उत्तराखंड में मदरसा बोर्ड खत्म होना किसी राजनीतिक एजेंडे का हिस्सा है या शिक्षा में सुधार की पहल?
उत्तराखंड देश का पहला राज्य बन गया है जिसने मदरसा बोर्ड को खत्म कर दिया है. अब राज्य में चल रहे सभी अल्पसंख्यक संस्थानों को राज्य के स्कूल शिक्षा बोर्ड से जुड़ना होगा

उत्तराखंड के राज्यपाल लेफ्टिनेंट जनरल गुरमीत सिंह (सेवानिवृत्त) ने उत्तराखंड अल्पसंख्यक शिक्षा विधेयक 2025 को मंजूरी दे दी है. इसके साथ ही राज्य में मदरसा बोर्ड खत्म होने जा रहा है. अब राज्य के सभी मदरसे नए ‘अल्पसंख्यक शिक्षा प्राधिकरण’ से मान्यता लेंगे और उनके लिए उत्तराखंड स्कूल शिक्षा बोर्ड से जुड़ना अनिवार्य होगा.
मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने इस फैसले को “ऐतिहासिक कदम” बताया है. उनका कहना है कि इससे शिक्षा में समानता और आधुनिकता दोनों आएंगी. यह बिल अगस्त में विधानसभा में जोरदार बहस के बाद पारित हुआ था. इस कानून के तहत सिर्फ मदरसे ही नहीं, बल्कि सिख, जैन, ईसाई, पारसी और बौद्ध संस्थान भी अब इसी शिक्षा ढांचे के दायरे में आएंगे.
अगले साल जुलाई के सत्र से उत्तराखंड के सभी अल्पसंख्यक स्कूलों को नई शिक्षा नीति (NEP 2020) के तहत बने राष्ट्रीय पाठ्यचर्या ढांचे (NCF) का पालन करना होगा. मुख्यमंत्री धामी ने कहा कि इस कदम का मकसद है कि “राज्य का हर बच्चा, चाहे वह किसी भी वर्ग या समुदाय से हो, समान शिक्षा और समान अवसरों के साथ आगे बढ़े.” सभी संस्थानों को जुलाई 2026 तक राज्य शिक्षा बोर्ड से संबद्ध करना होगा, वरना उन्हें बंद किया जा सकता है. इस फैसले के साथ ही उत्तराखंड देश का पहला राज्य बन गया है, जिसने मदरसा बोर्ड को खत्म करके सभी अल्पसंख्यक संस्थानों को सीधे राज्य की शिक्षा प्रणाली से जोड़ दिया है.
मुख्यमंत्री धामी ने यह बिल पास होने के बाद कहा, “अब तक अल्पसंख्यक संस्थानों की मान्यता सिर्फ मुस्लिम समुदाय तक सीमित थी. साथ ही, केंद्रीय छात्रवृत्ति के वितरण और मिड-डे मील में गड़बड़ियां, और मदरसा प्रबंधन में पारदर्शिता की कमी जैसी गंभीर दिक्कतें लंबे समय से सामने आ रही थीं.” उन्होंने बताया कि इस नए कानून के लागू होने के बाद मदरसा शिक्षा बोर्ड अधिनियम और गैर-सरकारी अरबी व फारसी मदरसा मान्यता नियम 1 जुलाई, 2026 से खत्म हो जाएंगे. अब सिख, जैन, ईसाई, बौद्ध और पारसी समुदायों के शैक्षणिक संस्थानों को भी स्पष्ट और पारदर्शी मान्यता मिल सकेगी.
यह बिल उसी सत्र में पारित हुआ, जिसमें दो और विवादित कानूनों को भी मंजूरी मिलीः राज्य के समान नागरिक संहिता (UCC) में संशोधन और धर्मांतरण विरोधी कानून में बदलाव. यूसीसी (संशोधन) विधेयक, 2025 में लिव-इन रिलेशनशिप से जुड़े नियमों को और सख्त किया गया है. अब अगर कोई शादीशुदा व्यक्ति लिव-इन रिलेशन में पाया गया, तो उसे सात साल तक की जेल और जुर्माना हो सकता है.
इसके अलावा, अगर किसी को जबरदस्ती, दबाव या धोखे से लिव-इन रिलेशनशिप में रखा गया, तो भी उसी सजा का प्रावधान है. विवाह पंजीकरण की समय सीमा छह महीने से बढ़ाकर एक साल कर दी गई है. साथ ही, अब रजिस्ट्रार जनरल को यह अधिकार दिया गया है कि वह शादी, तलाक, लिव-इन पार्टनरशिप या उत्तराधिकार से जुड़े किसी भी पंजीकरण को रद्द कर सके.
धर्म मानने की आजादी और अवैध धर्मांतरण निषेध (संशोधन) विधेयक 2025 पहले से भी ज्यादा सख्त बनाया गया है. पहले जबरन धर्मांतरण के मामलों में अधिकतम सजा 10 साल थी, लेकिन अब इसे बढ़ाकर तीन साल से लेकर उम्रकैद तक कर दिया गया है. कांग्रेस पार्टी ने इस बिल का जोरदार विरोध किया. अगस्त में जब इसे विधानसभा से मंजूरी दी गई तो पार्टी कार्यकर्ताओं ने पूरे राज्य में प्रदर्शन किए, BJP सरकार के पुतले फूंके और आरोप लगाया कि गैरसैंण में हुए विधानसभा सत्र में इस पर बिना बहस के कानून पारित कर दिया गया.
कई लोगों के लिए ये सारे कदम इस बात का एक और सबूत हैं कि उत्तराखंड धीरे-धीरे हिंदुत्व राजनीति की प्रयोगशाला बनता जा रहा है. पिछले कुछ सालों में राज्य की पहचान ऐसे “पायलट प्रोजेक्ट्स” से जुड़ गई है, जो BJP की वैचारिक सोच को आगे बढ़ाने का काम करते हैं. अब बने ये नए कानून सरकार को लोगों की निजी जिंदगी में दखल देने के बड़े अधिकार देते हैं. साथ ही, इनसे अल्पसंख्यक समुदायों, खासकर मुसलमानों पर नियंत्रण बढ़ने की आशंका भी जताई जा रही है.
कांग्रेस को ये कानून किसी बड़ी रणनीति का हिस्सा लगते हैं. कुछ महीने पहले ही धामी सरकार ने एक नाम बदलो अभियान चलाया था, जिसमें हरिद्वार, देहरादून, नैनीताल और उदय सिंह नगर के कई शहरों, गांवों और सड़कों के नाम बदले गए. सरकार का कहना था कि ये कदम राज्य की सांस्कृतिक विरासत को वापस लाने के लिए उठाया गया. लेकिन विपक्ष का आरोप है कि यह पूरी कवायद मुस्लिम इतिहास से जुड़े नामों को निशाना बनाकर वोटरों को बांटने की कोशिश है.