क्या ओम प्रकाश राजभर BJP की दुखती रग बन गए हैं?
बिहार चुनाव के बहाने सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर ने फिर शुरू की “प्रेशर पॉलिटिक्स”, यूपी में BJP को नए सिरे से संतुलन साधने की चुनौती

बिहार के चुनावी माहौल में एक बयान ने BJP की रणनीति को असहज कर दिया है. 13 अक्टूबर को उत्तर प्रदेश की सहयोगी पार्टी, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) ने घोषणा की कि वह बिहार चुनाव लड़ेगी और “BJP व उसके सहयोगियों को नुकसान पहुंचाएगी.” यह बयान देने वाले हैं- ओम प्रकाश राजभर, जो फिलहाल उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार में मंत्री हैं.
सत्ता का हिस्सा होते हुए भी राजभर का यह एलान एनडीए के भीतर हलचल मचा गया. सुभासपा महासचिव अरुण राजभर ने कहा, “हम सभी शीर्ष BJP नेताओं से मिले थे, उन्होंने हमें आश्वासन दिया था कि सीटें मिलेंगी. लेकिन अब अगर किसी को जीत का अहंकार है, तो हम दिखाएंगे कि जनता कैसे फैसला करती है. हम ईबीसी (अति पिछड़ा वर्ग) और दलित वोटों को एकजुट करेंगे और BJP-JDU को नुकसान पहुंचाएंगे.” यह बयान महज भावनात्मक प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि एक सोची-समझी रणनीति है- BJP पर दबाव बढ़ाने की राजनीति.
राजभर की पार्टी ने बिहार में पिछले एक साल में 50 से ज्यादा रैलियां की हैं. बक्सर, सासाराम, सीवान, गया और औरंगाबाद जैसे जिलों में सुभासपा लगातार अपने संगठन को मजबूत कर रही है. पार्टी का दावा है कि राजभर, रजवार, राजवंशी और राजघोष जैसे कुछ ओबीसी समूहों में उसका असर है और ये समूह बिहार की आबादी का लगभग 4.2 फीसदी हैं. BJP के एक बिहार नेता नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, “सुभासपा की सीट जीतने की संभावना भले सीमित हो, लेकिन उसके वोट काटने की क्षमता असली खतरा है. वर्ष 2020 के चुनाव में भी असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम और बीएसपी के साथ मिलकर उसने तीन-चार सीटों पर BJP-JDU उम्मीदवारों को नुकसान पहुंचाया था.” राजभर इस बार खुद को “ओबीसी और महादलितों के मुद्दों के असली प्रतिनिधि” के रूप में पेश कर रहे हैं. उनका कहना है कि BJP का “ओबीसी एजेंडा” केवल कागज पर है, ज़मीनी स्तर पर वह उन्हीं कुछ जातियों तक सीमित है जो पहले से सत्ता के करीब हैं.
दिल्ली की बैठकों में ठंडी प्रतिक्रिया
दिल्ली में पिछले दो महीनों के दौरान ओम प्रकाश राजभर की कई बैठकों की चर्चा रही. वे BJP के राष्ट्रीय संगठन महामंत्री बी.एल. संतोष, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और BJP अध्यक्ष जे.पी. नड्डा से भी मिले. पार्टी सूत्रों के मुताबिक, सुभासपा ने बिहार में पहले 29 सीटों की मांग की थी, बाद में इसे घटाकर पांच कर दिया लेकिन BJP की ओर से स्पष्ट सहमति नहीं मिली. एक वरिष्ठ BJP पदाधिकारी ने ‘इंडिया टुडे’ से कहा, “राजभर हर राज्य में अपनी राजनीतिक जगह तलाश रहे हैं. लेकिन बिहार में BJP पहले से ही JDU और LJP के साथ गठबंधन तालमेल में उलझी है. ऐसे में उन्हें सीटें देना संभव नहीं था.” यह वही क्षण था जब राजभर ने दिल्ली से लौटते ही बयान दिया “अब BJP और उसके सहयोगियों को दिखा देंगे कि बिना सुभासपा के क्या होता है.”
‘सामाजिक न्याय समिति’ का हथियार
बिहार में लड़ाई की घोषणा से पहले ही ओम प्रकाश राजभर ने उत्तर प्रदेश की राजनीति में नया मोर्चा खोल दिया था. उन्होंने एनडीए सहयोगी होते हुए भी BJP से सामाजिक न्याय समिति की 27 फीसदी ओबीसी आरक्षण को तीन वर्गों में विभाजित करने की सिफारिशें लागू करने की मांग की. उन्होंने यह मांग सिर्फ BJP से नहीं, बल्कि कांग्रेस, सपा, बीएसपी और राजद तक को पत्र लिखकर रखी.
राजभर ने कहा था, “अगर 15 दिन में जवाब नहीं मिला तो हम पूरे राज्य में आंदोलन करेंगे और जनता को बताएंगे कि कौन-सी पार्टी सच में अति पिछड़ों के साथ है और कौन सिर्फ राजनीति कर रही है.”
राजनीतिक विश्लेषक और लखनऊ में जय नारायण डिग्री कालेज में राजनीति शास्त्र विभाग के प्रमुख ब्रजेश मिश्र कहते हैं, “राजभर समझते हैं कि BJP की सबसे बड़ी मजबूती अब अति पिछड़े वर्ग का वोट है. अगर वे इस वर्ग में असंतोष का भाव पैदा कर दें तो BJP को सीधा नुकसान होगा. इसलिए उनकी हर मांग दरअसल राजनीतिक मोलभाव का हिस्सा होती है.” ओम प्रकाश राजभर का यह बयान इसलिए भी अहम है क्योंकि उन्होंने BJP अध्यक्ष जे.पी. नड्डा को लिखे पत्र में 2001 की हुकुम सिंह समिति की रिपोर्ट का हवाला दिया. उन्होंने कहा कि BJP सरकार ने ही यह समिति बनाई थी, लेकिन बाद की सरकारों ने इसे लागू नहीं किया. अब वे चाहते हैं कि BJP इसे लागू करके “पिछड़ों के वास्तविक हितैषी” के रूप में खुद को साबित करे.
विरोध में भी सत्ता की सुगंध
ओम प्रकाश राजभर का राजनीतिक सफर सत्ता और संघर्ष के बीच झूलता रहा है. वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी ने BJP के साथ गठबंधन किया और आठ सीटों पर लड़ी, जिनमें चार पर जीत हासिल की. सरकार बनी तो राजभर को पिछड़ा वर्ग कल्याण मंत्री बनाया गया, लेकिन जल्द ही वे सरकार की आलोचना करने लगे. 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान उन्होंने BJP से गठबंधन तोड़ लिया और 39 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे, हालांकि सभी हार गए. राजभर का दावा था कि उन्होंने खुद इस्तीफा दिया था, जबकि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने उन्हें बर्खास्त कर दिया था.
हालांकि 2019 में सभी सीटें हारने के बाद भी सुभासपा ने कई इलाकों में BJP उम्मीदवारों की हार में भूमिका निभाई थी. वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने सपा से गठबंधन किया, 16 सीटों पर लड़े और 6 सीटें जीतीं. फिर 2023 में वे वापस BJP में आ गए. योगी सरकार ने उन्हें अल्पसंख्यक कल्याण और पंचायती राज जैसे अहम विभाग दिए. लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव में एनडीए के साथ मिलकर भी उनकी पार्टी जीत नहीं सकी.
अब, 2025 में वही राजभर BJP के लिए एक बार फिर चुनौती बन गए हैं. राजनीतिक विश्लेषक ब्रजेश मिश्र का कहना है, “राजभर जानते हैं कि उनके पास वोटों का बड़ा आधार नहीं है, लेकिन उनका जातिगत प्रभाव निर्णायक इलाकों में असर डाल सकता है. वे हर चुनाव से पहले एक मुद्दा उठाते हैं, विवाद पैदा करते हैं और फिर उसी के जरिए अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता बनाए रखते हैं.”
राजभर की राजनीति का यही पैटर्न है. सत्ता में रहते हुए भी वे विरोध का माहौल बनाते हैं ताकि जनता में उनकी छवि “संघर्षशील नेता” की बनी रहे. BJP के लिए यह एक मुश्किल स्थिति है, राजभर को पूरी तरह छोड़ना भी जोखिम है और ज्यादा तवज्जो देना भी. एक BJP नेता कहते हैं, “राजभर BJP के भीतर विपक्ष की भूमिका निभाते हैं. वे हर बैठक में आरक्षण, अति पिछड़ा और दलित अधिकारों की बात उठाते हैं. कभी-कभी उनके बयान हमारे लिए नुकसानदेह होते हैं, लेकिन उन्हें नजरअंदाज करना भी संभव नहीं.” राजभर की सियासत की जड़ें पूर्वांचल में हैं. गाजीपुर, मऊ, बलिया, आजमगढ़ और वाराणसी के आसपास के जिलों में राजभर समुदाय की आबादी 3 से 4 फीसदी है.
साझेदारी, असहमति, अलगाव, फिर वापसी
राजभर की ‘सामाजिक न्याय समिति’ की मांग ने यूपी में BJP के दूसरे सहयोगी निषाद पार्टी को भी असहज कर दिया है. निषाद पार्टी प्रमुख संजय निषाद लगातार यह मांग कर रहे हैं कि कुछ अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति (एससी) सूची में शामिल किया जाए. दोनों नेताओं की यह समान मांग एनडीए के भीतर जातीय प्रतिनिधित्व के संघर्ष को उजागर करती है. एक वरिष्ठ BJP नेता के मुताबिक मुताबिक, “योगी सरकार इन दोनों सहयोगियों को साधने में लगी है. लेकिन दोनों का एजेंडा अलग-अलग है और कभी-कभी टकराव की स्थिति पैदा कर देता है. राजभर आरक्षण के भीतर आरक्षण चाहते हैं, जबकि निषाद समुदाय एससी लिस्टिंग की मांग कर रहा है.”
BJP नेतृत्व के सामने दुविधा यह है कि राजभर को कितनी जगह दी जाए. वे गठबंधन में बने रहें तो बयानबाजी से असहजता होती है, और अगर अलग हों तो चुनावी नुकसान की आशंका. एक BJP रणनीतिकार ने कहा, “BJP को 2027 के विधानसभा चुनाव से पहले एनडीए को स्थिर रखना है. छोटे सहयोगियों के पास वोट ज्यादा नहीं, लेकिन वे संदेश बड़ा देते हैं. राजभर जैसे नेता विपक्षी गठबंधन को भी संकेत देते हैं कि BJP के भीतर सब ठीक नहीं.”
दरअसल, BJP जानती है कि राजभर को नाराज करने का मतलब अति पिछड़ों के बीच गलत संदेश जाना है. यही कारण है कि उनकी बयानबाजी के बावजूद अभी तक BJP नेतृत्व ने उन्हें सार्वजनिक रूप से न तो फटकारा है और न ही अलग किया है. राजभर की राजनीति बार-बार एक ही चक्र में घूमती है—साझेदारी, असहमति, अलगाव, फिर वापसी. लेकिन हर बार वे अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता को और मजबूत करने की पूरी कोशिश करते हैं. अब वे बिहार में उतरकर यह संकेत दे रहे हैं कि वे केवल उत्तर प्रदेश के नेता नहीं, बल्कि “पूर्वी भारत के अति पिछड़ों की आवाज” बनने की कोशिश में हैं. यूपी में वर्ष 2026 के पंचायत चुनाव और 2027 के विधानसभा चुनाव से पहले, ओम प्रकाश राजभर फिर वही भूमिका निभा रहे हैं जो वे सबसे बेहतर निभाते हैं, सत्ता में रहकर भी सत्ता पर दबाव बनाना.