सुल्तानपुर लोकसभा सीट : किस के सिर पर सजेगा ताज?
पूर्व केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी लगातार दूसरी बार सुल्तानपुर लोकसभा सीट से भाजपा उम्मीदवार. सपा और बसपा ने जातिगत समीकरणों को देखते हुए उतारे नए चेहरे

गोमती नदी के तट पर बसा सुल्तानपुर जिला अयोध्या और प्रयागराज के बीच पड़ता है. इस नदी के तट पर धो-पाप धाम के बारे में मान्यता है कि लंका विजय से लौटते हुए हिंदुओं के आराध्य भगवान राम ने यहां स्नान किया था और रावण वध के पाप से मुक्त हुए थे.
1951-52 के पहले आम चुनाव में सुल्तानपुर सीट का नाम था, सुल्तानपुर जिला उत्तर के साथ फैजाबाद जिला दक्षिण पश्चिम. अमेठी सीट पहले चुनाव में सुल्तानपुर (दक्षिण) और 1957 के दूसरे चुनाव में मुसाफिरखाना संसदीय क्षेत्र कहलाई.
कांग्रेस ने इन दोनों ही चुनावों में दोनों सीटों पर बाहरी उम्मीदवार उतारे और दोनों बार कामयाबी मिली. इससे स्थानीय कांग्रेस नेताओं में गहरी नाराजगी थी. इसके चलते जब वर्ष 1961 में सुल्तानपुर सीट से सांसद रहे गोविंद मालवीय की मृत्यु के बाद उपचुनाव हुआ तो शहर के प्रतिष्ठित अधिवक्ता और कांग्रेस नेता गणपत सहाय निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में कांग्रेस उम्मीदवार के सामने उतरे और कड़े मुकाबले में जीत हासिल की.
इस झटके ने कांग्रेस की रणनीति बदल दी. इसके बाद कांग्रेस स्थानीय उम्मीदवारों पर दांव लगाने लगी, जिन्हें सफलता भी मिलती रही. दौर बदला और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का दौर आया तो बसपा ने भी यहां से स्थानीय उम्मीदवार ही उतारे. इनमें से जयभद्र सिंह और मोहम्मद ताहिर को सफलता भी मिली. लेकिन भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की ओर से केवल बाहरी प्रत्याशी ही इस सीट पर कामयाब रहे. सुल्तानपुर सीट पर अब तक तीन उपचुनाव समेत कुल 20 चुनाव हुए हैं जिनमें आठ बार बाहरी प्रत्याशी जीते हैं. इस सीट पर भाजपा को जीत तभी मिली जब उसने बाहरी प्रत्याशियों पर भरोसा जताया.
इतना ही नहीं, सुल्तानपुर सीट पर मतदाताओं और दलों की पसंद हमेशा बदलती रही है. यहां पर ज्यादातर दलों ने अपने प्रत्याशी दोबारा नहीं उतारे या फिर जिन्हें दोबारा उतारा भी तो जनता ने उन्हें नकार दिया. आजादी के बाद से वर्ष 1952 से 2019 तक दो ही बार ऐसे मौके आए हैं जब सुल्तानपुर की जनता ने दोबारा एक ही शख्स को अपना सांसद चुना. 1970 में हुए उपचुनाव में पहली बार यहां से केदारनाथ सिंह कांग्रेस के टिकट पर सांसद चुने गए. 1971 के आम चुनावों में पार्टी ने उन्हें दोबारा मौका दिया और उन्होंने फिर से जीत हासिल की.
हालांकि 1977 में जनता लहर में उन्हें हार का सामना करना पड़ा. इसके बाद 1996 में भाजपा से यहां अयोध्या के पूर्व वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक डीबी राय चुनाव लड़े और जीते. 1998 में पार्टी ने उन्हें दोबारा चुनावी मैदान में उतारा और वे फिर जीते. इसके बाद पार्टी ने उन्हें टिकट ही नहीं दिया. पिछले दो चुनावों से सुल्तानपुर सीट भाजपा के कब्जे में है. 2014 में यहां से युवा नेता वरुण गांधी ने जीत हासिल की थी तो 2019 में भाजपा ने वरुण गांधी को पीलीभीत से उतारा और उनकी मां मेनका गांधी को सुल्तानपुर से चुनाव लड़ाया.
2024 के लोकसभा चुनाव में लगातार दूसरी बार भाजपा के टिकट पर सुल्तानपुर लोकसभा सीट से चुनाव लड़ रहीं वर्तमान सांसद मेनका गांधी के सामने डीबी राय के रिकार्ड की बराबरी करने की चुनौती है. हालांकि मेनका ने 2019 का लोकसभा चुनाव बेहद कांटे के मुकाबले में बसपा उम्मीदवार चंद्रभद्र सिंह से करीब 14 हजार वोटों से जीता था. इस तरह मेनका सुल्तानपुर सीट का प्रतिनिधित्व करने वाली पहली महिला सांसद भी बनी थीं.
इससे पहले सुल्तानपुर सीट से जितनी भी महिला उम्मीदवारों ने भाग्य आजमाया था, उन सभी को निराशा ही हाथ लगी थी. 1998 में हुए लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी (सपा) ने पूर्व मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा की बेटी रीता बहुगुणा जोशी को इस सीट से टिकट दिया था. दो लाख पांच हजार वोट पाने के बाद भी वह चुनाव हार गई थीं. 1999 में कांग्रेस ने गांधी परिवार से जुड़ी दीपा कौल को चुनाव लड़ाया था जो महज 82385 वोटों तक ही सिमट गई थीं.
2004 के चुनाव में भाजपा ने डॉ. वीणा पांडेय को मौका दिया था, वे भी 91328 मत पाकर चौथे स्थान पर रहीं थीं. इसी तरह 2014 में कांग्रेस ने अमिता सिंह को चुनाव लड़ाया, लेकिन वे भी जमानत बचाने में नाकाम रहीं. उन्हें भी महज 41983 वोट मिले थे. ऐसे में इस सीट पर एक बार ही आधी आबादी से किसी को प्रतिनिधित्व करने का मौका मिला. ऐसा तब है जबकि यहां महिला मतदाताओं की संख्या आठ लाख से अधिक है और वे निर्णायक साबित होती हैं. इस बार मेनका महिला मतदाताओं में मोदी सरकार की योजनाओं के जरिए इनका भरपूर समर्थन पाने की आस में हैं.
सुल्तानपुर सीट के तहत सुल्तानपुर, जयसिंहपुर सदर, लम्भुआ, कादीपुर और इसौली विधानसभा सीटें आती हैं. इस लोकसभा क्षेत्र में आने वाली पांच में से चार विधानसभा सीटों पर भाजपा का कब्जा है. इसी तरह जिला पंचायत अध्यक्ष और नगर पालिका परिषद् सुल्तानपुर के चेयरमैन पद पर भी भाजपा काबिज है. जिले की एकमात्र इसौली सीट पर सपा के मो. ताहिर खान विधायक हैं. सुल्तानपुर से विनोद सिंह, जयसिंहपुर सदर से राज प्रसाद उपाध्याय, लम्भुआ से सीताराम वर्मा और कादीपुर सुरक्षित से राजेश गौतम भाजपा के विधायक हैं तो शैलेंद्र प्रताप सिंह भाजपा के विधान परिषद् सदस्य हैं.
सुल्तानपुर में एक निजी कॉलेज के प्रवक्ता संजय द्विवेदी बताते हैं, "मेनका गांधी के साथ सीधे तौर पर कोई जातीय समीकरण तो नहीं होता है लेकिन अपने इन पांच विधायकों के जरिए भाजपा क्षत्रिय, ब्राह्मण, कुर्मी और दलित जाति को सीधा संदेश देने की कोशिश कर रही है. अब यह संदेश वोटरों तक कितना पहुंचता है, यह देखने वाली बात होगी."
हालांकि मेनका को इसौली और सुल्तानपुर विधानसभा सीट पर कड़ी मशक्कत करनी पड़ रही है. 2014 के लोकसभा चुनाव में मेनका के बेटे वरुण गांधी सुल्तानपुर लोकसभा सीट से चुनाव लड़े थे तो इसौली के चंद्रभद्र सिंह सोनू और यशभद्र इनके समर्थन में थे. लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में परिदृश्य बदल गया. मेनका मैदान में उतरीं तो उनके सामने सपा-बसपा गठबंधन से प्रत्याशी के रूप में चंद्रभद्र सिंह सोनू उतर पड़े.
ऐसे में जब मतदान हुआ तो भद्र परिवार के वर्चस्व वाले क्षेत्र इसौली में मेनका को 79382 और सोनू को 84933 वोट मिले. यहां से करीब साढ़े पांच हजार वोटों से पिछड़ने वाली मेनका को सुल्तानपुर विधानसभा क्षेत्र में भी झटका लगा. यहां से उन्हें 87848 और सोनू सिंह को 100411 वोट मिले थे. लम्भुआ विधानसभा क्षेत्र ने भी उनका ज्यादा साथ नहीं दिया और उन्हें करीब एक हजार मतों की ही बढ़त मिली. गनीमत रही कि कादीपुर और सदर विधानसभा क्षेत्र ने खुलकर मेनका गांधी का साथ दिया, जिसके चलते उन्हें यहां से करीब 32 हजार वोट ज्यादा मिले. इस बढ़त ने न केवल इसौली और सुल्तानपुर सीट पर हार के अंतर को पाटा बल्कि उन्हें 13,859 वोटों से जीत भी दिला दी.
सुल्तानपुर के वरिष्ठ वकील अभिषेक राय बताते हैं, "पिछले चुनाव में रनर-अप रहे चंद्रभद्र सिंह सोनू और उनके भाई यशभद्र सिंह मोनू एक आपराधिक मामले में सजायाफ्ता होने के कारण चुनाव से दूर हैं लेकिन अपने इलाके में उनकी सियासी पकड़ अभी भी बनी हुई है. मेनका गांधी और भद्र परिवार के बीच सियासी दूरियां पाटने के लिए भाजपा ने अपने क्षत्रिय नेताओं को खासतौर पर सुल्तानपुर में सक्रिय किया है. मेनका गांधी की जीत बहुत कुछ ठाकुर मतदाताओं के समर्थन पर भी निर्भर करेगी."
वहीं दूसरी ओर यूपी की मुख्य विपक्षी पार्टी सपा 1992 में अपनी स्थापना से अब तक सुल्तानपुर लोकसभा सीट पर जीत के लिए तरस रही है. सपा ने हर चुनाव में चेहरे बदलने के साथ-साथ जातिगत समीकरण साधने के ज्यादा से ज्यादा प्रयोग कर ठाकुर, ब्राह्मण, मुस्लिम और पिछड़ी जाति का उम्मीदवार दिया लेकिन सफलता हाथ न लगी. अबकी बार सपा ने पहले आंबेडकर नगर के भीम निषाद को लड़ाने की घोषणा की. इनके नाम पर कुछ नेताओं ने मोर्चा खोल दिया था. इस बीच भीम निषाद का पैसा बांटते तसवीर वायरल हुई तो पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव को अपना फैसला बदला पड़ा.
बाद में गोरखपुर निवासी पूर्व मंत्री राम भुआल निषाद को प्रत्याशी घोषित किया गया. वे गोरखपुर ग्रामीण विधानसभा से विधायक बनने के पूर्व कौड़ीराम विधानसभा सीट से दो बार विधायक रहे हैं. वे 2007 में बनी बसपा सरकार में मत्स्य राज्य मंत्री भी रह चुके हैं. राम भुआल का गोरखपुर और आसपास अपनी बिरादरी में खासा असर माना जाता है. 2012 के विधानसभा चुनाव में वे भाजपा से गोरखपुर ग्रामीण सीट से टिकट की मांग कर रहे थे, मगर उनकी जगह विपिन सिंह को प्रत्याशी बना दिया गया था.
वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में राम भुआल निषाद ने भाजपा उम्मीदवार योगी आदित्यनाथ के खिलाफ चुनाव लड़ा था और 176277 वोट पाकर तीसरे स्थान पर रहे. अभिषेक राय बताते हैं, "सुल्तानपुर में जिस तरह सपा के टिकट को लेकर अंतर्कलह मची उससे पार्टी को चुनाव में नुकसान हो सकता है. अभी तक सपा नेतृत्व इसपर गंभीरता से लगाम नहीं लगा सका है."
2019 के लोकसभा चुनाव में सुल्तानपुर सीट पर रनर-अप रही बसपा ने इस बार ऐसे शख्स को मैदान में उतारा है जिसने लोकसभा तो दूर, विधानसभा तक का चुनाव नहीं लड़ा है. बसपा प्रत्याशी उदराज वर्मा बेहद युवा हैं और उन्होंने अब तक केवल जिला पंचायत सदस्य का ही चुनाव लड़ा है. अभिषेक राय के मुताबिक सुल्तानपुर लोकसभा सीट पर भाजपा उम्मीदवार मेनका गांधी के अनुभव के लिहाज से यह मुकाबला हल्का भले लग रहा हो, किंतु जातीय समीकरण देखें तो मुकाबला रोचक होगा. अभिषक बताते हैं, "सुल्तानपुर लोकसभा सीट पर बसपा ने जहां एक लाख से अधिक मतदाता संख्या वाले कुर्मी समाज को टारगेट किया है और उसके बाद वह करीब साढ़े तीन लाख दलित मतों के सहारे मुसलमानों को जोड़कर चुनाव जीतने की जुगत में है. वहीं समाजवादी पार्टी भी दो लाख से अधिक निषाद मतों के अलावा अन्य पिछड़ा वर्ग, यादव मत और मुस्लिम मतों के सहारे जीत का तानाबाना बुन रही है."
सुल्तानपुर सीट पर राष्ट्रवाद, शासन-सुरक्षा, राशन और राम मंदिर का मुद्दा भी गूंज रहा है तो बेरोजगारी, संविधान में बदलाव और पेपर लीक जैसे मुद्दे भी लोगों की जुबान पर हैं. भाजपा का प्रचार अभियान जहां घर-घर पहुंच चुका है वहीं विपक्ष को अंतर्कलह से भी जूझना पड़ रहा है. मुस्लिम, पिछड़ों और निषादों की गोलबंदी इस बार सपा के लिए फायदेमंद हो सकती है जबकि भाजपा के सामने विपक्षी दलों का जातिगत गठजोड़ तोड़ने की चुनौती है. इन्हीं के सहारे सुल्तानपुर का सुल्तान बनने की जंग लड़ी जा रही है.