ईश्वर अल्लाह तेरो नाम विवाद : गायिका देवी की जगह मंच पर गांधी खुद होते तो क्या माफी मांगते?
दो दिन पहले (25 दिसंबर) बिहार की राजधानी पटना में एक कार्यक्रम में लोकगायिका देवी को गांधी के प्रिय भजन 'ईश्वर अल्लाह तेरो नाम' गाने से रोक दिया गया. विरोध करने वालों को इस भजन में अल्लाह का नाम लिये जाने से आपत्ति थी. अगर इस मौके पर मंच पर गांधी खुद होते तो क्या करते

दिसंबर की 25 तारीख को बिहार की राजधानी पटना में एक कार्यक्रम में लोकगायिका देवी को गांधी के प्रिय भजन 'ईश्वर अल्लाह तेरो नाम' गाने से रोक दिया गया. विरोध करने वाले जो खुद को हिंदूवादी बता रहे थे, इस भजन में अल्लाह का नाम लिये जाने से नाखुश थे. मजबूरन देवी को माफी मांगनी पड़ी.
जब यह खबर सामने आई तो पहला ख्याल यही आया कि अगर इस मौके पर मंच पर गांधी खुद होते तो क्या करते? क्या वे भी देवी की तरह माफी मांग लेते? क्या वे विरोध के बाद भी इस भजन को गाते?
ऐसे मौके पर गांधी क्या करते, यह कोई काल्पनिक सवाल नहीं है. गांधी ने अपने जीवन में ऐसे मौके लगातार झेले हैं, उन्होंने अपने भजन, अपनी प्रार्थना में अल्लाह के जिक्र और कुरान की आयतों के उल्लेख के लिए हिंदुवादी युवकों का खूब विरोध झेला. मगर इस विरोध को उन्होंने अपने तरीके से हैंडल किया. यह कहानी तो होगी ही, मगर पहले इस भजन 'ईश्वर अल्लाह तेरो नाम' के बारे में जान लें.
हम सब जानते हैं कि यह पंक्ति 'रघुपति राघव राजा राम' नामक भजन का अंश है, जिसे लक्ष्मणाचार्य ने लिखा और गांधी जी की दांडी यात्रा के दौरान प्रसिद्ध संगीतकार विष्णु दामोदर पर्लुस्कर ने संगीत दिया. पहले इस भजन में 'ईश्वर अल्लाह तेरो नाम' नहीं था. यह भजन इस तरह था -
रघुपति राघव राजाराम। पतित पावन सीताराम।।
सुंदर विग्रह मेघाश्याम। गंगा तुलसी शालीग्राम।।
22 जनवरी, 1947 को गांधी जी की पोती मनु बेन ने इसमें 'ईश्वर अल्लाह तेरो नाम' जोड़ दिया. दरअसल यह घटना नोआखली में हुई. नोआखली के दंगों के बाद गांधी जी उस इलाके में शांति बहाली के लिए गांव-गांव में नंगे पांव घूम रहे थे. उस रोज वे पनियाला गांव में थे. वहीं मनु बेन ने अचानक ये पंक्तियां गा डाली. गांधी जी ने भी इसे खूब पसंद किया. फिर यह भजन देश की सांप्रदायिक एकता का प्रतीक बन गया. हैरत है कि नोआखली में किसी ने इस प्रयोग का विरोध नहीं किया. बल्कि लोगों ने मन से इस भजन को गाया.
गांधी की प्रार्थना में 'ईश्वर अल्लाह तेरो नाम' का विरोध कभी नहीं हुआ, विरोध हुआ उनकी सर्वधर्म प्रार्थना में शामिल कुरान की आयतों का. गांधी जी की सर्वधर्म प्रार्थना में बौद्ध, जैन, हिंदू, मुस्लिम, पारसी, सिख तमाम धर्म की प्रार्थनाओं के अंश शामिल हुआ करते थे.
कुरान की आयत इस प्रार्थना में 1940 में शामिल हुई, जब गांधी जी के सहयोगी अब्बास तैयब जी की बेटी रेहना उनके आश्रम में रहने आईं. रेहाना ने ही आश्रम वासियों को ये आयतें सिखाई थीं, तब से यह उनकी प्रार्थना का हिस्सा बन गई थी. आज भी यह प्रार्थना वर्धा समेत गांधी जी के कई आश्रमों में नियमित होती है.
इसका विरोध पहली दफा दिल्ली में एक अप्रैल, 1947 को हुआ. गांधी जी बिहार से दिल्ली भारत के नये वायसराय माउंटबेटन के बुलावे पर आजादी से जुड़ी चर्चा करने गये थे. वे वहां के वाल्मिकी आश्रम में ठहरे थे, जिसे भंगी कॉलोनी भी कहा जाता था. वहीं पास में आरएसएस की शाखाएं भी लगती थी.
हर रोज शाम के वक्त गांधी सार्वजनिक प्रार्थना करते और इसके बाद अपना व्याख्यान देते. उनकी इस प्रार्थना में भारी भीड़ जुटती. पटना और कोलकाता में तो लाखों लोग पहुंचते. उस रोज दिल्ली में भी काफी भीड़ थी. मगर जैसे ही प्रार्थना में कुरान की आयतें पढ़ी जाने लगी. कुछ लड़कों ने उठकर विरोध कर दिया. कहने लगे, "यह हिंदुओं का मंदिर है, हम यहां आयत गाने नहीं देंगे." हालांकि ज्यादातर लोगों को यह विरोध अच्छा नहीं लगा, लोग उन्हें धक्के मारकर बाहर निकालने लगे.
मगर गांधी जी को यह अच्छा नहीं लगा. उन्होंने युवक को पास बुलाया. वह युवक गुस्से से कांप रहा था. गांधी जी ने उससे पूछा कि तुम विरोध क्यों कर रहे हो. मगर तब तक लोग फिर सक्रिय हो गये. उन्होंने उसे बाहर निकाल दिया. गांधी जी इससे दुखी हो गये. उन्होंने प्रार्थना छोड़ दी. गांधी ने कहा, "अगर एक छोटा बच्चा भी इस प्रार्थना के विरोध में होगा तो मैं प्रार्थना नहीं करूंगा. आपलोगों को उसे जबरदस्ती नहीं निकालना चाहिए था, उसे प्रेम से जीतना चाहिए था. ऐसी जबरदस्ती में प्रार्थना करने से क्या फायदा?"
उन्होंने तय किया कि अब सर्वधर्म प्रार्थना में कुरान की आयतें सबसे पहले पढ़ी जायेंगी. अगर किसी ने आपत्ति की तो प्रार्थना नहीं होगी. कुरान की आयतें इस प्रार्थना का अविभाज्य हिस्सा है. इसे हटाया नहीं जा सकता. दूसरे दिन फिर विरोध हुआ. उन्होंने प्रार्थना छोड़ दी. दूसरे लोग उदास होकर कहने लगे, आप दो लोगों के कारण हम सबको क्यों प्रार्थना से वंचित कर रहे. मगर गांधी नहीं माने.
तीसरे दिन तीस लोगों ने प्रार्थना का विरोध किया. गांधी जी ने फिर प्रार्थना नहीं की. इस पर प्रार्थना सुनने के लिए पहुंची भीड़ उत्तेजित होने लगी. कुछ लोगों ने कहा, "आप प्रार्थना कीजिये, हम आपके साथ मरने के लिए तैयार हैं." मगर गांधी अडिग रहे. वे बोले, "इन लोगों को समझने का मौका देना चाहिए. सब लोग शांति से मन में ईश्वर का स्मरण कीजिये कि ईश्वर इन भाइयों को सन्मार्ग पर चलाये."
यह विवाद इतना बढ़ा कि अगले दिन प्रार्थना सभा में हिंदू महासभा के मूलचंद आर्य खुद पहुंचे थे. गांधी जी के पूछने से पहले ही वे उठ खड़े हुए, कहने लगे, "महात्मा जी ने निश्चय किया है कि एक बच्चा भी विरोध करेगा तो वे प्रार्थना नहीं करेंगे. मैं आपसे प्रार्थना करता हूं कि कोई यहां विरोध न करे. हमें लड़ना होगा तो महात्मा जी से कहीं और लड़ लेंगे. ईश्वर की प्रार्थना में दखल न दीजिये. यह हमारे लिए शर्म की बात है कि वे तीन दिन तक प्रार्थना नहीं कर सके."
उनकी बात खत्म होने पर गांधी जी ने फिर पूछा, "अभी भी किसी को आपत्ति है?" तो दो युवक खड़े हो गये. लेकिन मूलचंद जी ने दोनों को समझा कर बिठा दिया. दोनों ने कहा, "हमें आपत्ति नहीं है, आप प्रार्थना कीजिये." फिर जाकर उस रोज प्रार्थना हुई. उसके बाद गांधी जी के इस प्रवास में उनकी प्रार्थना का विरोध नहीं हुआ.
अगली बार एक मई, 1947 को जब वे दुबारा दिल्ली पहुंचे और भंगी आश्रम में प्रार्थना करने लगे तो दो मई को फिर से विरोध होने लगा और इस बार भी वे विरोध के बाद प्रार्थना छोड़ने लगे. तीन को तो नहीं, मगर चार मई को फिर एक युवक ने विरोध किया और प्रार्थना नहीं हुई. फिर उन्होंने उन आयतों का हिंदी अनुवाद कराया, जो इस तरह था -
हे परमात्मा, शैतान से बचने के लिए मैं ईश्वर की शरण लेता हूं.
हे प्रभु, तेरे नाम का स्मरण करके ही मैं हर काम प्रारंभ करता हूं.
तू दया का सागर है, तू कृपालु है, तू अखिल विश्व का सरजनहार है.
तू ही मालिक है. मैं तेरी मदद मांगता हूं.
अंतिम न्याय करने वाला एक तू ही है. तू मुझे सीधा रास्ता बता.
मुझे ऐसा रास्ता बता जिससे मुझे तेरी कृपा पाने का सौभाग्य मिले.
जिस पर तेरी कृपा न हो, जो बुरे रास्ते पर हो, उसका रास्ता मुझे कभी मत बताना.
ईश्वर एक है, वह सनातन, निराकार, निरंजन है. अज और अद्वितीय है.
वह सारी सृष्टि की सर्जक है.
छह मई को मनु बेन ने इसे पढ़कर सुनाया, जिस पर किसी ने विरोध नहीं किया. उस रोज गांधी जी एक जरूरी काम की वजह से प्रार्थना में नहीं थे, इसलिए उनका लिखित भाषण पढ़ा गया, जिसमें लिखा था,
"रोज कुरान की जिस आयत को पढ़ा जाता है, उसका अर्थ यही है. ऐसे गूढ़ अर्थों से भरी प्रार्थना का क्यों विरोध होता है. इसका एक-एक वाक्य हृदय में अंकित करने योग्य है. लोगों ने उन आयतों के हिंदी अनुवाद का बिल्कुल विरोध नहीं किया. विरोधी बस इसे अरबी में पढ़े जाने का विरोध कर रहे थे."
अगले दिन प्रार्थना सभा में गांधी ने कहा,
1. मैं नहीं मानता कि कुरान पढ़ने से मंदिर अपवित्र हो जाता है.
2. मुसलमानों ने पाप किया है, तो क्या बिहार में हिंदुओं ने पाप नहीं किये हैं. (उस वक्त दोनों जगह दंगे हुए थे.)
3. मैंने मस्जिद में तो गीता नहीं पढ़ी, मगर मुसलमानों के घर में खूब रहा हूं, वहां नियम के मुताबिक अपनी प्रार्थना करता रहा. रामधुन भी गाई है.
4. विरोध कुरान का नहीं अरबी भाषा का है. जो तमसो मा ज्योतिर्गमय का अर्थ है, वही इस आयत का भी अर्थ है.
फिर प्रार्थना हुई, क्योंकि किसी ने विरोध नहीं किया.