इंदिरा गांधी के खास रहे नेता की पोती भाजपा में क्यों चली गईं?

राजस्थान के दिग्गज कांग्रेसी नेता रहे नाथूराम मिर्धा (बाबा) की पोती ज्योति मिर्धा ने पिछले दो लोकसभा चुनाव कांग्रेस की टिकट पर लड़े थे लेकिन अब वे भाजपा में शामिल हो गई हैं

2019 चुनाव प्रचार अभियान के दौरान ज्योति मिर्धा
2019 चुनाव प्रचार अभियान के दौरान ज्योति मिर्धा

नागौर के दिग्गज कांग्रेसी नेता नाथूराम मिर्धा (बाबा) 1977 की इंदिरा गांधी विरोधी लहर में बिना एक भी दिन चुनाव प्रचार किए अस्पताल में भरती रहने के दौरान वहीं से चुनाव जीत गए थे. लेकिन बाबा की विरासत के तौर पर कांग्रेस से अपने सियासी सफर की शुरुआत करने वाली उनकी पोती ज्योति मिर्धा अब नागौर में अपनी राजनीतिक जमीन तलाशने के लिए भाजपा के भरोसे हैं. 11 सितंबर को वे भाजपा में शामिल हो गई हैं.

ज्योति के दादा के बारे में यह दिलचस्प बात है कि 1977 में उनका नामांकन पत्र भी दिल्ली एम्स के बिस्तर से ही उनके हस्ताक्षर के जरिए भरा गया था. नाथूराम मिर्धा ने अपने संसदीय क्षेत्र के लोगों से एक पर्चा भेजकर जो अपील की थी,  उसी से वो चुनाव जीत गए. दरअसल, मिर्धा ने उस पर्चे में लिखा था, "मेरा यह आखिरी चुनाव है, आप मुझे इस चुनाव में आखिरी थेपड़ी भेंट नहीं करोगे क्या?" 

राजस्थान में किसी की मौत होने पर अंतिम संस्कार के दौरान वहां उपस्थित लोगों द्वारा चिता में सूखे गोधन का टुकड़ा (थेपड़ी) अर्पित कर दिवंगत के प्रति श्रद्धा प्रकट की जाती है. मिर्धा की उस अपील का जबरदस्त असर हुआ. भले ही 1977 में कांग्रेस राजस्थान की अन्य 24 सीटें हार गई हो, लेकिन नागौर की सीट पर नाथूराम मिर्धा की डेढ़ लाख से ज्यादा वोटों के अंतर से जीत हुई.

2009 में उनकी पोती ज्योति मिर्धा ने जब नागौर से कांग्रेस के टिकट पर अपना पहला चुनाव लड़ा तो यहां के लोगों को उनमें नाथूराम मिर्धा की झलक दिखाई दी. लोगों ने उन्हें बाबा की पोती कहकर सर-आखों पर बिठाया. चुनाव में उनके लिए एक नारा भी खूब लोकप्रिय हुआ- 'बाबा की पोती है, नागौर की ज्योति है.' 2009 में उन्होंने पूर्व सांसद राम रघुनाथ चौधरी की बेटी बिंदु चौधरी को करीब डेढ़ लाख वोटों के अंतर से चुनाव हराया.

राजस्थान की राजनीति के जानकार और वरिष्ठ पत्रकार सीताराम झालानी कहते हैं, "ज्योति मिर्धा बाबा के नाम पर चुनाव तो जीत गईं, लेकिन दोनों की राजनीति में जमीन आसमान का अंतर था. नाथूराम मिर्धा जहां खुद को एक पल के लिए भी लोगों से दूर नहीं कर पाते थे वहीं ज्योति मिर्धा चुनाव जीतने के बाद लोगों से दूर होती चली गईं. नाथूराम मिर्धा दिनभर लोगों के साथ रहते थे, वहीं रात को सोने से पहले वो उनके नाम आए सभी खतों का खुद लिखकर जवाब देते थे."

शायद यही कारण था कि 2014 के लोकसभा चुनाव में बाबा की पोती आरपीएससी के चेयरमैन रहे सीआर चौधरी के सामने 75 हजार वोटों से चुनाव हार गईं. 2019 में कांग्रेस ने तीसरी बार ज्योति मिर्धा पर भरोसा जताया, लेकिन वे भाजपा और राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी (रालोपा) गठबंधन के उम्मीदवार हनुमान बेनीवाल के सामने करीब 1 लाख 80 हजार वोटों से चुनाव हार गईं. लगातार दो बार चुनाव हार चुकी ज्योति मिर्धा के लिए इस बार कांग्रेस का टिकट पाने के रास्ते लगभग बंद हो गए थे. ऐसे में उनके पास भाजपा में जाने के अलावा कोई चारा नहीं बचा था.

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ज्योति को भाजपा में लाने का मुख्य जरिया बने. इसकी नींव 14 मई 2023 को मेड़ता में स्व. नाथूराम मिर्धा की मूर्ति अनावरण समारोह में रखी जा चुकी थी. इस समारोह में ज्योति मिर्धा, जगदीप धनखड़, ज्योति मिर्धा के चाचा रिछपाल मिर्धा और राजस्थान की कांग्रेस सरकार के कृषि मंत्री लालचंद कटारिया मौजूद थे. राजनीतिक सूत्रों का कहना है कि ज्योति के साथ ही रिछपाल मिर्धा और उनके विधायक बेटे विजयपाल चौधरी की भी भाजपा में एंट्री होने वाली थी, लेकिन किन्हीं कारणों से वह संभव नहीं हो पाया. 

नागौर की सियासत में मिर्धा परिवार का दबदबा

पिछले 50 साल से नागौर जिले की सियासत मिर्धा परिवार के इर्द-गिर्द ही घूमती रही है. ज्योति मिर्धा के दादा नाथूराम मिर्धा 6 मार्च 1948 में जोधपुर स्टेट में बनी जनप्रतिनिधि सरकार में राजस्व मंत्री बने थे तथा उस सरकार में रहते हुए टेनेंसी एक्ट बनाया. यहीं से किसानों को उनकी जमीन का मालिकाना हक देने का कानून बना. 1952 में मेड़ता पूर्व से विधायक बने और 1957 नागौर और 1962 मेड़ता से विधानसभा पहुंचे. नाथूराम मिर्धा 4 बार विधायक और 6 बार सांसद चुने गए. नागौर की राजनीति में उन्होंने 55 साल तक एकछत्र राज किया.

नाथूराम मिर्धा के चचेरे भाई रामनिवास मिर्धा का भी नागौर में लंबा सियासी सफर रहा है. रामनिवास मिर्धा पहली बार 1953 में उपचुनाव जीतकर विधायक चुने गए. इसके बाद वो 1957 में लाडनूं और 1962 में नागौर से विधायक चुने गए. 1967, 1968, 1974 और 1980 में रामनिवास मिर्धा चार बार राज्यसभा के सांसद रहे.

रामनिवास मिर्धा को राजनीति में लाने वाले नाथूराम मिर्धा थे लेकिन 1984 में एक वक्त ऐसा भी आया जब चाचा (नाथूराम) और भतीजा (रामनिवास) को आमने-सामने चुनाव लड़ना पड़ा. 1980 में चुनावों से पहले जब कांग्रेस दो धड़ों में बंट गई तब रामनिवास मिर्धा कांग्रेस (आई) और नाथूराम मिर्धा (कांग्रेस यू) में चले गए और चुनाव जीतकर संसद पहुंचे. 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी ने रामनिवास मिर्धा को नागौर से अपने चाचा के खिलाफ चुनाव लड़ने के लिए कहा. उस वक्त नाथूराम मिर्धा लोकदल में चले गए थे. पार्टी के आदेशों पर रामनिवास मिर्धा ने अपने चाचा नाथूराम मिर्धा के खिलाफ चुनाव लड़ा और उन्हें 48 हजार वोटों से हराया. हालांकि, पांच साल बाद ही 1989 में नाथूराम मिर्धा ने जनता दल के टिकट पर कांग्रेस के उम्मीदवार रामनिवास मिर्धा को एक लाख 90 हजार वोटों से हरा दिया. 1991 में नाथूराम मिर्धा फिर कांग्रेस के साथ आ गए और चुनाव जीते. 1996 में उन्होंने भाजपा के हरीशचंद कुमावत को चुनाव हराया.

नाथूराम के भतीजे रिछपाल मिर्धा और रामनिवास मिर्धा के बेटे हरेंद्र मिर्धा भी पिछले चार दशक से जिले की राजनीति में खासी दखल रखते हैं. रिछपाल 1990 में जनता दल के टिकट पर चुनाव जीते थे. 1993 में रिछपाल डेगाना और हरेंद्र मिर्धा नागौर से कांग्रेस के विधायक बने. 1998 के चुनाव में हरेंद्र मिर्धा नागौर से कांग्रेस और रिछपाल मिर्धा डेगाना से निर्दलीय विधायक चुने गए. 2003 में रिछपाल मिर्धा डेगाना से फिर से कांग्रेस के विधायक चुने गए लेकिन हरेंद्र मिर्धा नागौर से भाजपा के गजेंद्र सिंह के सामने चुनाव हार गए. 2008 में भी कांग्रेस ने हरेंद्र मिर्धा को नागौर और रिछपाल मिर्धा को डेगाना से चुनाव लड़ाया. इस चुनाव में हरेंद्र भाजपा के हबीबुर्रहमान और रिछपाल भाजपा के अजय सिंह किलक के सामने चुनाव हार गए.

2013 में रिछपाल मिर्धा को तो टिकट मिला लेकिन हरेंद्र मिर्धा पर पार्टी ने भरोसा नहीं जताया. ऐसे में हरेंद्र मिर्धा ने पार्टी से बगावत कर निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ा, लेकिन करीब 6 हजार वोटों से वो भाजपा के हबीबुर्रहमान के सामने चुनाव हार गए. रिछपाल मिर्धा 2013 का चुनाव भाजपा के अजय सिंह किलक से हार गए. 2018 में रिछपाल मिर्धा के बेटे विजयपाल मिर्धा को डेगाना से टिकट दिया और वो चुनाव जीते.

फिलहाल, नागौर की राजनीति में नाथूराम और बलेदव मिर्धा की चौथी पीढ़ी सक्रिय है. बलदेवराम मिर्धा के परपोते और हरेंद्र मिर्धा के बेटे रघुवेंद्र मिर्धा और रिछपाल मिर्धा के बेटे विजयपाल मिर्धा अपने-अपने क्षेत्र में टिकटों के प्रबल दावेदार हैं. हालांकि, 1998 के बाद से नागौर की राजनीति में मिर्धा परिवार का वर्चस्व कमजोर हुआ है. 1998 में राम रघुनाथ चौधरी ने रिछपाल मिर्धा को लोकसभा का चुनाव हराकर मिर्धा परिवार के वर्चस्व को चुनौती दी और अब हनुमान बेनीवाल नागौर जिले की राजनीति के केंद्र बने हुए हैं. अब देखना यह है कि भाजपा की सारथी बनकर ज्योति मिर्धा आने वाले विधानसभा और लोकसभा चुनावों में नागौर की राजनीति को कितना प्रभावित कर पाएंगी.

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