क्या एक दक्षिण भारतीय बदल पाएगा झारखंड कांग्रेस की किस्मत?
आंध्र प्रदेश के के. राजू इस समय झारखंड में कांग्रेस के प्रभारी हैं और उनके हाथ में यहां पार्टी को नए सिरे से खड़ा करने की जिम्मेदारी है

झारखंड कांग्रेस में इन दिनों बदलाव की बयार चल रही है. पंचायत से प्रखंड तक, जिला से राज्य मुख्यालय तक जोरदार हलचल है, क्योंकि पार्टी में सांगठनिक बदलाव की प्रक्रिया बारीक जांच के दौर से गुजर रही है. प्रदेश प्रभारी के. राजू के नेतृत्व में जिलाध्यक्षों के चयन के लिए अलग-अलग राज्यों के नेताओं को पर्यवेक्षक बनाया गया है. इसमें पूर्व मंत्री, पूर्व स्पीकर से लेकर सांसदों-विधायकों तक को शामिल किया गया है.
राज्यभर में कांग्रेस के जमीनी स्तर के कार्यकर्ता अपनी लॉबिंग करने में लग गए हैं. दूसरे राज्यों के कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने जिलों में सात से दस दिन का कैंप शुरू कर दिया है. आलम ये है कि प्रदेश कमेटी में शामिल होने के लिए कुल 1280 आवेदन आए हैं. जिसमें कार्यकारी अध्यक्ष के लिए 150, प्रदेश महासचिव के लिए 275, प्रदेश सचिव के लिए 170, प्रवक्ता के लिए 35 और पॉलिटिकल अफेयर कमेटी में जगह पाने के लिए 35 कांग्रेसियों ने आवेदन दिए हैं.
यहां तक कि आगामी लोकसभा चुनाव के लिए बीएलओ का चयन शुरू कर दिया गया है. ऐसा लग रहा है जैसे सालों से ठहरे हुए पानी में किसी ने बड़ा पत्थर फेंका और हलचल मच गई. और यह सब हो रहा है एक दक्षिण भारतीय कांग्रेसी नेता, झारखंड प्रभारी कोपुल्ला राजू या के. राजू के नेतृत्व में.
आंध्रप्रदेश कैडर के 1981 बैच के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी रहे के. राजू ने वर्ष 2013 में स्वैच्छिक सेवानिवृति ले ली थी. वे केंद्र में तत्कालीन यूपीए सरकार के वक्त सोनिया गांधी के नेतृत्व में गठित राष्ट्रीय सलाहकार परिषद में सचिव थे. सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, मनरेगा और खाद्य सुरक्षा बिल का ड्राफ्ट तैयार करने में उनकी अहम भूमिका थी. राजू अब झारखंड में कांग्रेस को जमीनी स्तर पर मजबूती देने में जुटे हुए हैं.
कहा ये जा रहा है कि राज्य और जिला स्तर पर जंबो कमेटी की जगह छोटी और प्रभावी टीम तैयार करने की कवायद चल रही है. इसके तहत पंचायत स्तर पर पहली बार कमेटी बन रही है. जहां पंचायत, मंडल और प्रखंड स्तर पर 12 पदाधिकारियों की टीम, जिला स्तर पर 24 और राज्य स्तर पर मात्र 48 पदाधिकारियों की टीम होगी. इसमें 50 प्रतिशत एसटी, एसटी, ओबीसी को जगह दी जाएगी. कांग्रेस के ‘संगठन सृजन वर्ष’ कार्यक्रम के तहत झारखंड चौथा प्रदेश है, जहां जिलाध्यक्षों की चयन की प्रक्रिया शुरू हो चकी है. अक्टूबर में इसकी घोषणा कर दी जाएगी.
कितने अलग हैं के. राजू
झारखंड में कांग्रेस ने अब तक जितने नेताओं को प्रदेश प्रभारी बनाया है, राजू उसमें तीसरे दक्षिण भारतीय हैं. इससे पहले साल 2010 में के. केशव राव और साल 2013 में बीके हरिप्रसाद प्रभारी रह चुके हैं.
संयुक्त बिहार में एनएसयूआई के संस्थापकों में से एक अनादि ब्रह्म बीते 55 साल से कांग्रेस में हैं और इस वक्त झारखंड कांग्रेस के उपाध्यक्ष हैं. वे कहते हैं, “इसे कहने में कोई गुरेज नहीं था कि राज्य में कांग्रेस लंबे समय तक गुटबाजी में उलझी रही. पार्टी ऑफिस में गाहे-बगाहे नेता आते थे, लेकिन जब कोई कार्यक्रम होता था तो अधिकतर सिरे से गायब पाए जाते थे. हम बस सर्वाइवल की बात कर रहे थे, रिवाइव की सोच भी नहीं पा रहे थे. पार्टी रूटीन वर्क कर रही थी, लेकिन गतिशील नहीं थी. इसे गतिशील बनाने का पहला श्रेय पूर्व प्रभारी अविनाश पांडेय और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष राजेश ठाकुर को जाना चाहिए. इसके बाद राहुल गांधी की यात्रा ने पार्टी के अंदर जान फूंक दी.’’
वे आगे यह भी कहते हैं, “चुनाव हुए, हमने जीत दर्ज की. लेकिन जमीन का कार्यकर्ता अब भी प्रदेश नेतृत्व से खुद को सीधे तौर पर जुड़ा हुआ महसूस नहीं कर पा रहा था. के. राजू ने इस गैप को पूरी तरह से खत्म कर दिया है. आज प्रखंड स्तर पर भी किसी पदाधिकारी की नियुक्ति होनी है, तो रांची प्रदेश मुख्यालय से नहीं, बल्कि प्रदेश अध्यक्ष उस गांव, पंचायत जाकर अपने पदाधिकारी को नियुक्त पत्र दे रहे हैं.’’
पार्टी के रांची नगर अध्यक्ष कुमार राजा भी अनादि की बात से सहमत दिख दिखते हैं. किसी का नाम लिए बिना वे कहते हैं, “पूर्व के प्रदेश प्रभारी जहां सीएम और पार्टी के मंत्रियों से अधिक संवाद और मुलाकात में व्यस्त रहते थे, वहीं के. राजू बमुश्किल दो से चार बार, वह भी केवल अहम मौकों पर ही सीएम हेमंत सोरेन से मुलाकात की है. यही नहीं, वे सात महीने में 10 बार झारखंड का दौरा और तीन बार पूरे प्रदेश का दौरा कर चुके हैं. मंत्रियों के जनता दरबार की मॉनिटरिंग भी खुद कर रहे हैं.’’
दयामनी बारला झारखंड के सामाजिक आंदोलनों की सबसे बड़ी महिला चेहरा हैं. वे लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस से जुड़ीं. हालांकि तमाम चर्चा के बीच भी उन्हें टिकट नहीं मिली. वे कहती हैं, “संगठन सृजन अभियान के तहत फिलहाल मुझे सामाजिक संगठनों संग संवाद स्थापित करने का काम दिया गया है. हालांकि मैंने अभी तक किसी पद के लिए आवेदन नहीं किया है.’’
बारला के मुताबिक पार्टी में आदिवासियों को जगह दी जा रही है. यह बेहतरीन पहल है. वे आगे कहती हैं, “इसके साथ-साथ जरूरी है कि जिन्हें हम शामिल कर रहे हैं, उनके मुद्दों को सही से उठाएं और उनकी समस्याओं को राजनीति से ऊपर उठकर सुलझाने का प्रयास हो. तभी इस पूरी कवायद का सकारात्मक परिणाम दिख पाएगा.’’
कितना सफल हो पाएंगे राजू?
संगठन में एससी, एसटी, ओबीसी को 50 प्रतिशत हिस्सेदारी तय की गई है. इससे कांग्रेस समर्थक फॉरवर्ड क्लास में चिंता है कि सारा फोकस उधर ही होगा तो, वे कहां जाएंगे. यही नहीं, कांग्रेस की इस राजनीतिक कवायद से हेमंत सोरेन की झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) भी असहज महूसस कर रही है. खासकर एसटी को विशेष जगह दिए जाने से. नाम न छापने की शर्त पर एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता ने बताया कि जब लोकसभा चुनाव में हमारे दो सांसद चुन कर आ गए, तो आपसी बातचीत में JMM के कई नेताओं ने इस पर बड़ी हैरानी जताई, दरअसल वे इस बात से खुश नहीं थे क्योंकि दोनों ही सांसद आदिवासी हैं.
इसके अलावा कांग्रेसी विधायक समय-समय पर सरकार के कई फैसलों के खिलाफ बयानबाजी भी करते रहते हैं. बहुत कम मौकों उन्होंने इसे रोकने का प्रयास किया है.
के. राजू के प्रयासों का पहला लिटमस टेस्ट आगामी पंचायत चुनाव में होना है. खास बात यह है कि पंचायती राज मंत्रालय कांग्रेस के ही पास है. पार्टी की सोशल इंजीनियरिंग की सफलता-असफलता सबसे पहले यहीं आंकी जानी है.
उन्हें आगामी सभी चुनावों में दो और मुद्दों पर जवाब देना होगा. पहला जाति आधारित जनगणना और दूसरा पेसा एक्ट लागू करना. ये दोनों ही के. राजू की प्राथमिकता में शामिल हैं लेकिन दोनों ही काम अभी अधर में लटके हैं.
बहरहाल, इस पूरी कवायद से कांग्रेस की कोशिश है कि आनेवाले चुनावों में पार्टी JMM के सहारे नहीं, अपने बूते लड़े. छोटे भाई के टैग को हटाकर आत्मनिर्भर कांग्रेस की तरफ कदम बढ़े.