उत्तर प्रदेश : चाइनीज मांझा पूरी तरह बैन फिर कैसे ले रहा लोगों की जान!
उत्तर प्रदेश में चाइनीज मांझे से गला कटने की सबसे ताजा घटना 30 सितंबर को अलीगढ़ में दर्ज हुई लेकिन इससे पहले भी लगातार ऐसे मामले सामने आए हैं

30 सितंबर की सुबह अलीगढ़ के 28 वर्षीय सलमान अपने स्कूटर पर दुकान के लिए निकले थे. रोज की तरह वे जमालपुर पुल से गुजर रहे थे. आसमान में पतंगें उड़ रही थीं, बच्चे शोर मचा रहे थे. सलमान ने शायद सोचा भी नहीं होगा कि यह उनका आखिरी सफर होने जा रहा है. जैसे ही वे पुल पर पहुंचे, अचानक एक पतंग कटी. पतंग के साथ लहराता कातिल चीनी मांझा उनकी गर्दन में उलझ गया.
तेज धार ने उनकी गर्दन और उंगलियों को चीर दिया. सलमान स्कूटर समेत सड़क पर गिर पड़े. खून लगातार बहता रहा, और मांझा उनकी गर्दन की नसों को काटते हुए हड्डी तक जा फंसा. राहगीरों और पुलिस ने उन्हें तुरंत जेएन मेडिकल कॉलेज पहुंचाया, लेकिन डॉक्टरों ने मृत घोषित कर दिया. प्रत्यक्षदर्शियों की आंखों में दहशत थी. सलमान का चेहरा खून से सना था और मांझे की धार ने उनकी जिंदगी की डोर बेरहमी से काट दी थी.
सलमान की मौत कोई पहली या आखिरी नहीं. गोरखपुर, मेरठ, बरेली, लखनऊ और वाराणसी तक हर साल कई मासूम जानें इस कातिल मांझे के शिकार हो रही हैं. स्थानीय खबरों में छपी खबरों और पुलिस की तरफ से अनऑफीशियली मिली जानकारी के मुताबिक इस वर्ष यूपी में अबतक दो दर्जन से अधिक ऐसे मामले सामने आए हैं जिनमें चाइनीज मांझे से दुर्घटनाग्रस्त होकर पीडि़त की या तो मौत हो गई या फिर उसे लंबे समय तक आइसीयू में भर्ती रहकर जिंदगी के लिए संघर्ष करना पड़ा है.
ऐसी ही चर्चित घटना गोरखपुर की है. यहां सूरजकुंड के रहने वाले अमित गुप्ता 29 जुलाई को बाइक से मां को लेकर धर्मशाला जा रहे थे. सूरजकुंड पुल पर अचानक चीनी मांझा उनकी गर्दन से लिपटा और चार नसें कट गईं. हेलमेट था, इसलिए मांझा सरककर गर्दन तक पहुंचा, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी. मां चीख-चीखकर मदद मांगती रही, बेटा सड़क पर खून से लथपथ पड़ा रहा. गनीमत रही कि एक कार सवार ने तुरंत अस्पताल पहुंचा दिया और घंटों चले ऑपरेशन के बाद अमित की जान बच पाई.
मेरठ में 28 मार्च को हापुड़ रोड पर शाहजाद नामक स्क्रैप कारोबारी पत्नी और दो बच्चों के साथ बाइक से बेगमपुल जा रहे थे. अचानक मांझा उनकी गर्दन से लिपटा, दो उंगलियां कट गईं, पत्नी और बच्चे घायल हो गए. शाहजाद की गर्दन पर 20 टांके लगे और उन्हें ठीक होने में तीन महीने लगे. उसी शहर में प्रवीण कुमार अपनी पत्नी और बच्चों के साथ बाइक से जा रहे थे. हेलमेट पहनने के बावजूद गर्दन कट गई और उंगलियां लहूलुहान हो गईं. पूरा परिवार सड़क पर घिसटता चला गया. यह सिलसिला रुक नहीं रहा. हर हादसा सवाल छोड़ जाता है कि आखिर प्रतिबंध के बावजूद यह कातिल मांझा बाजार तक पहुंच कैसे रहा है.
प्रतिबंध और कानूनी सख्ती : सिर्फ कागजों पर
वर्ष 2017 में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने चाइनीज मांझे की बिक्री, भंडारण और उपयोग पर रोक लगा दी थी. सुप्रीम कोर्ट ने भी साफ कहा था कि यह मांझा इंसानों और पक्षियों दोनों के लिए घातक है. पर्यावरण संरक्षण अधिनियम की धारा 15 में प्रावधान है कि इस मांझे की बिक्री या उपयोग करने पर पांच साल तक की सजा और एक लाख रुपये तक का जुर्माना हो सकता है.
लेकिन यूपी की सड़कों पर हो रहे हादसे बताते हैं कि कानून किताबों तक सीमित है. लखनऊ के वरिष्ठ वकील शैलेंद्र सिंह चौहान बताते हैं, “असलियत यह है कि पुलिस और प्रशासन की छापेमारियां महज औपचारिकता बनकर रह गई हैं. दुकानों पर दबिश पड़ती है, लेकिन असली माल पहले ही हटा दिया जाता है.” जानकारी के मुताबिक दुकानदार सिर्फ उन्हीं ग्राहकों को मांझा बेचते हैं, जिनसे उनकी सेटिंग रहती है. नए ग्राहक को साफ मना कर देते हैं.
सूत्र बताते हैं कि मांझा बरेली, मेरठ, दिल्ली और लखनऊ जैसे बड़े शहरों से थोक में आता है और रिटेल दुकानदार इसे छुपाकर बेचते हैं. ऑनलाइन प्लेटफॉर्म ने तो इसे और आसान कर दिया है. "मोनो फाइटर", "मोनो प्रीमियम" जैसे नामों से यह धागा खुलेआम बिक रहा है. कार्ड, यूपीआई और कैश ऑन डिलीवरी तक के विकल्प भी मौजूद हैं. उपभोक्ता इसे ऑर्डर करता है और डोर घर तक पहुंच जाती है. यूपी पुलिस और प्रशासन की आंखों के सामने यह ऑनलाइन धंधा जारी है, लेकिन रोकने की कोई ठोस कोशिश नहीं हो रही.
बरेली का उदाहरण और भी चौंकाने वाला है. 8 फरवरी को बांकरगंज इलाके में मांझा बनाते समय धमाका हुआ और तीन लोगों की मौत हो गई. जांच में सामने आया कि मांझा बनाने वाली फैक्ट्री मालिक ने बाकायदा जीएसटी पंजीकरण करा रखा था. वह 50 से ज्यादा ब्रांड के नाम से मांझा तैयार कर सप्लाई कर रहा था. सवाल यह कि जब लाइसेंस, पंजीकरण और कारोबार सब दस्तावेजों में दर्ज है, तो प्रशासन की आंखों से यह कैसे छुपा रहा.
चाइनीज मांझा की बिक्री रोकने और इसके निर्माण पर कड़ी कार्रवाई करने के लिए सरकार बार-बार आदेश जारी करती है. जिला प्रशासन दुकानों पर छापेमारी करता है. लेकिन हकीकत यह है कि न तो बिक्री रुकती है और न ही हादसे. मेरठ के पूर्व सांसद राजेंद्र अग्रवाल ने लोकसभा में यह मुद्दा उठाया था. पक्षियों और इंसानों की जान लेने वाले इस मांझे पर प्रभावी प्रतिबंध की मांग हुई थी. लेकिन स्थानीय स्तर पर कानून लागू करने में पूरी तरह नाकामी दिखती है. एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, “जब तक ऑनलाइन प्लेटफॉर्म से इसे हटाया नहीं जाएगा और सीमाओं पर सख्ती नहीं बढ़ेगी, तब तक यह धंधा चलता रहेगा. त्योहारों के दौरान लोग जानबूझकर इसे खरीदते हैं क्योंकि यह ज्यादा धारदार है और पतंग आसानी से कट जाती है.”
चीन से नहीं आता चाइनीज मांझा
चीनी मांझा दरअसल चीन से नहीं आता. इसे प्लास्टिक मांझा भी कहा जाता है. यह नायलॉन, मेटेलिक पाउडर और कांच के चूरे से तैयार किया जाता है. यही वजह है कि यह बेहद धारदार और मजबूत होता है. सूती धागे की डोर जहां टूट जाती है, वहीं यह प्लास्टिक मांझा खिंचता है और, और भी तेज धार पकड़ लेता है. पतंगबाज इसे इसलिए पसंद करते हैं क्योंकि इससे पतंग आसानी से कटती है. यह सस्ता भी पड़ता है, लेकिन इसका नतीजा इंसानों और परिंदों की मौत बनकर सामने आता है.
लखनऊ और दिल्ली में हर साल हजारों पक्षी इस मांझे में फंसकर मरते हैं. पेड़ों और बिजली के तारों में महीनों तक फंसा रहता है और परिंदों की उड़ान रोक देता है. कई बार रेस्क्यू करने वाले संगठनों को दर्जनों घायल चील और कबूतर मिलते हैं, जिनके पंख कटे होते हैं या गले में मांझा लिपटा होता है. पशु-पक्षी प्रेमियों का कहना है कि सबसे ज्यादा नुकसान कबूतरबाजी और पक्षियों के प्रजनन काल में होता है. नायलॉन और कांच लगे धागे पेड़ों और बिजली के तारों में उलझकर महीनों तक रहते हैं. इनमें फंसकर परिंदे तड़प-तड़प कर मर जाते हैं.
चाइनीज मांझा सिर्फ जानलेवा ही नहीं, बल्कि कानूनी चुनौती भी है. वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक भटनागर कहते हैं, “कानून बहुत सख्त है, लेकिन इसका पालन शून्य है. जब तक जिम्मेदार अधिकारियों को व्यक्तिगत जिम्मेदारी के दायरे में नहीं लाया जाएगा, तब तक मांझे की बिक्री रुकेगी नहीं.” दरअसल प्रशासन की लापरवाही और कारोबारियों की चालाकी ने मिलकर इसे एक संगठित धंधे का रूप दे दिया है.
त्योहारों पर खासकर नागपंचमी, दीपावली और स्वतंत्रता दिवस के आसपास आसमान पतंगों से पट जाता है. लेकिन इन्हीं दिनों अस्पतालों के इमरजेंसी वार्ड खून से भर जाते हैं. लखनऊ निवासी और फिल्म कलाकार राकेश पांडेय कहते हैं, “तो क्या पतंग उड़ाना अब अपराध हो गया है? असल सवाल यही है. परंपरागत सूती मांझा किसी की जान नहीं लेता था. लेकिन आज जब मांझे का रूप बदल गया है तो पतंग उड़ाना सिर्फ शौक नहीं रहा, यह दूसरों की जिंदगी के साथ खिलवाड़ है.”
बेअसर साबित हुए हैं सरकारी प्रयास
वाराणसी में पुलिस ने जनवरी में मकर संक्रांति से पहले बड़ी कार्रवाई की थी. जगतगंज क्षेत्र में छापेमारी कर पुलिस ने करीब सौ किलो चाइनीज मांझा जब्त किया और एक पिता-पुत्र को गिरफ्तार किया. इसी शहर के सिगरा थाना क्षेत्र में हुई दूसरी छापेमारी में पुलिस ने दो गोदामों से डेढ़ सौ क्विंटल से अधिक मांझा बरामद कर पांच लोगों को हिरासत में लिया. शाहजहांपुर में पुलिस ने तीन लोगों को दबोचकर उनके पास से 114 स्पूल बरामद किए. वहीं चंदौली के मुगलसराय में गश्त के दौरान एक आरोपी के पास से दो कट्टों में 130 लच्छी मांझा पकड़ा गया था.
मेरठ पुलिस ने अलग तरह से रणनीति अपनाई. वहां पांच सौ से ज्यादा पुलिस वाहन सड़कों पर उतारे गए और लोगों को लाउडस्पीकर से चेतावनी दी गई कि चाइनीज मांझे का न तो प्रयोग करें और न बिक्री करें. पुलिस ने कुछ दुकानों से जब्ती भी की और कई रोल ज़ब्त किए. ये आंकड़े बताते हैं कि सरकार के आदेशों के बावजूद मांझे की सप्लाई चेन बदस्तूर चल रही है. वाराणसी और मेरठ जैसे बड़े शहरों में एक बार में सैकड़ों किलो या क्विंटल के हिसाब से बरामदगी से साफ है कि धंधा छोटे स्तर पर नहीं बल्कि संगठित ढंग से हो रहा है. कार्रवाई तो हो रही है, लेकिन उसका असर स्थायी नहीं दिखता. जितनी जब्ती होती है, उतनी ही तेजी से नया माल बाजार और ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर पहुंच जाता है.
चायनीज मांझे के पीडि़तों का कहना कि अब जरूरत है कि सरकार दिखावे से आगे बढ़े. ऑनलाइन बिक्री पूरी तरह रोकी जाए. थोक व्यापारियों को चिह्नित कर जेल भेजा जाए. त्योहारों पर बड़े स्तर पर जागरूकता अभियान चलाया जाए. स्कूलों और मोहल्लों में बच्चों को समझाया जाए कि चाइनीज मांझा मजा नहीं, मौत है.. पतंग उड़ाना बचपन की खुशी है, लेकिन यह खुशी किसी की जिंदगी की कीमत पर नहीं होनी चाहिए. आसमान में उड़ती पतंगें तभी सुंदर लगेंगी, जब धरती पर खून से सने चेहरे न हों.