जाति, भ्रष्टाचार और सरकारी बेपरवाही का मेल ऐसे लेता है सीवर सफाईकर्मियों की जान!

16-17 अगस्त को नोएडा और सीतापुर में सेप्ट‍िक टैंक में हुई मौतों ने सफाई कर्मियों की सुरक्षा पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद इन मौतों को रोकने में क्यों फेल हो रही है यूपी सरकार

सीवर की सफाई करने उतरे दो मजदूरों की मौत (फाइल फोटो)
सांकेतिक तस्वीर

जैसा कि पूरे प्रदेश में चलन है नोएडा के सेक्टर-115 के सीवर की साफ-सफाई का जिम्मा भी जल विभाग ने एक ठेकेदार को सौंपा है. यह 16 अगस्त की बात थी जब अलीगढ़ के रहने वाले खुशाल (24) अपने चचेरे भाई विकास (26) के साथ ठेकेदार के कहने पर सीवेज पंपिंग स्टेशन में सफाई करने गए थे. 

यहां जहरीली गैस के संपर्क में आने पर वे बेहोश होकर टैंक में ही गिर गए. इसी दौरान दम घुटने से दोनों भाइयों की मौत हो गई. मौत की सूचना मिलते ही दोनों युवकों के घरों में कोहराम मच गया. परिजनों का आरोप है कि सीवर में उतरे दोनों युवकों के पास कोई भी सुरक्षा उपकरण नहीं था और विभाग की लापरवाही के कारण दोनों की मौत हुई है. 

पुलिस ने शिकायत के आधार पर केस दर्ज करके आरोपी ठेकेदार पुष्पेंद्र कुमार सिंह और अजीत को गिरफ्तार कर लिया. जल विभाग के जीएम आर. पी. सिंह का दावा है कि सुरक्षा उपकरण व मानकों का पालन किया गया था. हालांकि अधिकारियों के इस दावे को मृतकों के परिवार झूठ करार दे रहे हैं. नोएडा की इस दर्दनाक घटना के 24 घंटे के भीतर सीतापुर में भी एक सेप्ट‍िक टैंक तीन युवकों के लिए मौत की वजह बन गया.  

यूपी में सेप्ट‍िक टैंक या सीवेज टैंक के भीतर हुई मौत की ये इक्का-दुक्का घटनाएं नहीं हैं. प्रदेश के छोटे-बड़े शहरों में हर महीने ऐसी खबरें आती हैं जहां दो-तीन या कभी-कभी पांच-पांच मजदूर सीवर टैंक या सेप्टिक टैंक में सफाई करने उतरते हैं और जहरीली गैस से दम घुटने या ऑक्सीजन खत्म होने के कारण मौत की खामोशी में बदल जाते हैं. 

सिर्फ पिछले एक साल में उत्तर प्रदेश के 15 से अधिक जिलों से सीवर और सेप्टिक टैंक में सफाई मजदूरों की मौत की खबरें आईं हैं. गाजियाबाद, नोएडा, लखनऊ, प्रयागराज, वाराणसी, कानपुर, मेरठ-लगभग हर बड़े शहर में यह सिलसिला जारी है. छोटे कस्बों और गांवों में तो अधिकांश घटनाएं सुर्खियों तक पहुंच नहीं पातीं. यूपी सफाई कर्मचारी आयोग के पूर्व चेयरमैन जुगल किशोर वाल्मीकि कहते हैं, “ज्यादातर मजदूर बिना किसी सुरक्षा उपकरण के सीधे गहरे सीवर या सेप्टिक टैंक में उतार दिए जाते हैं. नीचे मीथेन, हाइड्रोजन सल्फाइड, कार्बन मोनोऑक्साइड जैसी जहरीली गैसें भरी होती है. सांस लेते ही चक्कर आता है, दम घुटता है और शरीर बेहोश होकर वहीं गिर जाता है. कई बार एक साथी को बचाने दूसरा उतरता है और वह भी वहीं मौत का शिकार हो जाता है. यही वजह है कि ऐसी घटनाओं में अक्सर दो या तीन नहीं, चार-पांच मजदूर एक साथ मारे जाते हैं.”

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश में 2018 से 2022 के बीच 347 सफाईकर्मियों की मौत सीवर और सेप्टिक टैंकों में हुई. इनमें उत्तर प्रदेश की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा है. राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग की रिपोर्ट बताती है कि यूपी में हर साल औसतन 35 से 40 मजदूर सीवर हादसों में मरते हैं. सवाल यह है कि 2013 में ‘मैनुअल स्कैवेंजिंग’ पर पूर्ण प्रतिबंध और 2014 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद सीवर में उतरकर जान गंवाने वालों का यह सिलसिला आखिर थमता क्यों नहीं? 

वर्ष 2013 का “मैनुअल स्कैवेंजिंग निषेध और पुनर्वास कानून” साफ कहता है कि किसी भी इंसान को बिना सुरक्षा उपकरण सीवर या टैंक में उतारना अपराध है. सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में आदेश दिया था कि हर मौत पर 10 लाख रुपए का मुआवजा अनिवार्य है. सीवर सफाई के दौरान सुरक्षा मानकों के पालन के लिए स्पेशल ऑपरेटिंग प्रोसीजर (एसओपी) भी बनी है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट व हाई कोर्ट के आदेश के बावजूद नगर विकास विभाग यह एसओपी लागू करने के लिए पुख्ता योजना तैयार नहीं कर सका है. 

कोर्ट ने यह भी प्रयास करने को कहा था कि सीवर टैंक में कोई व्यक्ति न उतरे. जरूरी हो तो एसओपी के तहत सभी सुरक्षा मानकों का पालन किया जाए, लेकिन अब तक नगर विकास विभाग इसे लागू करने के पुख्ता इंतजाम नहीं कर सका है. राज्य सफाई कर्मचारी आयोग के पूर्व चेयरमैन जुगलकिशोर वाल्मीकि का कहना है कि एसओपी में सीवर सफाई का ज्यादा से ज्यादा काम मशीनी से करने का सुझाव है, लेकिन निकायों में पर्याप्त मशीनें भी नहीं है. जहां मशीनें हैं भी वहां ज्यादातर जरूरत के समय खराब ही मिलती हैं. 

सीवर सफाईकर्मी चतुर्थ श्रेणी में आते हैं. साल 2005 में वेतन आयोग की सिफारिश के बाद नियमित कर्मचारियों की भर्ती नहीं हुई है. जानकार बताते हैं कि 90 के दशक में ही आखिरी बार पक्की भर्ती हुई थी. ऐसे में स्थायी सीवर सफाईकर्मियों की संख्या न के बराबर है. सारा काम ठेकेदारी प्रथा से हो रहा है. साल 2022 और 2023 में स्थानीय निकाय निदेशालय की तरफ से जारी एसओपी में प्रशिक्षित कर्मचारियों से ही काम करवाने के आदेश हैं. जुगल किशोर वाल्मीकि का आरोप है कि कम्पनियां कर्मचारियों की ट्रेनिंग नहीं करवातीं और न ही सुरक्षा सुरक्षा के पूरे इंतजाम मौके पर ही होते हैं.

यूपी में सफाई कर्मचारी आयोग के न होने से भी कर्मचारियों के बेहतरी के उपायों को लागू नहीं किया जा सका है. सफाई कर्मचारी आयोग का कार्यकाल वर्ष के 2022 में समाप्त हो गया था. जुगल किशोर वाल्मीकि बताते हैं कि सफाई कर्मचारी आयोग “वॉच-डॉग” की भूमिका में होता है. आयोग के अस्तित्त्व में रहने की सूरत में आयोग के सदस्य व अध्यक्ष अलग-अलग क्षेत्रों में निरीक्षण करते है और जहां कहीं भी कमी होती है, उन कमियों को वे दूर करवाते हैं. ऐसे में सफ़ाई कर्मचारी आयोग के न होने से सीवेज टैंक की सफाई से जुड़े प्रावधानों पर अमल की निगरानी नहीं हो पा रही है.

सेप्ट‍िक टैंक में हो रही मौतों का जातिगत आयाम भी है. अधिकांश मामलों में मरने वाले दलित समुदाय मसलन, वाल्मीकि, पासी, डोम जैसी जातियों से आते हैं. यह काम सदियों से उनके हिस्से डाल दिया गया. सरकारी नौकरी या वैकल्पिक रोजगार का वादा कागजों तक सीमित रह गया. यही वजह है कि पीढ़ी दर पीढ़ी वही समुदाय मौत की खदान जैसे सीवर में उतरता है. समाजवादी पार्टी (सपा) के दलित नेता मनोज पासवान कहते हैं “बीजेपी सरकार एक ओर तो गरीबी उन्मूलन और सामाजिक बराबरी देने की बात कर रही है तो दूसरी ओर दलित समाज के लोग सीवर टैंक में मारे जा रहे हैं. इससे सा‍बित होता है कि दलित जातियों के साथ सरकारी भेदभाव हो रहा है और बीजेपी सरकार के दावों के उलट इनका जीवन और कष्टमय हो गया है.” पासवान बताते हें कि एक सीवर हादसे के बाद मजदूर का परिवार अचानक अंधेरे में धकेल दिया जाता है. पत्नी विधवा पेंशन की जद्दोजहद में भटकती है, बच्चे पढ़ाई छोड़कर छोटे-मोटे काम करने लगते हैं और बूढ़े मां-बाप को मिलने वाली “मुआवजा राशि” भी बिचौलियों की जेब में चली जाती है. सेप्ट‍िक टैंक में मारे गए लखनऊ के रहने वाले एक मजदूर की पत्नी कहती हैं, “सरकार ने कहा था नौकरी देंगे, लेकिन तीन साल हो गए. अब दर-दर भटकने की ताकत नहीं बची.”

विपक्षी दल हर बार सीवर मौतों को लेकर सरकार पर हमला बोलते हैं. सपा और कांग्रेस ने कई बार विधान सभा में मुद्दा उठाया. बीजेपी सरकार कहती है कि “हमने मशीनों से सफाई का अभियान चलाया है.” लेकिन आंकड़े बताते हैं कि 75 जिलों में से मुश्किल से आधे जिलों में ही आधुनिक सीवर सफाई मशीनें उपलब्ध हैं. 

यूपी सरकार ने “बैंडिकूट रोबोट” जैसी मशीनों का प्रचार किया था जो इंसानों की जगह सीवर में उतर सकती हैं. पर यह तकनीक अभी लखनऊ और नोएडा जैसे कुछ शहरों तक ही सीमित है. अधिकांश जिलों में मजदूर ही सीवर के अंदर जाते हैं. सफाई कर्मचारियों के नेता सुधाकर वाल्मीकि सरकार से तीन स्तरीय समाधान की मांग करते हैं. वे कहते हैं, “हर जिले में पर्याप्त मशीनें और रोबोट उपलब्ध कराए जाएं. सेप्ट‍िक टैंक में मौत होने पर ठेकेदार और अफसर को सीधे हत्या के आरोप में दंडित किया जाए और दलित समुदाय को वैकल्पिक रोजगार और सम्मानजनक काम दिया जाए ताकि पीढ़ियों से चल रहा यह सिलसिला खत्म हो.” 

उत्तर प्रदेश में सीवर और सेप्टिक टैंकों की मौतें सिर्फ “हादसे” नहीं हैं, बल्कि एक सुनियोजित प्रशासनिक लापरवाही और सामाजिक उदासीनता का परिणाम हैं. जब तक कानून का सख्ती से पालन नहीं होगा, तकनीक का विस्तार नहीं होगा और समाज इन मौतों पर संवेदनशील नहीं बनेगा तब तक भूमिगत मौत का यह सिलसिला चलता रहेगा.

त्रासदी के चेहरे

ग्रेटर नोएडा : 12 जून को लगभग तीन साल का बच्चा एक खुले सेप्टिक टैंक में गिर गया और उसकी मौत हो गई; मकान मालिक की लापरवाही और सुरक्षा की कमी इस हादसे की वजह बनी. 

पीलीभीत : 5 जून  को एक ही परिवार से तीन सदस्य—प्रह्लाद मंडल (60), उनकी बेटी तनु विश्वास (32), और दामाद कार्तिक विश्वास (38)—सेप्टिक टैंक की सफाई के दौरान जहरीली गैस से दम घुटने से मरे. यह घटना पुराने टैंक से गैस रिसाव के कारण हुई. 

कानपुर : उन्नाव के एक गांव के रहने वाले 35 वर्षीय रमेश कमाई के लिए शहर आते थे.  बीते जून में प्राइवेट ठेकेदार के कहने पर वे बिना मास्क और सुरक्षा बेल्ट के सेप्टिक टैंक में उतरे और बाहर नहीं आ सके.

गाजियाबाद : पिछले साल नवंबर में तीन मजदूरों की एक साथ मौत हुई. परिवार को 10-10 लाख का मुआवजा तो मिला, लेकिन मजदूरों की विधवाएँ आज भी सरकारी नौकरी या पेंशन का इंतजार कर रही हैं.

चंदौली : 9 मई, 2024 को सेप्टिक टैंक की सफाई के दौरान जहरीली गैस के संपर्क में आने से चार लोगों—तीन सफाईकर्मी और मकान मालिक के बेटे- की मौत हुई. मुख्यमंत्री ने दुख व्यक्त किया और मुआवजे की घोषणा की. 

वाराणसी : प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र में 2023 में दो मजदूरों की मौत हुई. परिवार वालों का कहना था कि अगर सीवर मशीन से साफ किए जाते तो हादसा ही नहीं होता.

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