जिन्ना का विरोध करने वाले मुंगेर के उस ख़ानक़ाह की कहानी जहां महात्मा गांधी से लेकर राहुल गांधी तक पहुंचे!
ख़ानक़ाह यानी सूफी इस्लामिक सेंटर, बिहार में अपनी वोटर अधिकार यात्रा के दौरान राहुल गांधी मुंगेर के ख़ानक़ाह रहमानी पहुंचे थे. यह सेंटर देश की आजादी की लड़ाई से लेकर शिक्षा और समाज सुधार जैसे मामलों में बढ़चढ़कर हिस्सा लेता रहा है

बिहार में चल रही 'वोटर अधिकार यात्रा' के दौरान मुंगेर में राहुल गांधी का खानकाह रहमानी जाना और वहां के सज्जादानशीं (एक तरह से किसी संस्थान या संगठन का प्रमुख) अहमद वली फैसल रहमानी से मिलना इन दिनों सोशल मीडिया पर चर्चा का विषय बना हुआ है. उनके समर्थक, खासतौर पर मुसलमान इस पूरे मेल-मिलाप को गांधी परिवार की परंपरा की तरह देख रहे हैं क्योंकि 1985 में राजीव गांधी भी खानकाह रहमानी आए थे और तब के सज्जादानशीं मिन्नतुल रहमानी से मिले थे.
दूसरी तरफ कांग्रेस विरोधी राहुल गांधी के इस कदम को उनकी तुष्टीकरण की नीति का उदाहरण बताकर उनकी तीखी आलोचना कर रहे हैं. इन चर्चाओं के बीच यह जानना दिलचस्प होगा कि मुंगेर में पिछले 125 साल से चले रहे इस खानकाह (सूफी संतों के रहने की जगह और इस्लामिक अध्ययन का केंद्र) की पहचान सिर्फ एक धार्मिक संगठन के तौर पर नहीं है.
यहां के लोगों ने आजादी की लड़ाई में भी बड़ी भूमिका निभाई है और जेल भी गए. महात्मा गांधी के विचारों से प्रभावित इस खानकाह के पहले के सज्जादानशीं जिन्ना के दो-राष्ट्र सिद्धांत के विरोधी थे. इन्होंने इमारत-ए-शरीया जैसे संगठन और मुस्लिम इंडिपेंटेंड पार्टी के गठन में भी भूमिका निभाई थी. इस खानकाह के प्रगतिशील विचारों का सिलसिला आज भी जारी है. इसका नमूना 'रहमानी सुपर 30' नाम का वह इंस्टीट्यूट है, जो अल्पसंख्यक छात्रों को इंजीनियरिंग में प्रवेश दिलाने की कोचिंग देता है. यहां के खैराती अस्पताल में हर धर्म के लोगों का बिना किसी भेदभाव के इलाज होता है. यहां की लाइब्रेरी में 16वीं और 17वीं सदी के कई महत्वपूर्ण ग्रंथ आज भी सुरक्षित हैं. आईए, इस खानकाह की दिलचस्प कहानी जानते हैं.
1901 में बिहार के शहर मुंगेर में इस खानकाह की स्थापना विशुद्ध धार्मिक उद्देश्यों से हुई थी. इस संस्थान के पत्रकारिता विभाग के प्रमुख फ़ज़ले रहमा रहमानी बताते हैं, “मोहम्मद अली मुंगेरी नाम के एक सूफी संत ने इस खानकाह की स्थापना की थी, उनके उस्ताद फ़ज़ले रहमा गंज मुरादाबादी ने उन्हें यहां भेजा था. दरअसल उन दिनों मुंगेर, भागलपुर और आसपास के इलाके में कादियान संप्रदाय तेजी से फैल रहा था, जिसे सच्चा मुसलमान नहीं माना जाता. उन्हीं के असर को खत्म करने के लिए मोहम्मद अली मुंगेरी यहां आए थे.”
मूलतः कानपुर के रहने वाले मुहम्मद अली मुंगेरी को लखनऊ के इस्लामिक संगठन नदवातुल उलमा की स्थापना का भी श्रेय दिया जाता है. उन्होंने मुंगेर में इस संगठन की स्थापना मजहबी मकसद से ही की थी, मगर 1920 में असहयोग आंदोलन के साथ चले खिलाफत मूवमेंट के दौरान वे महात्मा गांधी, मौलाना अबुल कलाम आजाद और अली बंधुओं के संपर्क आए तो उनके काम-काज की दिशा में बड़ा बदलाव आया. इतिहासकार और खुदाबख्श ओरिएंटल लाइब्रेरी के पूर्व निदेशक इम्तियाज अहमद बताते हैं, “उन दिनों गांधी जी मुंगेर के रहमानी खानकाह में भी गए थे और उन्होंने स्कूल, कॉलेज और अदालतों के बहिष्कार की अपील की थी. इसी सिलसिले में बिहार में इमारत-ए-शरीया नाम के संगठन की शुरुआत हुई, जिसका मुख्य काम मुसलमानों के बीच के विवादों को आपसी सहमति से सुलझाना और न्याय करना था. इस संगठन की स्थापना में मोहम्मद अली मुंगेरी की अहम भूमिका रही. यह संगठन अपनी स्थापना के एक सौ से अधिक वर्षों के बाद भी कायम है और ठीक-ठाक काम कर रहा है. इसकी बिहार, झारखंड और ओडिशा के मुसलमानों के बीच अच्छी प्रतिष्ठा है.”
इस खानकाह के सबसे चर्चित और प्रतिष्ठित सज्जादानशीं मौलाना मिन्नतुल्लाह रहमानी हुए, जो मोहम्मद अली मुंगेरी के बेटे थे. उन्होंने भारत की आजादी की लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. बिहार के इस्लामिक इतिहास पर शोधपरक काम करने वाले हेरिजेट टाइम्स के संचालक मुहम्मद उमर अशरफ बताते हैं, “1933 में महज 20 साल की उम्र में उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन में भागीदारी करते हुए दिल्ली में गिरफ्तारी दी और चार महीने जेल में रहे. इस दौरान उन्होंने समाजवादी विचारों से लैस किताब “हिंदुस्तान की सीनत और तिजारत” भी लिखी, जिस पर अंग्रेज़ों ने पाबंदी लगा दी. 1937 में जब पहली बार देसी पार्टियों की सरकार बनी तब इस किताब पर से प्रतिबंध हटाया गया और 1939 में इसे दोबारा प्रकाशित किया गया.”
रहमानी ने 1936 में बिहार में एक गैर सांप्रदायिक विचारों पर आधारित मुस्लिम इंडिपेंडेंट पार्टी की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और 1937 में मधेपुरा सह सुपौल सीट से एमएलए का चुनाव जीते. इम्तियाज अहमद बताते हैं, “यह उनकी पार्टी का ही योगदान था कि उस दौर में मुस्लिम लीग बिहार में अपने पैर नहीं जमा पाई. जबकि उत्तर प्रदेश में उन्हें अच्छी खासी जीत मिली थी. उस वक्त कांग्रेस ने सरकार बनाने से मना कर दिया था तो मुस्लिम इंडिपेंडेंट पार्टी की सरकार बनी और मोहम्मद यूनुस बिहार के पहले प्रीमियर (मुख्यमंत्री) बने.”
मिन्नतुल्लाह रहमानी आगे भी राजनीति में सक्रिय रहे. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की स्थापना में भी इनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही और वे इसके पहले महासचिव बने. 1957 में वे इमारत-ए-शरीया के चौथे अमीर-ए-शरीयत बने और 1991 तक आजीवन इसके अमीर (प्रमुख) रहे. खानकाह रहमानी से जुड़े फजले रहमा रहमानी बनाते हैं, “1991 में जब उनका इंतकाल हुआ तो शोक जताने के लिए खुद राजीव गांधी मुंगेर आए थे. तब उनके साथ राहुल गांधी भी आए थे. इस बार जो राहुल खानकाह रहमानी आए हैं, यह उनकी दूसरी यात्रा है.” 1985 में इस खानकाह में मौजूद राजीव गांधी की जो तसवीर वायरल हो रही है, वह इन्हीं मिन्नतुलाह रहमानी के साथ की तसवीर है. फजले रहमा रहमानी कहते हैं, “हमारे काम की ख्याति की वजह से ही 2003 में जब राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम आजाद मुंगेर आए तो हमारे यहां भी तशरीफ लाए.”
खानकाह रहमानी के तीसरे सज्जादानशीं वली रहमानी ने भी शिक्षा और राजनीति के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. फजले रहमा रहमानी कहते हैं, “सच्चर कमिटी की रिपोर्ट में जब पता चला कि देश के मुसलमान नौजवान तकनीकी शिक्षा के मामले में काफी पिछड़े हैं, तब इन्होंने मुसलमान छात्रों के लिए 2008 में रहमानी 30 नाम कोचिंग संस्थान की स्थापना की.” 'रहमानी 30' की शाखाएं देश के कई शहरों में है और यह 'सुपर 30' की तर्ज पर काम करता है.
वली रहमानी को राजनीतिक रूप से महत्वाकांक्षी माना जाता रहा है. कांग्रेस के सहयोग से वे 1974 से 1996 तक लगातार बिहार विधान परिषद के सदस्य बनते रहे. 2010 में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के महासचिव बने और 2015 से 2021 तक जब तक वे जीवित रहे इमारत-ए-शरीया के अमीर-ए-शरीयत रहे. 2021 में कोविड के दौरान उनकी मृत्यु हो गई. उन्होंने अपने जीते जी अपने बेटे अपने बेट फैसल रहमानी को खानकाह रहमानी का अगला सज्जादानशीं नियुक्त कर दिया था, जो 2021 से अब तक खानकाह रहमानी के सज्जादानशी हैं, साथ ही इमारत-ए-शरीया के अमीर-ए-शरीयत भी हैं. उमर बताते हैं कि 2000 और 2005 में जब रामविलास पासवान किसी मुसलमान को बिहार का मुख्यमंत्री बनाना चाह रहे थे तो मेरी जानकारी में एक बड़ा नाम वली रहमानी का भी था.
फ़ज़ले रहमा रहमानी के मुताबिक वली फैसल रहमानी ने इस्लामिक के साथ-साथ आधुनिक शिक्षा की भी पढ़ाई की. उनकी पढ़ाई अमेरिका में हुई, जहां उन्होंने कैलीफोर्निया स्टेट यूनिवर्सिटी से बैचलर ऑफ साइंस की पढ़ाई. पढ़ाई के बाद उन्होंने एडोबी, बीपी, डिज्नी और एक्सेंचर जैसी प्रतिष्ठित कंपनियों में काम किया. फिर यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया में नौकरी भी की. उन्होंने मिस्र में इस्लामिक अध्ययन की पढ़ाई की. अपने पिता के गुजरने के बाद वे नौकरी को छोड़कर मुंगेर आ गए और खानकाह की जिम्मेदारी संभालने लगे.
वली फैसल रहमानी ने खानकाह परिसर में चल रहे उच्च शिक्षण संस्थानों को आधुनिक बनाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. अपने दादा औऱ पिता की तरह उनकी भी राजनीतिक में दिलचस्पी थी. 2025 में वक्फ बोर्ड संशोधन के खिलाफ उनकी अगुआई में पटना के गांधी मैदान में 'वक्फ बचाओ, दीन बचाओ रैली' का आयोजन हुआ था.
इस लिहाज से देखें तो मुंगेर का खानकाह रहमानी महज एक इस्लामिक संगठन नहीं है, यहां के प्रमुख लोग भारत की आजादी, राजनीति और समाज सुधार के मसलों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैं. फजले रहमा रहमानी कहते हैं, “आजादी की लड़ाई के दौरान खानकाह में एक गुप्त तहखाना और गुप्त प्रिंटिंग प्रेस हुआ करती थी. यहां स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलनकारियों के पर्चे-पोस्टर छपा करते थे और तहखाने में क्रांतिकारी छिपा करते थे. बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह भी लंबे अरसे तक खानकाह में मौलवी बनकर छिपे रहे.”
बाद के दिनों में खानकाह एक बड़ा शैक्षणिक केंद्र बनकर उभरा. यहां उच्च शिक्षा के लिए स्थापित जामिया रहमानी में एक हजार से अधिक छात्र रहकर शिक्षा पाते हैं. इसके अलावा रहमानी स्कूल ऑफ एक्सीलेंस है. यहां पत्रकारिता और इस्लामिक कानून की भी पढ़ाई होती है. फ़ज़ले रहमा रहमानी कहते हैं, “हमारे रहमानी एजुकेशनल प्रोग्राम के तहत बीएड कॉलेज है, जिसमें 70 से 80 फीसदी गैर-मुस्लिम छात्र पढ़ाई करते हैं. यहां छात्रों को प्रोफेशनल स्किल भी सिखाई जाती है. यहां पढ़े इमाम भी वैचारिक और सामाजिक रूप से सक्षम होते हैं. इसके अलावा जामिया रहमानी अरबी कॉलेज भी संचालित होता है. लगभग पांच से छह हजार छात्र यहां से पढ़ाई करते हैं.”
इस परिसर में रहमानी फाउंडेशन का सेहत से जुड़ा कार्यक्रम भी संचालित होता है और हर साल एक हजार से अधिक लोगों का मोतियाबिंद का आपरेशन होता है, इसमें बड़ी संख्या गैर-मुस्लिमों की हुआ करती है.
इम्तियाज अहमद कहते हैं, “खानकाह रहमानी की लाइब्रेरी काफी अच्छी है. यहां पर्शियन में लिखे 16-17 वीं सदी के मैनुस्क्रिप्ट का अच्छा कलेक्शन है. यह खानकाह इस्लामिक मसलों पर समय-समय पर सेमिनार और कार्यक्रर्मों का आयोजन कराता रहा है. मुसलमानों के बीच सोशल रिफार्म में इसकी बड़ी भूमिका है. इसलिए इसे महज एक इस्लामिक सेंटर के तौर पर देखना गलत होगा. अपनी स्थापना के कुछ साल बाद से ही इसकी आजादी की लड़ाई, देश की राजनीति, शिक्षा और सामाजिक बदलाव में महत्वपूर्ण भूमिका रही है.”