन ग्रंथ, केलिमालजु, कृपा कोर, कथा हरिदास बिहारी की, ब्रजभूमि इन मुगल टाइम्स और मथुरा ए डिस्ट्रिक्ट मेमॉयर जैसे अभिलेखों में इन संपत्तियों का उल्लेख मौजूद है, लेकिन व्यवहार में वे भुला दी गईं.

आज स्थिति यह है कि मंदिर में रोज भारी मात्रा में चढ़ावा आता है. पहले नकद और आभूषण दो-तीन महीने बाद बैंक में जमा होते थे, लेकिन अब मंदिर की लोकप्रियता और आय में बढ़ोतरी के साथ व्यवस्था बदली है. महीने में तीन बार बैंक अधिकारी मंदिर परिसर में बुलाए जाते हैं. वहां आयुक्त, जो मंदिर का रिसीवर होता है, की मौजूदगी में नकदी की गिनती होती है. पूरी प्रक्रिया की वीडियोग्राफी होती है और फिर धन व आभूषण वृंदावन के विभिन्न बैंकों में जमा कराए जाते हैं. 

एक मोटे अनुमान के अनुसार, बांकेबिहारी मंदिर के नाम पर इस समय बैंकों में करीब 360 करोड़ रुपये नकद जमा हैं. इसके अलावा कीमती आभूषण, संपत्तियां और जमीनें अलग हैं. ठाकुरजी के लिए अर्पित रजत-स्वर्ण हिंडोला भी मंदिर की धरोहर है, जिसे बेरीवाला परिवार (कोलकाता का एक औद्योगिक घराना) ने समर्पित किया था. इसे मंदिर परिसर में अलग कक्ष में रखा गया है जिसकी एक चाबी प्रबंधन समिति और दूसरी चाबी बेरीवाला परिवार के पास रहती है.

अब जब सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में उच्चाधिकार प्राप्त समिति तोषखाना खोलने जा रही है तो यह केवल एक ताला खोलने की बात नहीं है. यह सदियों की परंपरा और रहस्यों की परत खोलने जैसा है. सवाल यह भी है कि 1971 में जो बक्सा बैंक के लॉकर में रखा गया था, उसमें रखे आभूषण और दस्तावेज किस स्थिति में होंगे. क्या उनकी सूची बनाई गई थी और अगर हां, तो क्या वह सूची आज सुरक्षित है. समिति ने तय किया है कि तोषखाना खोलते समय वीडियोग्राफी होगी और हर सामान का रिकॉर्ड रखा जाएगा.

वृंदावन और मथुरा में इस खबर ने लोगों के बीच नई जिज्ञासा और उम्मीद पैदा की है. भक्तों का मानना है कि अब मंदिर की संपत्ति का सही आकलन सामने आएगा और प्रबंधन में पारदर्शिता बढ़ेगी. वहीं कुछ सेवायतों का कहना है कि तोषखाने में अब कुछ खास नहीं मिलेगा क्योंकि सारा कीमती सामान पहले ही बैंक में जमा करा दिया गया था. लेकिन भक्तों के लिए सवाल संपत्ति का कम और परंपरा और आस्था का अधिक है. उनके लिए ठाकुरजी की झलक ही सबसे बड़ा खजाना है. 

बांके बिहारी मंदिर का खजाना और उससे जुड़ा विवाद अब केवल धार्मिक महत्व तक सीमित नहीं रहा. यह न्यायपालिका, प्रशासन, इतिहासकारों और आम भक्तों के लिए भी दिलचस्पी का विषय बन गया है. सुप्रीम कोर्ट की कमेटी ने ऑडिट और तोषखाना खोलने का जो कदम उठाया है, उससे एक तरफ पारदर्शिता की उम्मीद बंधी है, तो दूसरी तरफ ब्रजभूमि के इस सबसे प्रतिष्ठित मंदिर का अगला अध्याय लिखे जाने की तैयारी भी हो रही है. 54 साल बाद जब तोषखाना खुलेगा तो वह केवल एक दरवाजे की सील टूटने का क्षण नहीं होगा, बल्कि यह आस्था, परंपरा और इतिहास के एक लंबे सिलसिले का पुनः उद्घाटन होगा.

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