अब शर्मिंदगी की वजह नहीं बनेगी क्षतिग्रस्त आंख; यूपी का केजीएमयू कैसे लौटा रहा लोगों का आत्मविश्वास?
कृत्रिम आंख के निर्माण के लिए समर्पित “ऑक्यूलर प्रोस्थेसिस प्रयोगशाला” शुरू करने वाला उत्तर भारत का पहला चिकित्सा संस्थान बना किंग जार्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय. महज 1000 रुपए में लगेगी कृत्रिम आंख. निजी क्षेत्र में आता है कम से कम 20 हजार रुपए का खर्च

देश के प्रतिष्ठित चिकित्सा संस्थान में से एक उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के किंग जार्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय (केजीएमयू) के नेत्र रोग विभाग में हर महीने 15 से 25 ऐसे मरीज आ रहे हैं जिन्होंने चोट, कैंसर या संक्रमण के कारण अपनी एक आंख खो दी है.
इनमें से ज्यादातर मरीज गरीब परिवारों के है जो बाजार में उपलब्ध महंगी कृत्रिम आंख का उपयोग करने में असमर्थ हैं. नतीजा ये मरीज क्षतिग्रस्त आंख के साथ जीवन जी रहे हैं. ये मरीज दिन रात काला चश्मा लगाए रहते हैं ताकि उनकी क्षतिग्रस्त आंख दूसरों को दिखाई न दे.
लेकिन अब ऐसे मरीजों को अपनी क्षतिग्रस्त आंख को लेकर आत्महीनता का बोझ नहीं ढोना होगा न किसी शर्मिंदगी का सामना करना पड़ेगा. आंख के ऐसे मरीजों के पुनर्वास और भावनात्मक सुधार के उद्देश्य से केजीएमयू उत्तर भारत का पहला सरकारी संस्थान बन गया है, जिसने समर्पित “ऑक्यूलर प्रोस्थेसिस प्रयोगशाला” शुरू की है. यह प्रयोगशाला कस्टम-मेड कृत्रिम आंखें बनाएगी, जो आकार और रंग में मरीज की प्राकृतिक आंख से काफी मिलती-जुलती होंगी, जिससे चेहरे की बनावट में सुधार होगा और आत्मविश्वास बहाल होगा. केजीएमयू की कुलपति प्रो. सोनिया नित्यानंद ने 3 मई को इसका उद्घाटन किया है. यह प्रयोगशाला नेत्र रोग विभाग की प्रमुख प्रो. अपजित कौर की ‘ब्रेन-चाइल्ड’ है जो देश की गिनी चुनी आक्युलो प्लास्टिक सर्जन में से एक हैं.
केजीएमयू के नेत्र रोग विभाग विभाग में हर महीने करीब 15 से 25 ऐसे मरीज आते हैं जिनकी आंख खराब हो चुकी होती हैं और उन्हें नकली आंख लगाई जा सकती है. अभी तक सरकारी अस्पतालों में ऐसी विशेषीकृत सुविधा न होने के चलते बाजार में मिलने वाली बनी-बनाई नकली आंख (शेल्फ आइ या स्टॉक आइ) मरीजों को लगाई जा रही हैं. ये देखने में भद्दी होती हैं और मरीजों को नुकसान भी पहुंचाती हैं. यह रंग और आकार में भी दूसरी सही आंख से तालमेल नहीं खाती है. अयोग्य दंत तकनीशियनों के जरिए निजी क्षेत्र में ऐसी महंगी कृत्रिम आंख लगाने का कार्य जोरों पर चल रहा है. “शेल्फ आइ” आंख की गुहिका या कैविटी के भीतर मौजूद टिश्यू को नुकसान पहुंचाती है. इनकी सतह खुरदरी होती है जिसके घर्षण से आंख की गुहिया या कैविटी में संक्रमण फैल जाता है. इससे निजात दिलाने के लिए मरीज का आपरेशन करना पड़ता है.
निजी क्षेत्र में मरीजों को होने वाले शोषण ने ही केजीएमयू में अनोखी “ऑक्यूलर प्रोस्थेसिस प्रयोगशाला” की स्थापना की नींव तैयार की. केजीएमयू की नेत्र रोग विभाग की प्रमुख प्रो. अपजित कौर बताती हैं, “आंख खराब हो जाने के बाद जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी नकली आंख लगवाना जरूरी होता है क्योंकि देरी होने पर आंख की खाली जगह (कैविटी या गुहिका) पर टिश्यू बढ़ने लगते हैं. इसलिए देरी होने पर भी नकली आंख तो लगाई जा सकती है लेकिन इसका आकार दूसरी सही आंख के जैसा नहीं हो पाता है.”
बच्चों में आंख के क्षतिग्रस्त हो जाने या पूरी तरह से खराब हो जाने की स्थिति में उन्हें काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. इसमें कुछ समय बाद आंख की “कैविटी” सिकुड़कर छोटी हो जाती है और इसका असर चेहरे पर साफ दिखता है. जिधर आंख नहीं है वह पूरा आधा चेहरा छोटा हो जाता है. इसलिए किसी बच्चे की आंख क्षतिग्रस्त होने पर उसे जल्द से जल्द विशेषीकृत नकली आंख लगवानी चाहिए ताकि उसके चेहरे में कोई बदलाव न हो. वहीं व्यस्क में भी जल्दी नकली आंख लगवाने से दोनों आंखों का आकार एक समान रहता है.
किंग जार्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय के नेत्र रोग विभाग में स्थापित उत्तर भारत की पहली “ऑक्युलर प्रोस्थेसिस लैब” में नकली आंख लगवाने आने वाले मरीज की सबसे पहले खराब आंख का सॉकेट (कैविटी या गुहिका) की जांच की जाती है. यह दाएं, बाएं, ऊपर नीचे हर जगह सही आकार में है कि नहीं. कहीं कोई टिश्यू बढ़ा हुआ तो नहीं है. अगर सॉकेट सही है तो नकली आंख लगाने की तैयारी की जाती है. अगर सॉकेट सही नहीं है तो जो कमी है उसके लिए केजीएमयू के नेत्र रोग विभाग में ही मरीज का ऑपरेशन कर दिक्कत दूर की जाती है.
इस तरह का ऑपरेशन “ऑक्युलो प्लास्टी” कहलाता है और इस आपरेशन को करने डॉक्टर को “ऑक्युलो प्लास्टिक सर्जन” कहते हैं. डॉ. अपिजित कौर केजीएमयू की ऑक्युलो प्लास्टिक सर्जन हैं. नकली आंख बनाने वाले टेक्नीशियन को “ऑक्युलरिस्ट” कहते हैं.
प्रो. कौर बताती हैं “नकली आंख बनाने से पहले मरीज की आंख की एक छाप ली जाती है. इसके बाद नकली आंख का एक “वैक्स मॉडल” बनता है. ट्रायल के लिए “वैक्स मॉडल” को मरीज की आंख में लगाया जाता है. यह देखा जाता है कि आंख का यह “वैक्स मॉडल” मरीज में कितना फिट बैठता है. यह छोटा या बड़ा तो नहीं है. पलकें उसमें अटक तो नहीं रही हैं. उसका मूवमेंट कैसा है? ऐसी कई सारी बारीक जांच के बाद मरीज के लिए एक्रेलिक की नकली आंख तैयार की जाती है.”
जब एक्रेलिक की आंख का आकार तैयार हो जाता है तो बनते वक्त ही काली पुतली के लिए “आइरिस बटन” लगाया जाता है. इसके बाद इस नकली आंख में खून की नसें बनाई जाती हैं ताकि यह देखने में हूबहू असली आंख जैसी लगे. इसके बाद नकली आंख को पॉलिश किया जाता है. अगर सही ढंग से इस्तेमाल किया गया तो इस तरह बनी नकली आंख की आयु कम से कम डेढ़ साल होती है. एक निश्चित समयांतराल पर मरीज को नकली आंख की फिटिंग की जांच करवाने केजीएमयू के नेत्ररोग विभाग में आना होता है.
प्रो. अपजित कौर बताती हैं, “केजीएमयू में यह कृत्रिम आंख केवल 1000 रुपए में लगेगी जबकि निजी क्षेत्र में कृत्रिम आंख लगवाने का खर्च कम से कम 20 हजार रुपए आता है और उसमें भी संक्रमण होने की आशंका भी रहती है.” केजीएमयू के नेत्र रोग विभाग में बुधवार और शनिवार को ऑक्युलर प्लास्टिक सर्जन की ओपीडी होती है. नेत्र रोग विभाग की ओल्ड बिल्डिंग में तीसरे तल पर 17 नंबर कमरे में चलने वाली ओपीडी में ही ऑक्युलर प्लास्टिक लैब स्थापित की गई है. मंगलवार और शुक्रवार को नेत्र रोग विभाग की ऑक्युलर प्लास्टिक क्लीनिक में इनडोर मरीज देखे जाते हैं.
नेत्र रोग विभाग के साउथ विंग के कमरा नंबर 103 में ऑक्युलर प्लास्टिक क्लीनिक संचालित होती है. एक नकली आंख को बनाने में कम से कम दो दिन लगते हैं. प्रो. कौर ने बताया कि कृत्रिम आंख पूरी तरह से कॉस्मेटिक होती है और इससे दृष्टि बहाल नहीं हो सकती. केजीएमयू की लैब में बनी एक्रेलिक की कृत्रिम आंख के मरीज की दूसरी आंख से प्राकृतिक रूप से मेल खाने की क्षमता चेहरे की विकृति से जूझ रहे रोगियों के लिए एक बड़ी मानसिक राहत लेकर आई है.