झारखंड : उजड़ने की कहानी, दशकों पुरानी; क्या विस्थापन आयोग इन लोगों को हक दिला पाएगा?
बीते 3 सितंबर को झारखंड देश का पहला राज्य बना, जिसने विस्थापन आयोग की स्थापना की है

घर चाहे फूस का हो, खपरैल हो या पक्का. उसका एक कोना चाहे वह दालान, दालान के आगे लगा नीम का पेड़, आंगन, आंगन में रखी चारपाई या किसी कमरे की खिड़की. आपके सुकून की जगह होती है. संघर्ष और सुकून से आप जी रहे हैं. अचानक किसी दिन पता चलता है आपके घर के नीचे कोयले का भंडार है. सिस्टम, जिसके शीर्ष पर सरकार है, तय कर देती है कि आपको अपना घर-बार छोड़ना होगा.
आप देश, समाज के विकास के नाम पर उसे छोड़ने पर मजबूर होते हैं. वादा किया जाता है वैसा ही सुकून का कोना आपको बसा कर दिया जाएगा. अब यहां से शुरू होता है इस वादे के पूरा होने का दशकों तक फैला इंतजार. झारखंड सरकार की मानें तो इस वक्त राज्य में अनुमानित तौर पर 1.57 लाख परिवार इसी इंतजार में जी रहे हैं. पहली पीढ़ी ने इंतजार और थोड़ा संघर्ष किया. दूसरी पीढ़ी ने ज्यादा संघर्ष किया. तीसरी पीढ़ी अब भी सड़क पर ही है.
फिलहाल झारखंड और करीब ढाई सौ साल पहले की बंगाल प्रेसिडेंसी में सन 1774 में दामोदर नदी के किनारे पहली बार कोयला खदान खुली. मान सकते हैं कि विस्थापन की शुरूआत यहीं से हो गई थी. फिर यह सिलसिला चल पड़ा. इसके बाद साल 1907 में जमशेदपुर में टाटा की खदानों के लिए 24 गांव के लोगों को विस्थापित होना पड़ा. ये भूमिज और संताल आदिवासी बहुल गांव थे. सन 1927 में टिस्को ने तीन गांव के लोगों को विस्थापित किया. ये आज भी मुआवजे का इंतजार कर रहे हैं.
आजादी के बाद सन 1951 से 95 तक कई महत्वपूर्ण औद्योगिक इकाईयों की स्थापना हुई. इसमें बोकारो स्टील प्लांट, सिंदरी खाद कारखाना, हैवी इलेक्ट्रिक कॉरपोरेशन, तांबा स्मेल्टर घाटशिला, यूरेनियम कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड के अलावा तेनुघाट थर्मल पावर स्टेशन, बोकारो थर्मल पावर स्टेशन, पतरातू थर्मल पावर स्टेशन, चांडिल डैम, डिमना, कोनार, मैथन, पंचेत, तेनुघाट डैम जैसी परियोजनाओं के अलावा टाटा, जिंदल, अडानी जैसी कंपनियों को जमीन दी गई. अनुमान है कि इससे पूरे राज्य में 15 लाख से ज्यादा लोग विस्थापित हुए. इसमें 80 से 90 फीसदी आदिवासी हैं. साल 2003 में आई इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट, नई दिल्ली के एक रिसर्च के मुताबिक साल 1951-1995 के बीच केवल हज़ारीबाग़ ज़िले में 1.14 लाख लोग विस्थापित हुए, जिनमें 41फीसदी आदिवासी और 11 फीसदी दलित थे.
ऐसा नहीं है कि राज्य में अब विस्थापन बंद चुका है. राज्य के गढ़वा जिले के छह गांव और लातेहार जिले के एक गांव कुटकु डैम परियोजना के तहत विस्थापित होने हैं. यहां कुल 780 परिवार रह रहे हैं. जिला प्रशासन माइक लगाकर इन गांवों में लोगों को घर छोड़ने के लिए कह रहा है. उन्हें ऑफर दिया जा रहा है कि या तो 15 लाख रुपया प्रति परिवार लो या फिर पांच एकड़ जमीन लो. जबकि ग्रामीणों का कहना है कि पूर्व में जिन लोगों ने केवल पैसे लेकर अपना जमीन दी, उनका पैसा तो खर्च हो गया और वो आज सड़क पर आ चुके हैं. ऐसे परिवार के बूढ़े मनरेगा में काम कर रहे हैं, युवा दक्षिण के राज्यों में मजदूरी. इससे सबक लेते हुए ग्रामीणों ने तय किया है कि वो 15 लाख रुपया के साथ पांच एकड़ जमीन भी लेंगे. इसी शर्त पर अपनी पुश्तैनी जगह को छोड़ेंगे.
सन 1965 में बोकारो स्टील प्लांट की स्थापना हुई. इससे तीन साल पहले तत्कालीन मुख्य नगर प्रशासक एएम जॉर्ज ने तय किया कि प्लांट में थर्ड और फोर्थ ग्रेड की नौकरी विस्थापित लोगों को दी जाएगी. इसके लिए उन्हें ट्रेनिंग देने का फैसला भी किया गया. दूसरी तरफ बीते 4 अप्रैल को बड़ी संख्या में लोग सन 1965 में स्थापित हुए बोकारो स्टील प्लांट के खिलाफ आंदोलन कर रहे थे. ये स्टील प्लांट लगाए जाने के बाद विस्थापित हुए लोग थे और अपने लिए स्टील प्लांट में नौकरी की मांग कर रहे थे. इस आंदोलन को रोकने के लिए सुरक्षाबलों ने लाठीचार्ज किया जिसमें एक युवक की मौत हो गई. मौत के बाद स्टील प्लांट की ओर से मृतक के परिजनों के लिए 25 लाख रुपए मुआवजा की घोषणा की गई.
उम्मीद की किरण या सिर्फ दंतहीन आयोग
संभावना है कि अब इन सभी लोगों का इंतजार खत्म हो सकता है क्योंकि बीते 3 सितंबर को झारखंड देश का पहला राज्य बना, जिसने विस्थापन आयोग की स्थापना की है. राज्य विस्थापन एवं पुनर्वास आयोग (गठन, कार्य एवं दायित्व) नियमावली, 2025 के जरिए आयोग का काम भूमि अधिग्रहण से विस्थापित व्यक्ति, परिवार, समुदाय का सामाजिक, आर्थिक अध्ययन और सर्वे करना है. आयोग सामाजिक और आर्थिक रुप से पिछड़े व्यक्ति, परिवार, समुदाय और क्षेत्रों की पहचान कर इनके पुनर्वास पर सुझाव भी देगा. साथ ही रिसर्च और योजना बनाने के लिए सरकारी संस्थाओं को डेटा उपलब्ध कराएगा.
गुलाब चंद बोकारो स्टील प्लांट के विस्थापितों की लड़ाई लंबे समय से लड़ते आ रहे हैं. वे कहते हैं, "रघुवर दास ने भी एक कमेटी बनाई थी. कमेटी ने लंबी चौड़ी रिपोर्ट भी सौंपी. लेकिन आज तक किसी को नहीं पता कि उसका क्या हुआ. हेमंत सोरेन ने घोषणा की है, लेकिन ये नहीं कहा है कि आयोग कब बनेगा. इसलिए यह पूरी कवायद फिलहाल संदेह के घेर में है. हो सकता है चुनाव जब नजदीक आएं तब इसका गठन हो.”
फिलहाल इस आयोग को बिना दांत-नाखून वाला शेर माना जा रहा है. सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि विस्थापन के मामलों में आयोग सर्वेसर्वा की भूमिका में नहीं रहेगा. आयोग के सुझाव राज्य सरकार पर बाध्यकारी नहीं होंगे. यानी सरकार चाहे तो मान ले, चाहे तो फाइल बंद कर दे. यही नहीं, आयोग के पास कार्यान्वयन की कोई शक्ति नहीं है. आयोग पर राजस्व, निबंधन एवं भूमि सुधार विभाग का प्रशासनिक नियंत्रण होगा.
झारखंड के विस्थापितों पर 'विकास की कब्रगाह' नाम से किताब लिख चुके सुनील मिंज कहते हैं, "जब आयोग के सुझाए उपाय या निर्णय मानने को सरकार बाध्य ही नहीं होगी, तो फिर इस आयोग का मतलब क्या रह जाएगा. जबकि ऐसा होना चाहिए कि आयोग सजेशन दे, सरकार बात माने. ताकि विस्थापित समुदाय को न्याय मिले.”
वहीं राजनीतिक विश्लेषक सुधीर पाल कहते हैं, "अगर आयोग की रिपोर्ट को केवल परामर्श मान लिया जाएगा, तो यह पोस्टमार्टम बोर्ड से आगे नहीं बढ़ पाएगा. आयोग को भूमि वापसी, लैंड बैंक की समीक्षा, और वनाधिकार कानून लागू करने की ठोस सिफारिशें करनी होंगी. और सबसे बढ़कर सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि आयोग की सिफारिशें अनिवार्य रूप से लागू हों. झारखंड का विस्थापन आयोग तभी इतिहास में दर्ज होगा जब वह सिर्फ हकीकत का हिसाब रखने वाला न बने, बल्कि न्याय और पुनर्वास का वास्तविक औजार साबित हो.”
चांडिल डैम परियोजना के विस्थापित तरुण कुमार तो साफ कहते हैं कि विस्थापन आयोग सब कुछ करेगा. जैसे तनख्वाह लेगा, बैठक करेगा, भ्रमण करेगा, टीए-डीए लेगा, एसी ऑफिस में बैठेगा, सरकारी घर/गाड़ी लेगा, एक्सटेंशन लेगा, रिपोर्ट देगा. लेकिन सिर्फ एक काम नहीं करेगा वो है, विस्थापितों से न्याय.