ओडिशा : दस घंटे काम, रात में महिलाओं की ड्यूटी, नया लेबर लॉ विवादों में क्यों

ओडिशा सरकार और उद्योग संगठनों ने नए लेबर लॉ को प्रगतिशील बताते हुए तर्क दिया है कि इससे आर्थिक गतिविधियां बढ़ेंगी और कामकाज का वातावरण बेहतर होगा

Unemployment rises in India
सांकेतिक तस्वीर

ओडिशा सरकार ने बीते 30 सितंबर को ओडिशा दुकान और वाणिज्यिक प्रतिष्ठान अधिनियम, 1956 तथा कारखाना अधिनियम, 1948 में संशोधन करके अपने श्रम कानूनों में बड़े बदलाव किए हैं.  इस संशोधन के तहत दो महत्वपूर्ण प्रावधान किए गए हैं. पहला यह कि अब लोग एक दिन में आठ घंटे से अधिक, यानी दस घंटे तक काम कर सकते हैं और दूसरा यह कि महिलाएं भी नाइट शिफ्ट में काम कर सकती हैं. 

सरकार और उद्योग संगठनों ने इस कदम को प्रगतिशील बताते हुए तर्क दिया है कि इससे आर्थिक गतिविधियां बढ़ेंगी और कामकाज का वातावरण बेहतर होगा.  नए नियम के मुताबिक कोई भी कर्मचारी लगातार 6 घंटे से अधिक बिना कम-से-कम आधा घंटे के अंतराल के काम नहीं करेगा.  त्रैमासिक ओवरटाइम सीमा 115 घंटे से बढ़ाकर 144 घंटे कर दी गई है. किसी भी दिन 10 घंटे से अधिक या किसी सप्ताह में 48 घंटे से अधिक काम करने पर कर्मचारी को ओवरटाइम के लिए सामान्य मजदूरी दर का दोगुना भुगतान मिलेगा. 

सरकार का कहना है कि प्रतिस्पर्धी बने रहने के लिए कई बार उद्योगों को चौबीसों घंटे चलना पड़ता है. खासतौर पर वस्त्र, विनिर्माण और इलेक्ट्रॉनिक्स जैसे उद्योगों को बड़े ऑर्डर पूरे करने के लिए चौबीसों घंटे काम करना पड़ता है. अगर ओडिशा ऐसा औद्योगिक वातावरण बनाने में सफल होता है तो रोजगार के अधिक मौके पैदा किए जा सकते हैं. सरकार का यह भी कहना है कि ये सुधार न केवल रोजगार देने वालों के पक्ष में होंगे, बल्कि श्रमिकों को भी अतिरिक्त काम यानी ओवरटाइम करके अधिक पैसा कमाने का अवसर मिलेगा, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति सुधरेगी. 

महिलाओं को नाइट शिफ्ट में काम करने की अनुमति को ऐतिहासिक और लैंगिक समानता की दिशा में कदम बताया जा रहा है. अब तक कानूनी पाबंदियों के कारण महिलाएं रात में कारखानों में काम नहीं कर सकती थीं, जिससे उनके लिए रोजगार के अवसर सीमित हो जाते थे. सरकार का कहना है कि पाबंदी हटने से महिलाएं भी पुरुषों की तरह सभी नौकरियों में बराबरी से हिस्सा ले सकेंगी. 

फैसला आते ही विवाद शुरू 

हालांकि, इस फैसले ने बड़ा विवाद खड़ा कर दिया है. बहुत से लोग श्रमिकों के कल्याण और इस कदम की संवैधानिकता पर गंभीर सवाल उठा रहे हैं. पूरे राज्य में 10 से अधिक मजदूर यूनियन इसके खिलाफ उतर गई हैं. उनका कहना है कि इतना बड़ा फैसला केवल कैबिनेट के डिसिजन से नहीं लिया जा सकता. सरकार को इसके लिए पहले मजदूर संगठनों से राय लेनी चाहिए थी, फिर इसे विधानसभा में लाना चाहिए था. 

ऑल इंडिया सेंट्रल काउंसिल ऑफ ट्रेड यूनियन के जनरल सेक्रेटरी महेंद्र परीदा कहते हैं, "मोदी सरकार में बीते 11 सालों में दस तरह के कंन्वेशन कराए गए हैं, लेकिन कभी मजदूरों को बुलाकर उनकी समस्या नहीं जानी गई.  बिना मजदूरों की राय लिए दस घंटे तक काम करने का नियम लागू कर दिया गया. यही नहीं, जिस राज्य में बीते एक साल में महिलाओं के खिलाफ हिंसा के 35 हजार से अधिक मामले दर्ज किए गए हों, वहां बिना सुरक्षा इंतजाम के उनके नाइट ड्यूटी की अनुमति दे दी गई है.’’ 

परीदा के मुताबिक ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांफ्रेंस (AITUC), हिन्द मजदूर सभा, सेंटर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियन (CITU), लेबर प्रोग्रेसिव फ्रंट, सेवा सहित राज्य के 10 से अधिक मजदूर संगठन सरकार के इस फैसले का विरोध कर रहे हैं. ये संगठन फिलहाल जिला स्तर पर धरना देने जा रहे हैं, अगर फैसला वापस नहीं लिया गया तो अक्टूबर के अंत में विधानसभा के सामने विशाल धरना-प्रदर्शन करने की योजना है.

CITU के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष विष्णु मोहंती कहते हैं, "इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन ने 8 घंटे की सीमा तय की है. फ्रांस, जर्मनी में सप्ताह में 35 घंटे काम तय किया गया है. भारत में केवल उद्योगपतियों का हित देखा जाता है, वर्कर का नहीं. एक वर्कर अब सप्ताह में 60 घंटे काम करने के लिए मजबूर होगा. इसके अलावा जो शहर से बाहर रहता है, उसको हर दिन चार घंटे यानी सप्ताह में 24 घंटे केवल यात्रा करने में जाएंगे. कुल 84 घंटा वो काम करेगा.’’ 

वे आगे यह भी दावा करते हैं, "जहां तीन शिफ्ट में मजदूर काम करते थे, वहां अब दो शिफ्ट में काम लिया जाएगा. नौकरी बढ़ाने के बजाय, यह घटाने का तरीका है. महिलाओं को अगर नौकरी पर रखा जाएगा तो पहले ही कागज पर साइन करा लिया जाएगा कि वह रात में काम कर सकती है कि नहीं. जो मना करेगी, उसे नौकरी नहीं मिलेगी. सरकार अगर इन नियम-कानूनों को वापस नहीं लेती है हम स्ट्राइक पर जाने को मजबूर होंगे.’’ 

प्रमुख राजनीतिक दलों की क्या राय है

बीजेपी के प्रदेश महासचिव डॉ जतिन मोहंती सरकार के इस कदम की तारीफ करते हुए कहते हैं, "दुनियाभर में जो लेबर का पैटर्न है, अभी इसी दिशा में जा रहा है. ऐसे में टाइमिंग, टेक्नोलॉजी से तालमेल बिठाना बेहद जरूरी है. जहां तक बात ओवर टाइम की है, ये तो पहले भी होता आ रहा है. हमारी सरकार ने तो इसका पेमेंट डबल कर दिया है. वैसे भी यह कामगारों की इच्छा पर है, कोई कंपनी इसे थोप नहीं सकती.’’ 

वहीं बीजेडी ने इस फैसले का कड़ा विरोध किया है. पार्टी के मजदूर प्रकोष्ठ के मुखिया और पूर्व मंत्री प्रफुल्ल सामल का कहना है कि यह एक ऐसी घोषणा है जिसकी डिमांड किसी ने नहीं की थी. वे कहते हैं, "न तो किसी राजनीतिक दल से, न ही ट्रेड यूनियन के साथ इस संबंध में सरकार ने बात की. हमने 8 घंटा ड्यूटी के लिए 200 साल आंदोलन किया, लेकिन बीजेपी सरकार तो कामगारों से अंग्रेजो से भी बदतर व्यवहार कर रही है.’’ 

वे आगे कहते हैं, "सरकारी कर्मियों को हर महीने के दूसरे शनिवार को छुट्टी मिलती है. लेकिन गैर-सरकारी कर्मियों के यह फायदा नहीं मिलता. ऐसे कामगार अब अपने परिवार को नहीं देख पाएंगे. उनका पूरा जीवन नौकरी करते और नौकरी के लिए घर से निकले-आते ही खत्म हो जाएगा. हमारी तो मांग है कि आठ से घटा कर छह घंटे की ड्यूटी की जाए.’’  बीजेडी ने मजदूर यूनियनों की मांग और उनके कार्यक्रमों को अपना समर्थन दिया है. 

काम के घंटों को लेकर इंफोसिस प्रमुख नारायण मूर्ति के बयान के बाद से शुरु हुई बहस अब देशभर में फैल रही है. हालांकि मजदूर संगठन राजनैतिक तौर पर पहले के मुकाबले मजबूत नहीं रहे हैं, बावजूद अगर वे कोई बड़ा कदम उठाते हैं तो इससे राज्य की औद्योगिक गतिविधियों पर असर पड़ सकता है.

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