बीजेपी शासित राज्यों से बंगाली मजदूरों की वापसी; पहचान की राजनीति कैसे बनी मानवीय त्रासदी?

पश्चिम बंगाल में हाल के महीनों में सैकड़ों बंगाली प्रवासी कामगारों की वापसी हुई है, जो अन्य राज्यों में कथित तौर पर हिंसा, भेदभाव और आर्थिक असुरक्षा के शिकार बन रहे थे

मंगलुरु मॉब लिंचिंग केस
पिछले दिनों कई राज्यों में बंगाली मजदूरों के साथ मारपीट की घटनाएं सामने आई हैं

पश्चिम बंगाल में हाल के महीनों में 2,476 बंगाली प्रवासी कामगारों की वापसी हुई है, जो अन्य राज्यों में कथित तौर पर हिंसा, भेदभाव और आर्थिक असुरक्षा के शिकार बन रहे थे. ममता बनर्जी सरकार की तरफ से जुटाए गए 6 अगस्त तक के आंकड़े पलायन की तस्वीर दिखाते हुए बताते हैं कि किस जिले में कितनी प्रवासी पहुंचे.

हालांकि, राजनीतिक नैरेटिव में इस पलायन को भेदभावपूर्ण व्यवहार के नजरिये से देखा जा रहा है लेकिन जिस तरह से और जितनी संख्या में वापसी हो रही है, वो कहीं न कहीं एक गहरे सामाजिक-राजनीतिक तनाव की ओर इशारा करती है. खुद ममता बनर्जी ने जुलाई के आखिर में दूसरे राज्यों में काम कर रहे मजदूरों से अपील की थी कि अगर वे वापस आते हैं तो सरकार उनकी मदद करेगी. 

बंगाल लौटने वालों में सबसे ज्यादा लोग ऐसे हैं जो हरियाणा में बसे थे, जिनकी संख्या 793 है. जिला-स्तरीय आंकड़े बताते हैं कि इन कामगारों को कई जगहों पर, खासकर रायगंज पुलिस जिले (663) में, बसाया गया. इन लोगों को  बांसबेरिया, बैरकपुर, बीरभूम, बनगांव, कूचबिहार, डायमंड हार्बर, हावड़ा और इस्लामपुर में भी बसाया गया है. बंगाली प्रवासियों की वापसी के मामले में गैर-बीजेपीशासित केरल भी पीछे नहीं है, जहां से 518 लोग लौटे. यह दूसरी सबसे बड़ी संख्या है और इनमें से 334 लोगों ने मुर्शिदाबाद को अपना ठिकाना बनाया है.

बीजेपी शासित ओडिशा तीसरे नंबर पर रहा है, जहां से 361 प्रवासी बंगाली मजदूरों ने वापसी की है. इनमें से अधिकांश को जंगीपुर (127) और मुर्शिदाबाद पुलिस जिलों (116) में भेजा गया, और बाकी को अन्य जगहों पर बसाया गया है. महाराष्ट्र, जहां बीजेपी की अगुवाई वाला गठबंधन सत्ता में है, से 168 मजदूर लौटे हैं, जो मुर्शिदाबाद (97), रायगंज (45) और अन्य पुलिस जिलों में आकर बसे हैं.

दिल्ली (108), यूपी (68), राजस्थान (45), गुजरात (37) और असम (10) से भी बड़ी संख्या में लोग लौटे हैं, जिससे इस धारणा को बल मिला है कि बीजेपी शासित राज्यों में उन्हें कथित तौर पर सोची-समझी रणनीति के तहत निशाना बनाया जा रहा था. यहां तक, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) शासित राज्य भी इस सूची में शामिल हैं, जिसमें बिहार से 26 और आंध्र प्रदेश से 14 मजदूर लौटे हैं.

व्यक्तिगत ब्योरों पर ध्यान दें तो एक मानवीय संकट उभरकर सामने आता है. अब, महाराष्ट्र में उत्तर 24 परगना स्थित बदुरिया के 33 वर्षीय अबू बकर मंडल के मामले को ही ले लीजिए, जिसका शव क्षत-विक्षत अवस्था में एक बोरे में मिला. उसे जानने वाले लोगों और तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) का कहना है कि यह घटना बंगाली विरोधी भावना का नतीजा है.

उत्तरी दिनाजपुर के बिजुभिता निवासी 27 वर्षीय सब्बीर आलम हरियाणा से दोनों पैर टूटे होने की हालत में लौटे, जिन्हें पुलिस ने कथित तौर पर ‘बांग्लादेशी घुसपैठिया’ होने के संदेह में काफी यातनाएं दी थीं. ऐसी घटनाएं उन प्रवासी मजदूरों के लिए असुरक्षित माहौल को दिखाती हैं जिनकी भाषाई और क्षेत्रीय पहचान उन्हें कुछ राज्यों में ‘बाहरी’ के तौर पर चिह्नित करती है.

जिला-स्तरीय बंदोबस्त आंकड़े बंगाल के उन हिस्सों की स्पष्ट तस्वीर पेश करते हैं जहां सबसे ज्यादा प्रवासी पहुंचे. रायगंज इसमें सबसे ऊपर है जहां कम से कम 16 राज्यों से कुल 933 प्रवासी लौटे हैं, जिनमें बड़ी संख्या में हरियाणा से लौटे लोग शामिल हैं. मुर्शिदाबाद दूसरे स्थान पर है जहां कुल 788 प्रवासी लौटे हैं. कूचबिहार 272 प्रवासियों की वापसी के साथ तीसरे स्थान पर है. बंगाल में तृणमूल कांग्रेस सरकार के लिए यह वापसी एक मानवीय और सामाजिक-आर्थिक चुनौती बन रही है. 

हालांकि, मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने लौटने वाले मजदूरों के लिए नौकरी, सामाजिक सुरक्षा और बच्चों के लिए शिक्षा सहायता का वादा किया है, और राज्य को बंगाली भाषी समुदायों के लिए एक सुरक्षित आश्रय स्थल के तौर पर पेश किया है. उनका यह कहना कि, “अगर हमारे पास एक रोटी भी होगी तो हम खुशी-खुशी आधी आपके साथ बांट लेंगे.”

दूसरी तरफ राजनीतिक संदेश से परे हजारों मजदूरों को पहले से ही तनावग्रस्त श्रम बाजार में समायोजित करना और सियासी उबाल वाले माहौल के बीच उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करना कोई आसान काम नहीं है. अगर प्रवासियों के पलायन के व्यापक संदर्भ में देखें तो बंगाल में और बंगाल से बाहर ये लंबे समय से कई समुदायों के लिए एक आर्थिक जरूरत रहा है. लेकिन अब लौट रहे मजदूरों के बीच धारणा बनती जा रही है कि कुछ राज्यों में अब उनकी सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं बची है. ये धारणा ‘बाहरी लोगों’ के खिलाफ बयानबाजियों और प्रशासनिक कार्रवाइयों, मसलन, कथित तौर पर बांग्ला भाषी समुदाय को निशाना बनाकर पुलिस जांच से और भी पुष्ट हो रही है.

जाहिर है, जिन राज्यों में बीजेपी या उसके सहयोगी दल सत्ता में हैं, वहां से प्रवासियों की वापसी बढ़ने के सियासी निहितार्थ निकाले जाएंगे. लेकिन असल मुद्दा तो यह है कि क्या भाषाई पहचान किसी प्रवासी की सुरक्षा का निर्धारण करेगी. ये एक यक्ष प्रश्न बना हुआ है. बंगाल के लिए असल चुनौती ये है कि वो एक सुरक्षित आश्रय के तौर पर अपनी छवि बनाए रखने के साथ-साथ उन लोगों का सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक एकीकरण सुनिश्चित करे जो मजबूरी में घर लौट रहे हैं. 

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