ओडिशा के मलकानगिरी में बंगाली हिंदुओं पर हमला क्यों कर रहे हैं आदिवासी?
ओडिशा के मलकानगिरी जिले में कोया आदिवासियों और बंगाली मूल के लोगों के बीच दशकों से पनप रहा तनाव दिसंबर की शुरुआत में अचानक सामूहिक टकराव में बदल गया

बीते 4 दिसंबर को ओडिशा के मलकानगिरी जिले में एक आदिवासी महिला की सिरकटी लाश मिलने के बाद भारी हिंसा फैल गई. जिले के मलकानगिरी विलेज 26 (इस गांव को MV-26 भी कहा जाता है) के 150 से अधिक घर जला दिए गए. जिला कलेक्टर सोमेश कुमार उपाध्याय के मुताबिक इस हिंसा में तीन करोड़ रुपए से अधिक की संपत्ति जल कर खाक हुई है. जिन लोगों के घरों पर हमले हुए वे सभी बंगाली हिंदू बताए जा रहे हैं. निशाना बनाने में राखेलगुड़ी गांव के स्थानीय कोया आदिवासी समुदाय का हाथ बताया जा रहा है.
स्थानीय लोगों के मुताबिक यहां कोया समुदाय की एक आदिवासी महिला लेक पोडियामी की जमीन पर बांग्लाभाषी सुकुमार मंडल बीते दस सालों से बटाई पर खेती कर रहे थे. लेकिन बीते साल पोडियामी के पति की मौत हो गई. इसके बाद उन्होंने तय किया कि वे अपनी जमीन पर खुद खेती करेंगी. सुकुमार मंडल वह उन्हें लौटाने के लिए तैयार नहीं थे.
बीते 1 दिसंबर को पोडियामी धान की कटाई के लिए उसी खेत पर गई, लेकिन लौट कर नहीं आई. फिर 4 दिसंबर को एक महिला की सिरकटी लाश मिली, लोगों ने उसे पोडियामी के तौर पर पहचाना. इसके बाद तुरंत इलाके में तनाव फैल गया. राखेलगुड़ी गांव के आदिवासियों ने पारंपरिक हथियारों के साथ बंगाली गांव मलकानगिरी विलेज-26 पर हमला बोल दिया और कई घरों को आग लगा दी. हालांकि दोनों समुदायों के बीच संघर्ष की यह कोई पहली घटना नहीं थी. इससे पहले साल 2001 में रायगढ़, रंगाबाती और जामडोरा में दोनों समुदायों के बीच हुई हिंसा के दौरान पुलिस फायरिंग में कुल 7 लोगों की मौत हो गई थी. मृतकों में दोनों ही समुदाय के लोग शामिल थे.
घटना तात्कालिक, कारण पुराने
इस आगजनी के पीछे भले ही एक तात्कालिक घटना को जिम्मेदार माना जा रहा है, लेकिन तनाव के कारण यहां दशकों के मौजूद हैं. हाल के वर्षों में इन बांग्लाभाषी समुदाय और स्थानीय कोया आदिवासियों के बीच लगातार संबंध बिगड़े हैं. आदिवासियों का आरोप है कि बांग्ला भाषी लोग बसने के लिए उनकी जमीन पर अतिक्रमण कर रहे हैं.
बांग्लादेशी इतिहासकार के. मौदूद इलाही के एक लेख 'रिफ्यूजीज इन दंडकारण्य' के मुताबिक सन 1947 में भारत विभाजन के बाद पूर्वी बंगाल से भारत की ओर लगभग 25 लाख लोगों का पलायन हुआ. इनमें अधिकांश हिंदू थे, जबकि कुछ संताल आदिवासी भी थे. शुरूआत में ये पश्चिम बंगाल में बसे. सन 1960 के दशक में भारत सरकार ने इन्हें पुनर्वासित करने के लिए दंडकारण्य क्षेत्र को चुना. इसके लिए बाकायदा दंडकारण्य विकास प्राधिकरण की स्थापना की गई. सन 1963 तक दंडकारण्य में 6000 लोगों को बसाया गया, वहीं सन 1971 में इनकी संख्या बढ़कर 16,000 के लगभग हो गई.
इनके लिए मलकानगिरी और नबरंगपुर के 281 गांव बसाए गए. जबकि जगतसिंहपुर और खुर्दा में छोटी-छोटी बस्तियां बसाई गई. इन लोगों को 1970 के दशक में भारतीय नागरिकता दी जाने लगी. साथ ही घर बनाने और खेती करने के लिए जमीन भी दी गई. फिलहाल इनकी आबादी 2.5 लाख से अधिक बताई जाती है. बीते दशकों में सामाजिक व्यवस्था और स्थानीय अर्थव्यवस्था पर इनकी पकड़ काफी मजबूत हो गई है. ST आरक्षित मलकानगिरी विधानसभा सीट और नबरंगपुर लोकसभा सीट जैसी सीटों पर ये निर्णायक भूमिका निभाते हैं.
वहीं दूसरी तरफ राज्य के कुल 64 आदिवासी समुदायों में कोया आदिवासी जो कि वहां के मूल निवासी हैं, सदियों से मलकानगिरी इलाके में ही रहते आ रहे हैं. ओडिशा सरकार के मुताबिक उनकी जनसंख्या 1,47,137 है.
विजय उपाध्याय बीते सन 1977 से मलकानगिरी में कोया आदिवासियों के बीच सामाजिक काम कर रहे हैं. वे बताते हैं, "कोया आदिवासी 100 सालों से अधिक समय से यहां रह रहे हैं. इनमें बहुत बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जिन्हें सरकार ने आज तक उनकी जमीन का पट्टा नहीं दिया. यही नहीं, इन बांग्लाभाषियों से पहले मांछकुंड जल विद्युत परियोजना के विस्थापित, जिनमें 90 फीसदी से अधिक आदिवासी है, उन्हें बसाया गया था. लेकिन आज तक इन्हें भी जमीन का पट्टा नहीं दिया गया. ये जिस जमीन पर खेती कर रहे हैं या रह रहे हैं उसका मालिकाना हक नहीं दिया गया है. सन 1960 में इन्हें पजेशन पट्टा यानी अस्थाई पट्टा दिया गया. इस वादे के साथ कि इसे स्थाई कर दिया जाएगा, लेकिन आज तक ऐसा नहीं हुआ. जबकि बांग्लाभाषियों को पट्टा इनसे पहले दिया गया है.” इस मामले ने भी बंगाली लोगों के खिलाफ आदिवासियों में आक्रोश भरने का काम किया है.
उपाध्याय के मुताबिक आदिवासियों की यह लड़ाई आज से नहीं, बल्कि सन 1977 से संगठित रूप से चल रही है. आदिवासी समुदाय बांग्लाभाषियों के खिलाफ नहीं है, बल्कि अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं. वे बताते हैं, "हालिया हिंसक घटना के बाद भी जब जिलाधिकारी ने बीते 14 दिसंबर को शांति समिति की बैठक की, तो उसमें हमने इन्हीं दो समुदायों को पट्टा देने का अनुरोध किया है. अगर ऐसा हो जाता है तो भविष्य में किसी तरह की हिंसक घटना नहीं घटेगी.”
वहीं नबरंगपुर से पूर्व कांग्रेसी सांसद और अब बीजेडी के नेता प्रदीप माझी दोनों समुदायों के बीच के झगड़े के मुख्य तीन कारण बताते हैं. उनके मुताबिक बाहर से आने के बावजूद बांग्लाभाषी समुदाय बीते वर्षों में अधिक शिक्षित और समृद्ध हुआ है. ऐसे में रेवेन्यू और जमीन से जुड़े अधिकतर अधिकारी या कर्मचारी इसी समुदाय से हैं. यही वजह है कि फिफ्थ शेड्यूल एरिया होने के बावजूद वे जमीन के कागजों में हेरफेर कर आदिवासियों की जमीन पर कब्जा कर रहे हैं.
दूसरी वजह ये है कि आदिवासियों के खिलाफ पुलिस के अत्याचार की घटनाएं हाल के वर्षों में काफी बढ़ गई है. बीते अगस्त में मलकानगिरी जिले के पोडिया ब्लॉक के परसापल्ली गांव के गांगा माढ़ी नाम के आदिवासी युवक पर पुलिस ने गाड़ी चढ़ा दी. जिससे उसकी मौत हो गई थी. उसके परिवार को न्याय देने के बजाय उन पुलिसकर्मियों का ट्रांसफर तक नहीं किया. आदिवासी नेता बंदू मृदुली जब दो माह पहले अपने समाज की समस्या लेकर पुलिस के पास पहुंचते हैं तो मलकानगिरी के जिलाधिकारी उनकी तरफ देखते तक नहीं हैं. ये आदिवासी नेता कोई राजनीति से जुड़े हुए नहीं होते, ये अपने समाज के अगुआ होते हैं. अधिकारी इन्हें सम्मान देने के बजाय नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं. आदिवासी समाज के लोग अपने ग्राम प्रधान का अपमान कतई बर्दाश्त नहीं करते.
माझी तीसरी वजह यह बताते हैं कि बीते विधानसभा और लोकसभा चुनाव में बांग्लाभाषी समुदाय ने BJP को एकमुश्त वोट किया. BJP को उन सीटों पर सफलता भी मिली. बदले में विधायकों या सांसदों के जो प्रतिनिधि नियुक्त होते हैं, उसमें सभी बांग्लाभाषी लोगों को ही नियुक्त किया गया है. कोया आदिवासियों के गुस्से को भड़काने के लिए इतना काफी था.
हालांकि मलकानगिरी बंगाली समाज के अध्यक्ष गौरांग कर्मकार ताजा मामले को दो समुदायों की हिंसा मानने के इनकार करते हैं. उनके मुताबिक यह एक गांव के लोगों का दूसरे गांव के लोगों पर किया गया हमला है. वे कहते हैं, "दोनों समुदायों के बीच में कभी हिंसा नहीं हुई. बांग्लाभाषियों पर आदिवासियों की जमीन कब्जाने का आरोप भी सही नहीं है. यह बात जरूर है कि बांग्लाभाषी समुदाय किसी को भी एकमुश्त वोट करते हैं. लेकिन यह वोट आदिवासी समुदाय के खिलाफ नहीं होता. बल्कि खुद के लिए होता है. अब अगर कोई विधायक या सांसद अपना प्रतिनिधि बांग्लाभाषी समुदाय के लोगों को चुने, इसमें समुदाय का क्या दखल है.”
हिंसा के बीच बांग्लाभाषियों को नागरिकता मिली
इधर हिंसा के कुछ दिन बाद यानी 12 दिसंबर को ओडिशा में कुल 35 लोगों को भारतीय नागरिकता दी गई. ये सभी बांग्लाभाषी हिंदू हैं. यहां अब तक कुल 51 लोगों को भारत की नागरिकता दी जा चुकी है. वहीं 1,100 आवेदन अब भी लंबित हैं.
हिंसा को लेकर स्वभाविक तौर पर राजनीतिक बयानबाजी होनी थी. BJD के विधायक प्रताप केशरी देब ने कहा कि मोहन माझी सरकार दो गांवों के बीच लंबे समय से चले आ रहे विवादों और उसके बाद हुई आगजनी जैसी घटनाओं को सुलझाने में पूरी तरह नाकाम रही है. राज्य के कानून-व्यवस्था के हालात बदतर हो गए हैं. माओवादी इस उथल-पुथल का फायदा उठा सकते हैं. उनका इशारा इस बात की ओर था कि छत्तीसगढ़ से भाग कर माओवादी यहां शरण ले सकते हैं और राज्य में दोबारा अपनी पैठ बना सकते हैं. वहीं BJP विधायक टंकधर त्रिपाठी ने कहा कि पहले की BJD सरकार के उलट मोहन माझी सरकार ने घटना के तत्काल बाद कार्रवाई की और हालात को नियंत्रण में लिया.
जमीन के मसले को लेकर देश के अन्य राज्यों के आदिवासियों की तरह ओडिशा के आदिवासी भी उतने ही संवेदनशील हैं. पांचवी शेड्यूल एरिया, जहां आदिवासियों का जमीन गैर-आदिवासियों के बीच हस्तांतरित नहीं किया जा सकता, मलकानगिरी में बड़ी संख्या में जमीन गैर-आदिवासियों के कब्जे में गए हैं. इसके देखते हुए बीचे 2.6 साल में आदिवासियों के 20 से अधिक संगठन खड़ा हो चुके हैं. इनका एकमात्र मुहिम इन जमीन की वापसी कराना है. आनेवाले दिनों में ऐसे संघर्ष और देखने को मिल सकते हैं.