उत्तर प्रदेश : शिक्षा में सुधार के लिए तैनात BSA लगातार विवादों में क्यों हैं?
सीतापुर में BSA पिटाई प्रकरण पर 4 अक्टूबर को सरकार को रिपोर्ट सौंप दी गई है, हालांकि इसके बावजूद यह सवाल अब भी कायम है कि ये अधिकारी एक के बाद एक विवादों में क्यों आते रहते हैं

23 सितंबर की दोपहर सीतापुर के बेसिक शिक्षा अधिकारी (BSA) के दफ्तर में जो कुछ हुआ, उसने न सिर्फ जिले बल्कि पूरे उत्तर प्रदेश के शिक्षा तंत्र को कठघरे में ला खड़ा किया. नदवा प्राथमिक विद्यालय के प्रधानाचार्य ब्रजेंद्र वर्मा किसी शिकायत पर सफाई देने पहुंचे थे. आरोप है कि BSA ने उनसे एक महिला शिक्षिका की हाजिरी लगाने का दबाव बनाया. मना करने पर दोनों के बीच बहस हुई.
प्रधानाचार्य ने गुस्से में अपनी बेल्ट निकाली और BSA की पिटाई कर दी. वीडियो वायरल हुआ तो शिक्षा विभाग से लेकर लखनऊ के सत्ता गलियारों तक हलचल मच गई. BSA की शिकायत पर प्रधानाचार्य को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया, जबकि विवाद में घिरी महिला शिक्षिका को निलंबित कर दिया गया. लेकिन मामला यहीं नहीं थमा.
अगले दिन छात्रों ने अपने प्रधानाचार्य के समर्थन में प्रदर्शन किया. फिर मामला जातिगत रंग में ढल गया. प्रधानाचार्य ब्रजेंद्र वर्मा कुर्मी समुदाय से हैं, जबकि BSA ठाकुर. महमूदाबाद से BJP विधायक आशा मौर्य जहां BSA के पक्ष में दिखीं, वहीं अपना दल (एस) के नेता और योगी सरकार में मंत्री आशीष पटेल शिक्षक के समर्थन में उतर आए. उन्होंने कहा कि “एक ईमानदार शिक्षक को इतना प्रताड़ित किया गया कि उसने अपना आपा खो दिया.” उनके बयान के बाद विवाद ठाकुर बनाम कुर्मी के टकराव में बदल गया. सीतापुर की यह घटना प्रदेश के बेसिक शिक्षा विभाग की कार्यप्रणाली पर गहरे सवाल उठाती है. क्या विभाग की जड़ें इतने गहरे भ्रष्टाचार और पक्षपात में धंसी हैं कि अब शिक्षक और अफसर आमने-सामने खड़े हो गए हैं?
BSA की कुर्सी पर सवाल क्यों उठते हैं?
बेसिक शिक्षा अधिकारी जिले में प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालयों की निगरानी, नियुक्तियां, स्थानांतरण और वित्तीय संचालन के जिम्मेदार होते हैं. लेकिन बीते एक दशक में यह पद “शिक्षा सुधारक” से ज्यादा “प्रशासनिक सौदागर” की छवि में बदल गया है. वाराणसी, अलीगढ़, मेरठ, ललितपुर, गोंडा और कानपुर जैसे जिलों में BSA लगातार भ्रष्टाचार, फर्जी नियुक्ति और घोटालों के आरोपों में फंसे हैं.
वाराणसी में तो मामला सीधा सतर्कता अधिष्ठान तक पहुंच चुका है. यहां के तत्कालीन BSA हरिकेश यादव और चार खंड शिक्षा अधिकारियों समेत 18 लोगों पर 6 जुलाई को केस दर्ज किया गया है. आरोप है कि 2015-16 और 2016-17 के सत्रों में अनुदानित प्रबंधकीय विद्यालयों में प्रधानाध्यापक, सहायक अध्यापक और लिपिक पदों पर फर्जी नियुक्तियां की गईं. जांच में यह पाया गया कि चयन सूची में नाम बदलकर नियुक्ति दी गई और रिकॉर्ड से छेड़छाड़ की गई. शासन ने 2021 में ही जांच के आदेश दिए थे, लेकिन रिपोर्ट सामने आते-आते पांच साल बीत गए. तब तक हरिकेश यादव का तबादला सुल्तानपुर के डायट में हो चुका था.
मेरठ में BSA कार्यालय के खिलाफ एक और गंभीर मामला सामने आया. प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा (ECCE) कार्यक्रम के तहत आंगनबाड़ी केंद्रों में 180 संविदा अध्यापकों की भर्ती के लिए जारी टेंडर में 25 लाख रुपये की हेराफेरी का आरोप लगा. जिलाधिकारी डॉ. वी.के. सिंह ने जांच कराई और रिपोर्ट में साफ लिखा कि BSA कार्यालय ने नियमों को ताक पर रखकर निविदा प्रक्रिया में हेराफेरी की. रिपोर्ट शासन को भेज दी गई है, और अब वहां के BSA की भूमिका पर भी कार्रवाई की तलवार लटक रही है.
अलीगढ़ में मामला और बड़ा है. 18 मार्च को जीपीएफ (सामान्य भविष्य निधि) में लगभग पांच करोड़ रुपये के गबन का मामला दर्ज हुआ. इस घोटाले में 2003 से 2013 तक तैनात रहे 11 BSA, 34 खंड शिक्षा अधिकारी और 10 लेखाधिकारी तक को आरोपी बनाया गया. जांच टप्पल ब्लॉक के सेवानिवृत्त शिक्षक जगदीश प्रसाद की शिकायत पर शुरू हुई थी. रिपोर्ट में खुलासा हुआ कि शिक्षकों के जीपीएफ खाते से बिना अनुमति धन निकाला गया और फर्जी हस्ताक्षर किए गए. डायट प्राचार्य डॉ. इंद्र प्रकाश सिंह सोलंकी और वित्त अधिकारी प्रशांत कुमार ने 2022 में शासन को रिपोर्ट सौंपी. रिपोर्ट में कहा गया कि कुल 4.92 करोड़ रुपये की अनियमितता और गबन की पुष्टि हुई है.
ये तीन उदाहरण बताते हैं कि BSA का दायरा सिर्फ “शिक्षा प्रशासन” तक सीमित नहीं रहा, बल्कि अब यह पद “आर्थिक सौदों” का केंद्र बन चुका है.
मनबढ़ BSA और बेबस विभाग
बेसिक शिक्षा विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी (नाम न छापने की शर्त पर) कहते हैं, “BSA पोस्टिंग अब पूरी तरह राजनीतिक हो चुकी है. सत्ता के करीबी अफसर ही लंबे समय तक टिकते हैं. जो नेता या उच्चाधिकारियों को खुश नहीं रख पाता, उसकी पोस्टिंग बदल जाती है या फाइल अटक जाती है.” विभागीय दबाव और स्थानीय राजनीति के बीच BSA अक्सर ‘मैनेजर’ की भूमिका में आ जाते हैं. कई BSA खुद स्वीकार करते हैं कि सिस्टम उन्हें ईमानदार नहीं रहने देता. अमेठी के एक पूर्व BSA कहते हैं, “हर महीने शासन से इतने निर्देश आते हैं कि स्कूल निरीक्षण का समय ही नहीं मिलता. आंकड़े दिखाने की दौड़ में सब कुछ ‘पेपर पर सही’ दिखाना मजबूरी बन गई है.”
उत्तर प्रदेशीय प्राथमिक शिक्षक संघ के एक पदाधिकारी का कहना है, “BSA अब शिक्षकों के लिए डर का पर्याय बन गए हैं. शिकायत करो तो सस्पेंशन तय है. न करो तो फाइलें अटक जाती हैं. यह पूरा सिस्टम ‘सिस्टमेटिक डर’ पर चलता है.” कानपुर देहात, गोंडा, बलिया, बहराइच और बस्ती में बीते दो सालों में 30 से ज्यादा ऐसे मामले सामने आए हैं जहां BSA पर शिक्षकों से पैसे लेकर ट्रांसफर कराने, या नियुक्ति में पक्षपात करने के आरोप लगे. लेकिन विभागीय जांचों का नतीजा कभी सार्वजनिक नहीं हुआ.
सीतापुर के मामले में भी कुछ ऐसा ही होने की आशंका शिक्षक लगा रहे हैं जिसकी जांच रिपोर्ट 4 अक्टूबर को शासन पहुंच चुकी है. पूर्वांचल के एक शिक्षक नेता अनिल कुमार कहते हैं, “जब तक विभागीय जांचें खुद BSA या उनके ही मातहत अफसरों से कराई जाती हैं, तब तक सच्चाई सामने नहीं आएगी. शिक्षा निदेशालय को स्वतंत्र निगरानी तंत्र बनाना होगा.”
राजनीतिक संरक्षण की परतें
राजनीतिक विश्लेषक और लखनऊ विश्वविद्यालय में शिक्षक अमित राय कहते हैं, “BSA की नियुक्ति और तबादले स्थानीय सत्ता समीकरणों से सीधे प्रभावित होते हैं. जिस जिले में जिस पार्टी का विधायक या मंत्री ताकतवर होता है, वहां BSA उसी की पसंद का होता है.” सीतापुर की घटना इसका ताजा उदाहरण है. एक तरफ BJP विधायक आशा मौर्य BSA के पक्ष में दिखीं, तो दूसरी ओर अपना दल (एस) के मंत्री आशीष पटेल प्रधानाचार्य के समर्थन में उतर आए. यह सिर्फ दो नेताओं की स्थिति नहीं, बल्कि यह बताता है कि शिक्षा विभाग अब राजनीति का मैदान बन गया है.
असल में बेसिक शिक्षा निदेशालय की जवाबदेही बेहद कमजोर है. हर जिले में BSA को कामकाज की मासिक रिपोर्ट भेजनी होती है, लेकिन इन रिपोर्टों का न तो ऑडिट होता है और न ही स्वतंत्र सत्यापन. नतीजतन, वही BSA जो भ्रष्टाचार में घिरे हैं, वही अपनी “सफलता रिपोर्ट” खुद लिखते हैं. अमित राय कहते हैं, “BSA को शैक्षणिक सुधार का चेहरा होना चाहिए, लेकिन वे प्रशासनिक क्लर्क बन गए हैं. विभाग ने उन्हें इतना बोझिल बना दिया है कि अब वे ‘शिक्षा प्रबंधन’ से ज्यादा ‘फाइल प्रबंधन’ कर रहे हैं.”
राज्य के बेसिक शिक्षा मंत्री संदीप सिंह ने सीतापुर विवाद और अन्य मामलों पर कहा, “सरकार किसी का पक्ष नहीं लेगी. दोषी चाहे अधिकारी हो या शिक्षक, कार्रवाई तय है. विभागीय जांचों को तेज करने और निगरानी प्रणाली मजबूत करने के निर्देश दिए गए हैं.” शासन स्तर पर अब BSA की कार्यशैली का मासिक मूल्यांकन शुरू करने की तैयारी है. इसमें भ्रष्टाचार, शिकायतों के निस्तारण और स्कूल निरीक्षण की संख्या को मापदंड बनाया जाएगा. लेकिन विभागीय सूत्रों का कहना है कि “अगर BSA की नियुक्ति प्रक्रिया में राजनीतिक दखल खत्म नहीं हुआ, तो किसी भी सुधार का असर टिकेगा नहीं.”
सीतापुर के मामले ने यह भी दिखा दिया कि शिक्षा विभाग की नौकरशाही अब जातीय समीकरणों से अछूती नहीं रही. BSA ठाकुर, प्रधानाचार्य कुर्मी, विधायक ठाकुर, मंत्री कुर्मी, यह टकराव अब सिर्फ प्रशासनिक नहीं, बल्कि प्रतिनिधित्व की राजनीति बन गया है. यूपी में लगभग 1.6 लाख प्राथमिक स्कूल हैं और इनमें करीब 7 लाख शिक्षक कार्यरत हैं. लेकिन विभागीय विवादों और भ्रष्टाचार के कारण शिक्षण की गुणवत्ता पर बुरा असर पड़ा है. सीतापुर का वीडियो शायद BSA की पिटाई दिखा गया, लेकिन असल में यह पूरे सिस्टम की पिटाई है. एक ऐसे सिस्टम की, जो शिक्षा देने के बजाय खुद सिखाए जाने लायक हो गया है.