महाराष्ट्र : राजनीति से लेकर आंदोलन तक सबके अपने-अपने शिवाजी
जहां हिंदू दक्षिणपंथी शिवाजी को मुस्लिम विरोधी के रूप में पेश करते हैं, वहीं 'प्रगतिशील' लोग उन्हें उच्च जातियों के खिलाफ एक न्यायवादी के तौर पर देखते हैं. ऐसे में हकीकत क्या है और महाराष्ट्र की राजनीति में शिवाजी की प्रासंगिकता कितनी है, आइए इसे समझने की कोशिश करते हैं

अगस्त की 25 तारीख को जब 17वीं सदी के मराठा शासक छत्रपति शिवाजी की 35 फुट ऊंची मूर्ति ढही, तो वहां की राजनीति में मानो जलजला ही आया. इस घटना के कुछ ही दिनों बाद 30 अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसके लिए सार्वजनिक रूप से माफी मांगी. पीएम मोदी ने ही पिछले साल दिसंबर में नौसेना दिवस पर इस मूर्ति का अनावरण राज्य के सिंधुदुर्ग जिले में स्थित राजकोट किले में किया था. मूर्ति ढहने की घटना के बाद विपक्षी महा विकास अघाड़ी (एमवीए) सड़कों पर उतर आया.
एमवीए ने आरोप लगाया कि मूर्ति के निर्माण में भ्रष्टाचार हुआ है. साथ ही, उसने इसके पीछे भाई-भतीजावाद को भी कारण बताया. वहीं इस घटना के बाद सत्तारूढ़ महायुति जैसे बैकफुट पर आ गया. मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे से लेकर डिप्टी सीएम और प्रधानमंत्री मोदी तक को इसके लिए माफी मांगनी पड़ी. दरअसल, महाराष्ट्र की राजनीति में शिवाजी सभी पार्टियों के लिए एक अहम स्थान रखते हैं. यह बात दीगर है कि पार्टियां उनके नाम का इस्तेमाल अपनी-अपनी राजनीति के हिसाब से करती आई हैं.
जहां हिंदू दक्षिणपंथी शिवाजी को मुस्लिम विरोधी के रूप में पेश करते हैं, वहीं 'प्रगतिशील' लोग उन्हें उच्च जातियों के खिलाफ एक न्यायवादी के तौर पर देखते हैं. ऐसे में हकीकत क्या है और महाराष्ट्र की राजनीति में शिवाजी की प्रासंगिकता कितनी है, आइए इसे समझने की कोशिश करते हैं.
इंडिया टुडे की अपनी एक रिपोर्ट में वरिष्ठ संवाददाता धवल एस. कुलकर्णी लिखते हैं, "छत्रपति शिवाजी महाराज, जिन्होंने 17वीं शताब्दी में बीजापुर की आदिलशाही और मुगलों की ताकत का सामना करते हुए दक्कन में अपना खुद का राज्य बनाया था, महाराष्ट्र में उनकी एक अलग पहचान है. शिवाजी को उनकी बहादुरी, न्याय की भावना, निष्पक्ष व्यवहार और महिलाओं के प्रति सम्मान के लिए जाना जाता है. इनमें वे महिलाएं भी शामिल हैं जिन्हें युद्ध बंदी के रूप में पकड़ा गया, लेकिन शिवाजी ने उन्हें भी इज्जत बख्शी. ये वो समस्त गुण हैं जो उन्हें अपने पूर्ववर्तियों और समकालीनों के बीच अलग पहचान देते हैं."
बहरहाल, शिवाजी की गाथा केवल महाराष्ट्र के भौगोलिक हिस्सों तक ही सीमित नहीं रहती, बल्कि उसके आगे तक जाती है. कुलकर्णी अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं कि शिवाजी उत्सव का आयोजन 1905 में सांप्रदायिक आधार पर बंगाल के विभाजन का विरोध करने के लिए किया गया था. इस मराठा योद्धा पर लिखी सबसे मार्मिक कविताओं में से एक मौजूदा उत्तर प्रदेश के उनके समकालीन कविराज भूषण ने लिखी थी. बाद में 'गुरुदेव' रवींद्रनाथ टैगोर ने भी उन पर कविता लिखी.
कुलकर्णी लिखते हैं, "शिवाजी के बारे में कई वर्जन हैं. उनमें से कई एक-दूसरे से टकराते हैं, एक-दूसरे का विरोध करते हैं और एक-दूसरे को खारिज भी कर देते हैं. वह इंसान जिसने मुसलमान शासकों और मुगलों से लड़ाइयां लड़ी, जिसे गायों और ब्राह्मणों का रक्षक कहा जाता था, और जिसने उस समय एक ब्राह्मण को मारने में संकोच नहीं किया जब 'ब्रह्महत्या' को पाप माना जाता था, अलावा इसके वह इंसान जिसने किसानों के लिए एक कल्याणकारी राज्य भी बनाया."
किसी एक इंसान के इतने सारे वर्जन का ही शायद ये परिणाम है कि महाराष्ट्र में जितनी भी राजनीतिक विचारधाराएं हैं चाहें वो वामपंथी हों, हिंदू दक्षिणपंथी हों, कट्टरपंथी मराठा समूह हो या फिर किसान नेता शरद जोशी के 'शेतकरी संगठन' जैसा उदारवादी आंदोलन, इन सबने शिवाजी की विरासत और महाराष्ट्र के आम लोगों पर इसके प्रभाव का दावा करने की कोशिश की है. इनमें से कुछ संगठनों ने अक्सर शिवाजी के बारे में इतिहास के उस वर्जन को इस्तेमाल करने की कोशिश की है जो उनकी राजनीति को सूट करती है.
कुलकर्णी लिखते हैं कि भारत जैसी जटिल सभ्यता में इतिहास और ऐतिहासिक शख्सियतों को ग्रे शेड में देखने के बजाय ब्लैक एंड व्हाइट में देखने की प्रवृत्ति का ही नतीजा है कि हमारा इतिहास-लेखन चूक और त्रुटियों से भरा हुआ है. इसने वैचारिक विभाजन से परे, लोगों को अपने हित के लिए शिवाजी के जीवन से चुनिंदा उदाहरणों को चुनने और उद्धृत करने के लिए प्रेरित किया है.
उदाहरण के लिए, हिंदू दक्षिणपंथी लोगों ने शिवाजी महाराज को मुस्लिम विरोधी के रूप में पेश किया है. इसके लिए उन्होंने शिवाजी के आदिलशाही शासकों और मुगलों के खिलाफ उनकी लड़ाई का हवाला दिया है. साल 1659 में प्रतापगढ़ किले में आदिलशाही सेनापति अफजल खान की आंतें फाड़ने और मुगल बादशाह औरंगजेब के चाचा शाइस्ता खान की उंगलियां काटने की उनकी तस्वीरों का इस्तेमाल मुसलमानों को निशाना बनाने और भड़काने के लिए किया गया है. 1970 में शिव जयंती जुलूस के दौरान भिवंडी और महाराष्ट्र के अन्य संवेदनशील इलाकों में सांप्रदायिक दंगे हुए थे. बाद में आगजनी की जांच के लिए गठित डीपी मदन कमिटी ने दंगों से निपटने के लिए पुलिस की आलोचना की थी.
तो क्या शिवाजी मुस्लिम विरोधी थे, अपनी रिपोर्ट में इसका जवाब कुलकर्णी कुछ यूं देते हैं, "शिवाजी के मुस्लिम विरोधी होने के नैरेटिव का खंडन किसी और ने नहीं, बल्कि लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने किया था. तिलक को बंबई प्रेसीडेंसी में बड़े पैमाने पर हुए सांप्रदायिक दंगों के बाद मुहर्रम के जुलूसों के जवाब में गणेश उत्सव (1893-94) की शुरुआत करके हिंदुत्व के लिए वैचारिक ढांचे की नींव रखने का श्रेय दिया जाता है. उनके बारे में ये भी कहा जाता है कि उन्होंने 1890 के दशक में केसरी और मराठा में अक्सर 'हिंदुत्व' शब्द का प्रयोग किया था."
वे आगे लिखते हैं कि साल 1896 से तिलक ने शिवाजी की जन्मोत्सवों का इस्तेमाल जनांदोलनों के लिए किया. शिवाजी को जबकि हिंदू दक्षिणपंथियों द्वारा 'गो-ब्राह्मण प्रतिपालक' (गायों और ब्राह्मणों का रक्षक) के रूप में देखा जाता है, साल 1905 में तिलक ने लिखा कि गायों और ब्राह्मणों की रक्षा करना शिवाजी के शासन का उद्देश्य नहीं था. इसके पीछे कारण बताते हुए तिलक ने कहा कि शिवाजी ने न गौशालाएं बनवाई, और न ही उन्होंने ब्राह्मण भोजन (ब्राह्मणों के लिए दावत) का आयोजन ही किया. इसी तरह, 1906 में कलकत्ता में बोलते हुए तिलक ने बताया कि शिवाजी मुसलमानों के दुश्मन नहीं थे और उनका संघर्ष अन्याय के खिलाफ लड़ाई थी. उन्होंने मुसलमानों से भी उत्सव में शामिल होने का आह्वान किया था.
महाराष्ट्र के 'प्रगतिशील' तबके ने भी शिवाजी के जीवन और समय का इस्तेमाल ऊंची जातियों, खासकर ब्राह्मणों पर हमला करने के लिए किया है. उनका दावा है कि जब अफजल खान के ब्राह्मण प्रतिनिधि कृष्णजी भास्कर कुलकर्णी ने आदिलशाही सेनापति की हत्या के बाद शिवाजी महाराज पर हमला किया, तो शिवाजी ने उसे मारने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी.
शिवाजी ने ब्राह्मण सूबेदार जीवाजीपंत को भी कड़ी चेतावनी दी थी, जिनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने जंजीरा के सिद्दियों के साथ युद्ध में लगी मराठा सेना की मदद करने में जानबूझकर देरी की थी. कुलकर्णी अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं, "तब सूबेदार से यह पूछते हुए कि क्या उसने अपने फायदे के लिए सिद्दियों के प्रति अपनी वफादारी बदल ली है, शिवाजी ने जीवाजीपंत से सख्ती से पूछा, "ब्राह्मण म्हणुन कोन मूलहिजा करु पाहतो?" (सिर्फ इसलिए कि आप एक ब्राह्मण हैं, आपकी रक्षा कौन करेगा?) हालांकि, ये 'प्रगतिशील' तबका जीवाजीपंत के पाला बदलने को तो कोट करते हैं लेकिन और भी जो मराठा सामंतों ने शिवाजी को धोखा दिया, उनके बारे में कुछ नहीं कहते.
शिवाजी की छवि को अक्सर मुस्लिम विरोधी और मराठा-ब्राह्मण संघर्ष तक ही सीमित कर दिया जाता है. लेकिन इन दो घटनाओं के अलावा भी घटनाएं हैं जो इस गौरवशाली मराठा शासक की छवि को बयान करती हैं. कुलकर्णी लिखते हैं कि अपने पिता शाहजी की जागीर पुणे के प्रभारी के रूप में छत्रपति ने पुणे के रांझा गांव के पाटिल या मुखिया बाबाजी गूजर पाटिल को एक महिला के साथ बलात्कार करने के लिए दंडित किया था. कई सालों बाद उन्होंने अपने अधिकारियों को पत्र लिखकर उन्हें अपने राज्य में किसानों द्वारा उगाई गई सब्जी के डंठल को भी छूने से मना किया, जो बताता है कि वे किसानों को लेकर कितने संवेदनशील थे.
बहरहाल, शिवाजी को अपना आदर्श बताने वाली महाराष्ट्र की पार्टियों ने सिर्फ उनके नाम को राजनैतिक फायदे के लिए इस्तेमाल किया है. कुलकर्णी लिखते हैं कि शिवाजी और उनकी विरासत के बारे में सिर्फ दिखावा करते हुए सरकारों ने लगातार उनके पहाड़ी किलों के संरक्षण, रखरखाव और देखभाल की उपेक्षा करना चुना है. ये वो जगहें थीं जिसने छत्रपति महाराज के स्वराज्य के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.
इसके अलावा मराठा और समकालीन इतिहास पर पुरानी और दुर्लभ पुस्तकों को रखने वाले अभिलेखागार और पुस्तकालय भी धन की कमी और मोदी लिपि (मराठी भाषा लिखने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली) में ऐतिहासिक दस्तावेजों की कमी के कारण सुस्त पड़े हैं. ये इतिहास में अब तक अज्ञात घटनाओं पर प्रकाश डाल सकते थे.