नवीन पटनायक BJP के साथ हैं और खिलाफ भी! BJD की उपराष्ट्रपति चुनाव से दूरी क्या बताती है?

BJD के कई नेता मानते हैं कि वोटिंग से दूर रहना BJP को परोक्ष समर्थन देने जैसा है और उनकी पार्टी ने ओडिशा के वोटरों को मजबूत संदेश भेजने का मौका गंवा दिया

BJD नेता और पूर्व मुख्यमंत्री नवीन पटनायक (फाइल फोटो)

बीजू जनता दल BJD  ने 9 सितंबर को हुए उपराष्ट्रपति चुनाव में वोटिंग से दूरी बनाने का जो फैसला लिया, उसने साफ कर दिया है कि सत्ता गंवाने के बाद पार्टी अपनी पहचान फिर से गढ़ने की कोशिश में किस तरह की दुविधाओं से गुजर रही है.

पार्टी सुप्रीमो नवीन पटनायक, जिन्होंने 24 साल तक लगातार ओडिशा के मुख्यमंत्री के तौर पर राज्य चलाया, उन्होंने वरिष्ठ नेताओं, पॉलिटिकल अफेयर्स कमेटी (पीएसी) के मेंबर्स और सांसदों से चर्चा करने के बाद ही यह कदम उठाने की मंजूरी दी.

उपराष्ट्रपति का मुकाबला- जिसमें NDA ने सी.पी. राधाकृष्णन को उम्मीदवार बनाया था और विपक्ष ने रिटायर्ड सुप्रीम कोर्ट जज बी. सुदर्शन रेड्डी को- असल में एक ऐसा मंच बन गया, जिस पर BJD ने BJP वाले गठबंधन और इंडिया ब्लॉक दोनों से बराबर दूरी बनाने की अपनी रणनीति दिखाई.

राज्यसभा में BJD नेता सस्मित पात्रा ने फैसले का ऐलान करते हुए कहा कि पार्टी का ध्यान ओडिशा की साढ़े चार करोड़ जनता के विकास और भलाई पर है. यह लाइन लंबे वक्त से BJD की राष्ट्रीय राजनीति में पहचान रही है, मगर मौजूदा हालात उन बरसों से अलग हैं, जब पटनायक के पास राज्य की सत्ता भी थी और संसद में भी अच्छी ताकत.

आज BJD की हालत यह है कि उसके पास लोकसभा में एक भी सांसद नहीं है और राज्यसभा में सिर्फ सात मेंबर बचे हैं, यानी दशकों में सबसे कमजोर राष्ट्रीय मौजूदगी. ऐसे में पटनायक का हर फैसला दिल्ली के साथ-साथ ओडिशा में पार्टी कैडर भी बारीकी से देख रहा है. कार्यकर्ताओं में बेचैनी बढ़ रही है, क्योंकि उन्हें लगता है कि BJP से निबटने के मामले में पार्टी का रुख साफ नहीं है, जबकि राज्य में BJP सत्ता में है.

इस फैसले से पहले पटनायक ने दिल्ली में सांसदों से मुलाकात की और हाल ही में पार्टी की पॉलिटिकल अफेयर्स कमिटी की मीटिंग भी बुलाई थी. पार्टी के अंदरूनी सूत्र बताते हैं कि ज्यादातर वरिष्ठ नेताओं ने NDA  के उम्मीदवार का विरोध करने की सलाह दी थी, जबकि एक छोटा मगर असरदार गुट राधाकृष्णन के समर्थन के पक्ष में था.

पटनायक का "ऐब्स्टेन" यानी वोटिंग से अनुपस्थित रहने वाला फैसला दरअसल एक तरह का समझौता फॉर्मूला था. इससे पार्टी को BJP का खुलकर साथ देने की शर्मिंदगी से भी बचा लिया गया और साथ ही केंद्र सरकार से सीधी टक्कर लेने से भी परहेज कर लिया गया. कई नेताओं ने माना कि यह कदम उपराष्ट्रपति चुनाव के नतीजे पर असर डालने से ज्यादा पार्टी के अंदर उबल रहे तनाव को काबू में रखने के लिए उठाया गया.

पार्टी के भीतर यह बेचैनी अप्रैल से ही बढ़ने लगी थी, जब वक्फ संशोधन विधेयक को लेकर BJD का रुख सवालों में आ गया. उस वक्त राज्यसभा में बहस के दौरान पार्टी ने बिल का विरोध किया, लेकिन बाद में सांसदों को "अंतरात्मा की आवाज" के हिसाब से वोट डालने की छूट दे दी. इसे NDA को परोक्ष मदद देने की चाल समझा गया. पार्टी के भीतर बहुतों को यह दोहरा रवैया नागवार गुजरा और उन्होंने इसे इस बात का सबूत माना कि लीडरशिप असली विपक्ष का रोल निभाने से कतरा रही है. अब उपराष्ट्रपति चुनाव में वोटिंग से दूर रहकर पटनायक को ऐसा रास्ता चुनते देखा जा रहा है, जिससे सीधे  NDA को समर्थन देने पर जो आलोचना होती, उससे बचा जा सके.

लेकिन इस तरह का संतुलन साधने की अपनी कीमत भी है. कई BJD नेताओं का कहना है कि वोटिंग से दूर रहना असल में BJP को परोक्ष सहमति देने जैसा है और पार्टी ने NDA उम्मीदवार का विरोध करके ओडिशा के वोटरों को मजबूत संदेश देने का मौका गंवा दिया. उनका मानना है कि राज्य की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी होने के नाते BJD अपनी पहचान को लगातार धुंधला नहीं रख सकती, अगर उसे भविष्य में BJP सरकार के खिलाफ भरोसेमंद विकल्प बनना है. उन्हें डर है कि ऐब्स्टेन करने से जनता के बीच यही छवि और पक्की होगी कि BJD केंद्र में BJP नेतृत्व से पुराने रिश्ते तोड़ने से या तो हिचक रही है या फिर असमर्थ है.

राष्ट्रीय पार्टियां भी इसी तरह इस फैसले को पेश कर रही हैं. BJP के वरिष्ठ नेता और केंद्रीय आदिवासी मामलों के मंत्री जुअल ओरांव ने  ऐब्स्टेन  करने के फैसले का स्वागत किया और इसे NDA उम्मीदवार को अप्रत्यक्ष समर्थन बताया. बारगढ़ के सांसद प्रदीप पुरोहित ने भी कहा कि इससे फायदा साफ तौर पर राधाकृष्णन को ही होगा. वहीं, ओडिशा कांग्रेस अध्यक्ष भक्तचरण दास ने और सख्त रुख अपनाते हुए BJD पर सीधे-सीधे भगवा खेमे का साथ देने और विपक्ष की असली भूमिका निभाने का मौका गंवाने का आरोप लगाया.

BJD इससे पहले भी ऐसा कर चुकी है. 2012 में उसने उपराष्ट्रपति चुनाव में वोटिंग से दूरी बना ली थी. तब मुकाबला यूपीए के हामिद अंसारी और NDA के जसवंत सिंह के बीच था, जिसे आखिरकार अंसारी ने जीता. खुद को बराबर दूरी पर बताने के बावजूद BJD ने कई अहम मौकों पर NDA का साथ दिया है, 2017 और 2022 के राष्ट्रपति चुनावों में उनके उम्मीदवारों को समर्थन देकर, और संसद में कई अहम बिल पास कराने में मदद करके. नतीजा यह हुआ कि लगातार यह छवि बनी रही कि BJD औपचारिक रूप से अलग खड़े होने के बावजूद NDA के लिए ज्यादा सहज है, विपक्ष के लिए नहीं.

मगर मौजूदा वक्त की खासियत है पार्टी की कमजोरी. अब ओडिशा में सत्ता की ताकत का कवच नहीं है, इसलिए BJD के हर कदम को इस नजर से देखा जा रहा है कि वह BJP से टकराने को कितनी तैयार है या कितनी हिचक रही है. ऐब्स्टेन करके पार्टी भले ही अंदरूनी तनाव को थोड़ा शांत कर ले, लेकिन बाहर वोटरों के बीच शक और बढ़ सकता है, जो चाहते हैं कि विपक्ष खुलकर सामने आए. नवीन पटनायक की राजनीति अब तक राष्ट्रीय स्तर पर तटस्थ बने रहने पर टिकी थी. लेकिन अब उनके सामने सवाल यह है कि क्या वही पुराना फॉर्मूला इस बदले हुए हालात में उनकी पार्टी को संभाल पाएगा.

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