यूपी में मूर्तियों-स्मारकों की राजनीति नई नहीं, लेकिन BJP ने इसे कैसे अलग ही तेवर दे दिए?
लखनऊ में ‘राष्ट्र प्रेरणा स्थल’ के बहाने फिर तेज हुई स्मारक राजनीति. दलित चेतना से सांस्कृतिक राष्ट्रवाद तक, यूपी में मूर्तियां वोट, पहचान और सत्ता का संदेश बनती जा रहीं

लखनऊ में गोमती नदी का किनारा एक बार फिर राजनीति, स्मृति और सत्ता के संगम का गवाह बनने जा रहा है. आंबेडकर पार्क और जनेश्वर मिश्र पार्क के बाद अब ‘राष्ट्र प्रेरणा स्थल’ तैयार खड़ा है. पुराने लखनऊ में गोमती के तट पर ग्रीन कॉरिडोर और आईआईएम रोड के मिलन बिंदु पर 65 एकड़ में फैला यह परिसर सिर्फ एक पार्क या स्मारक नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश में दशकों से चल रही स्मारक और मूर्ति की राजनीति की अगली कड़ी है. ऊपर से देखने पर कमल की आकृति में दिखने वाला यह स्थल, भीतर से एक साफ राजनीतिक संदेश देता है.
25 दिसंबर को पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की जयंती पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों इसके लोकार्पण की तैयारी है. परिसर में पूर्व प्रधानमंत्री और लखनऊ से सांसद रहे अटल बिहारी वाजपेयी, राष्ट्रीयस्वयं सेवक (RSS) के विचारक पं. दीनदयाल उपाध्याय और भारतीय जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी की 65 फीट ऊंची कांस्य प्रतिमाएं हैं. इन प्रतिमाओं के निर्माण पर 21 करोड़ रुपये खर्च हुए हैं; इन्हें देश के चर्चित मूर्तिकार रामसुतार और माटूराम ने बनाया है, वही रामसुतार जिन्होंने स्टेच्यू ऑफ यूनिटी को आकार दिया था.
इसके अलावा 232 करोड़ रुपये की लागत से बना म्यूजियम ब्लॉक, मेडिटेशन सेंटर, 3000 सीटों वाला एम्फीथिएटर, दो लाख लोगों की क्षमता वाला मैदान और तीन हेलीपैड इस परिसर को एक साथ सांस्कृतिक स्थल, राजनीतिक मंच और सत्ता के प्रदर्शन का केंद्र बनाते हैं.
म्यूजियम ब्लॉक में दीये की आकृति वाला विशाल मॉडल लगाया जा रहा है, जिसे लेकर जानकार याद दिलाते हैं कि दीया कभी जनसंघ की पहचान हुआ करता था. पांच गैलरियों में अटल, दीन दयाल और श्यामा प्रसाद मुखर्जी के जीवन, संघर्ष और विचारों को स्टोन म्यूरल्स, तस्वीरों और डिजिटल ऑडियो-वीडियो पैनलों के जरिए दिखाया जाएगा. वीवीआईपी और आम जनता के लिए अलग-अलग प्रवेश द्वार इस बात का संकेत हैं कि यह स्मारक सिर्फ स्मृति का नहीं, सत्ता के आयोजन का भी स्थल होगा.
हर सरकार की अपनी मूर्तियां, अपनी राजनीति
लेकिन लखनऊ में स्मारकों और मूर्तियों की राजनीति किसी एक सरकार या एक दौर की देन नहीं है. यह शहर खुद एक खुला संग्रहालय है, जहां हर चौराहा किसी न किसी राजनीतिक संदेश से भरा है. चारबाग रेलवे स्टेशन से बाहर निकलते ही बासमंडी की ओर जाने वाले तिराहे पर डॉ. भीमराव अंबेडकर की आदमकद प्रतिमा दिखाई देती है. प्लेटफॉर्म बदहाल है, नियमित साफ-सफाई सिर्फ जयंती या पुण्यतिथि पर होती है. यह दृश्य खुद सवाल खड़ा करता है कि क्या मूर्तियां सम्मान का स्थायी प्रतीक हैं या सिर्फ अवसरों की राजनीति का हिस्सा.
यहीं से विधानभवन की ओर बढ़ने पर कान्यकुब्ज कॉलेज के सामने पं. दीन दयाल उपाध्याय की प्रतिमा खड़ी है, जो यूपी में BJP शासन की शुरुआत की याद दिलाती है. थोड़ी दूरी पर हुसैनगंज चौराहे पर महाराणा प्रताप की प्रतिमा है, जो कभी-कभार क्षत्रिय गौरव के नाम पर जुटान का केंद्र बनती है. BJP कार्यालय के बाहर स्वतंत्रता सेनानी ऊदा देवी की मूर्ति पासी समाज की गतिविधियों का केंद्र है. और हजरतगंज चौराहे पर गांधी और आंबेडकर की प्रतिमाएं, जिनकी प्रासंगिकता अक्सर जयंती और पुण्यतिथि पर माल्यार्पण के अलावा विरोध प्रदर्शन और सरकारी ध्यान खींचने तक सिमट जाती है.
लखनऊ विश्वविद्यालय के समाजकार्य विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. राजेश्वर कुमार इस प्रवृत्ति को सीधे शब्दों में समझाते हैं. उनके मुताबिक, “किसी महापुरुष के नाम पर जनहित की योजना शुरू करने पर उसके नतीजे आने में समय लगता है, कई बार वे दिखते भी नहीं. जबकि मूर्ति लगाकर फौरन टारगेटेड वोट बैंक को संदेश दिया जा सकता है. यही वजह है कि लखनऊ में सौ से ज्यादा स्थानों पर 45 से अधिक महापुरुषों की प्रतिमाएं खड़ी हैं.” असल में, यूपी में मूर्तियों के जरिए ‘पुण्य कमाने’ और राजनीतिक संदेश देने की राजनीति 2007 के बाद निर्णायक मोड़ पर पहुंची. हालांकि इसकी शुरुआत पहले भी होती रही थी, लेकिन इसे संगठित और आक्रामक रूप दिया BSP प्रमुख मायावती ने. 1995 में पहली बार मुख्यमंत्री बनने के बाद और खासकर 2007 में पूर्ण बहुमत की सरकार आने के बाद, लखनऊ में दलित महापुरुषों की प्रतिमाओं और स्मारकों की बाढ़ आ गई.
आंबेडकर पार्क, मान्यवर कांशीराम पार्क, दलित प्रेरणा स्थल, छत्रपति शाहू जी महाराज, ज्योतिबा फुले जैसे सामाजिक सुधारकों की मूर्तियां, ये सब सिर्फ स्थापत्य परियोजनाएं नहीं थीं. ये बहुजन राजनीति का दृश्यात्मक घोषणापत्र थीं. मायावती का तर्क साफ था कि जब राजा-महाराजाओं और औपनिवेशिक शासकों की मूर्तियां सम्मान की प्रतीक हो सकती हैं, तो दलित और पिछड़े समाज के नायकों की क्यों नहीं. समर्थकों के लिए यह आत्मसम्मान की राजनीति थी, आलोचकों के लिए सरकारी धन का दुरुपयोग.. मायावती की सबसे तीखी आलोचना तब हुई जब समता मूलक पार्क के पास उन्होंने खुद की आदमकद प्रतिमा स्थापित करवाई. विपक्ष ने इसे व्यक्तिपूजा कहा, लेकिन BSP नेतृत्व ने इसे आंदोलन के प्रतीक के तौर पर सही ठहराया. इस दौर ने यह साफ कर दिया कि यूपी में स्मारक सिर्फ पत्थर नहीं, सत्ता का बयान होते हैं.
समाजवादी पार्टी (सपा) के शासनकाल में भी स्मारकों की राजनीति जारी रही, हालांकि उसका स्वर अलग था. मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्रित्व काल में गोमतीनगर में लोहिया पार्क बना और राम मनोहर लोहिया की प्रतिमा लगी. 2012 में अखिलेश यादव ने जनेश्वर मिश्र पार्क बनवाया, जिन्हें छोटे लोहिया के नाम से जाना जाता है. यहां भी एक स्मारक के जरिए समाजवादी आंदोलन की स्मृति को स्थायी करने की कोशिश दिखी, लेकिन यह राजनीति BSP या BJP की तुलना में कम आक्रामक रही.
वर्ष 2017 में योगी आदित्यनाथ के सत्ता में आने के बाद स्मारक राजनीति ने नया वैचारिक रंग लिया. यह दौर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और प्रतीकों की पुनर्व्याख्या का रहा. विधान भवन के सामने बने लोकभवन को मुख्यमंत्री कार्यालय के रूप में विकसित किया गया. इसी जगह पहले यूपी के पहले मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत की प्रतिमा लगी थी, जो लोकभवन के वैभव के आगे हाशिए पर चली गई. 25 दिसंबर 2018 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकभवन के सामने अटल बिहारी वाजपेयी की 25 फीट ऊंची प्रतिमा का अनावरण किया. यह सिर्फ एक प्रतिमा नहीं थी, बल्कि पूर्व सपा सरकार के ड्रीम प्रोजेक्ट पर BJP के सबसे बड़े चेहरे की मुहर थी.
इसके बाद प्रयागराज के श्रृंगवेरपुर धाम में निषादराज की विशाल प्रतिमा और स्मारक, बहराइच में महाराज सुहेलदेव की प्रतिमा और स्मारक जैसे प्रोजेक्ट्स ने यह साफ कर दिया कि BJP भी स्मारकों के जरिए सामाजिक और जातिगत समीकरण साधने में पीछे नहीं है.
निषादराज की प्रतिमा निषाद समाज को साधने की कोशिश मानी गई, जबकि महाराज सुहेलदेव को राजभर समाज के गौरव प्रतीक के रूप में पेश किया गया. राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि यह रणनीति इतिहास के चयनात्मक उपयोग के जरिए सामाजिक समूहों को जोड़ने की कोशिश है.
लखनऊ में बन रहा राष्ट्र प्रेरणा स्थल इसी रणनीति का शहरी और आधुनिक संस्करण है. अटल, दीन दयाल और श्यामा प्रसाद मुखर्जी के जरिए BJP अपने वैचारिक स्तंभों को एक ही परिसर में स्थापित कर रही है. विशाल मैदान, हेलीपैड और रैली मंच यह संकेत देते हैं कि यह जगह आने वाले समय में राजनीतिक आयोजनों का बड़ा केंद्र बनेगी.
इस पूरी राजनीति पर सामाजिक कार्यकर्ताओं की राय बंटी हुई है. कुछ इसे स्मृति संरक्षण और प्रेरणा का माध्यम मानते हैं, तो कुछ इसे विकास के मुद्दों से ध्यान हटाने का तरीका बताते हैं. पुराने लखनऊ के प्रतिष्ठित शिया कालेज में इतिहास के शिक्षक अमित राय कहते हैं “समस्या स्मारकों में नहीं, प्राथमिकताओं में है. अगर शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के साथ स्मारक बनें, तो विरोध कम होगा. लेकिन जब स्मारक ही विकास का पर्याय बना दिए जाते हैं, तब सवाल उठते हैं.”
सच यह है कि यूपी में स्मारक और मूर्तियां सत्ता की सबसे ठोस भाषा बन चुकी हैं. सरकारें बदलती हैं, लेकिन पत्थर और कांसा रह जाते हैं. हर नई सरकार पुराने प्रतीकों को या तो नए अर्थ देती है या उनके सामने अपने नायक खड़े कर देती है. लखनऊ इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, जहां एक ही सड़क पर अलग-अलग विचारधाराओं के नायक आमने-सामने खड़े नजर आते हैं. राष्ट्र प्रेरणा स्थल के पूरा होने के साथ यह बहस फिर तेज होगी कि क्या यूपी को और स्मारकों की जरूरत है या ठोस नीतियों की. लेकिन इतना तय है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में स्मारक और मूर्तियां सिर्फ इतिहास नहीं गढ़तीं, वे भविष्य की सियासत की जमीन भी तैयार करती हैं.