झारखंड : राज्यपाल का विश्वविद्यालयों पर नियंत्रण खत्म होगा! ‘भगवाकरण’ है वजह?

झारखंड कैबिनेट ने 24 जुलाई को ‘झारखंड राज्य विश्वविद्यालय विधेयक 2025’ को मंजूरी दी है जो लागू होता है तो वीसी नियुक्ति के साथ-साथ कई अधिकार राज्यपाल के पास नहीं रहेंगे

CM Hemant Soren with Governor Santosh Gangwar (file photo)
झारखंड के सीएम हेमंत सोरेन राज्यपाल संतोष गंगवार के साथ (फाइल फोटो)

झारखंड में हेमंत सोरेन सरकार राज्य के विश्वविद्यालयों में कुलपति यानी वीसी की नियुक्ति का अधिकार राज्यपाल से वापस लेने वाली है.   सरकार की कोशिश सफल रही तो वीसी ही नहीं, इसके अलावा प्रो वीसी, रजिस्ट्रार, एग्जाम कंट्रोलर, वित्तीय सलाहकार सहित अन्य पदों पर नियुक्ति का अधिकार राज्यपाल के पास न होकर, अब सीएम के पास होगा. दरअसल 24 जुलाई को झारखंड कैबिनेट ने ‘झारखंड राज्य विश्वविद्यालय विधेयक 2025’ को मंजूरी दी है जिसमें ये सारे प्रावधान शामिल किए गए हैं. 

इस विधेयक के मुताबिक विश्वविद्यालयों, उनके विभाग और उनके तहत आनेवाले कॉलेजों में शिक्षकों एवं गैर-शैक्षणिक पदों पर बहाली के साथ-साथ प्रमोशन का फैसला भी राज्य सरकार करेगी.

कैबिनेट की बैठक खत्म होने के बाद कैबिनेट सचिव वंदना दादेल ने बताया कि यह प्रस्ताव उच्च एवं तकनीकी शिक्षा विभाग की ओर से लाया गया था. इसमें विश्वविद्यालय सेवा आयोग के गठन का निर्णय लिया गया है. अब सभी विश्वविद्यालयों के लिए सिंगल अंब्रेला एक्ट बनेगा. इसी के तहत सभी विश्वविद्यालय संचालित होंगे. 

यही नहीं, किसी तरह के वाद-विवाद की स्थिति से निपटने के लिए विभाग में एक ट्रिब्यूनल का गठन होगा. अगर किसी मंजूर नहीं होगा तो वह हाईकोर्ट जा सकेगा. इसके अलावा सीनेट की अध्यक्षता प्रो वीसी या उच्च एवं तकनीकी विभाग के मंत्री करेंगे. जबकि सिंडिकेट की अध्यक्षता कुलपति करेंगे. 

सभी विश्वविद्यालयों में शिकायत निवारण तंत्र बनेगा. इसके लिए विश्वविद्यालय स्तर पर रिटायर्ड जिला जज या फिर दस साल से अधिक अनुभव वाले वकील की अध्यक्षता में कर्मचारी शिकायत समिति बनेगी. वहीं राज्य स्तर पर हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज की अध्यक्षता में कर्मचारी शिकायत न्यायाधिकरण की स्थापना की जाएगी. फैसले के पीछे तर्क दिया जा रहा है कि इससे राज्य के सभी विश्वविद्यालयों में एक समान नीतियां व संरचना लागू की जा सकेगी. 

यह कोई पहला मौका नहीं है जब झारखंड में राज्यपाल की शक्तियों में कटौती की कोशिश की गई है. इससे पहले ट्राइबल एडवाइजरी कमेटी (टीएसी) में सदस्यों का मनोनयन राज्यपाल के हाथों में था. लेकिन हेमंत सोरेन सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में यह व्यवस्था समाप्त कर इसका अधिकार भी सीएम को दे दिया. हालांकि तत्कालीन राज्यपाल रमेश बैस ने सरकार के इस फैसले का विरोध किया था. 

विश्वविद्यालयों का नियंत्रण अपने हाथ में लेने के पीछे सरकार का क्या तर्क है

सरकार पूरी तरह से विश्वविद्यालयों का नियंत्रण अपने हाथ में क्यों लेना चाहती है? इस सवाल के जवाब में उच्च एवं  तकनीकी शिक्षा विभाग के मंत्री सुदिव्य सोनू कहते हैं, “विश्वविद्यालयों में प्रशासनिक स्तर पर जो लोग हैं, उन्हें राज्य सरकार के प्रति जवाबदेह बनाया है. पहले जवाबदेही कहीं और थी.” 

सोनू आगे दलील देते हुए कहते हैं, “दूसरी बात ये कि निर्वाचित सरकार जनकांक्षाओं को बेहतर समझती है, इसलिए गुणात्मक सुधार की संभावना अधिक है. तीसरी बात कि जहां शिक्षकों की नियुक्ति-पदोन्नती के मामले लंबित थे, उससे छुटकारा मिलेगा. हम घंटी आधारित नियुक्ति (प्रति घंटे के मानदेय के हिसाब से शिक्षकों की नियुक्ति) को खत्म करना चाहते हैं. बैक लॉग समाप्त हो, नियमित नियुक्ति हो, इस दिशा में काम होगा.” 

इस बीच जेएमएम ने दो कदम आगे बढ़कर ये कह दिया है कि कुलाधिपति भी राज्य के सीएम को ही होना चाहिए. न कि केंद्र द्वारा भेजे गए राज्यपाल को. पार्टी के प्रवक्ता और रांची यूनिवर्सिटी छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष तनुज खत्री कहते हैं, “सैलरी, प्रमोशन से लेकर बिल्डिंग के निर्माण तक का खर्चा राज्य सरकार उठाती है, भला ऐसे में नियंत्रण भी राज्य सरकार का ही होना चाहिए. कोई बाहर से आया आदमी यहां के छात्रों, शिक्षकों की समस्या को न तो समय पर समझेगा, न ही उसके समाधान पर गंभीरता से विचार कर पाएगा. पहले नियुक्ति राजभवन, प्रमोशन जेपीएससी और सैलरी राज्य सरकार देती थी. अब यह सब काम एक छत के नीचे होगा. यही नहीं, छात्रसंघ के चुनाव भी अब समय पर होने की संभावना बढ़ जाएगी.” 

रांची यूनिवर्सिटी सहित राज्य भर के कई कॉलेजों में साल 2019  के बाद से छात्रसंघ के चुनाव ही नहीं हुए हैं. जबकि लिंगदोह कमेटी की सिफारिश के मुताबिक छात्रसंघ का चुनाव हर साल होना चाहिए. हालांकि चुनाव कराने का निर्णय वीसी के क्षेत्राधिकार में आता है. 

इस फैसले से आखिर क्या बदल जाएगा 

फिलहाल राज्यपाल के पास सिर्फ कुलपति, प्रतिकुलपति और फाइनेंस एडवाइजर की नियुक्ति का अधिकार था. इसके अलावा फाइनेंस अफसर, परीक्षा नियंत्रक और रजिस्ट्रार के पद पर राज्य सरकार अगर स्थाई नियुक्ति नहीं कर पाती है तो इन पदों पर अस्थाई नियुक्ति का अधिकार राज्यपाल के पास है. 

इसके अलावा गजेटेड रैंक की सभी नियुक्ति का अधिकार झारखंड पब्लिक सर्विस कमिशन (जेपीएससी) और नॉन गजेटेड स्टाफ की नियुक्ति झारखंड स्टाफ सिलेक्शन कमिशन (जेएसएससी) यानी राज्य सरकार के पास ही है. बता दें झारखंड में कुल 11  विश्वविद्यालय हैं और 82 सरकारी कॉलेज हैं. 

क्या राज्य सरकार अपने हिस्से की जिम्मेदारी यानी विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में सभी खाली पदों को भर पा रही थी? फिलहाल स्थिति ये है कि पूरे राज्य में लगभग 3000 शिक्षक और 1800 कर्मचारी के पद खाली पड़े हैं. 

क्या ‘भगवाकरण’ है मुद्दा? 

हेमंत सोरेन की सरकार और पार्टी से जुड़े तमाम लोग दावा करते हैं बीते सालों में बीजेपी के सदस्य या समर्थित लोग विश्वविद्यालयों के अहम विभागों को संभाल रहे हैं. यही नहीं वे पाठ्यक्रम से लेकर तमाम नियुक्तियों पर भी फैसला करते हैं और विश्वविद्यालयों को हिंदूवादी राजनीति (भगवाकरण) का केंद्र बना रहे हैं. ताजा विधेयक के पीछे वे इसे भी एक वजह बताते हैं. 

झारखंड यूनिवर्सिटी टीचर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष डॉ जगदीश लोहरा भी कुछ यही राय रखते है, “एक हद तक कह सकते हैं कि भगवाकरण हटाने की कवायद ही दिख रही है और यह सही भी है. छात्र राजनीति पहले भी होती थी होनी भी चाहिए, लेकिन बीते दस साल में दिल्ली के जेएनयू से लेकर बहुतेरे विश्वविद्यालयों का भगवाकरण हो गया है, इससे तो कोई इंकार नहीं कर सकता. सिलेबस थोपने के नाम कैंपसों को अलग राजनीतिक अखाड़ा बना दिया गया है. मेरा साफ मानना है कि कॉलेजों में सभी तरह की विचारधारा आने का स्वागत होना चाहिए. न कि किसी एक का.” 

हालांकि विश्वविद्यालयों के मामले में राज्यपाल के अधिकारों में कटौती करने वाला झारखंड पहला राज्य नहीं है. इससे पहले पश्चिम बंगाल, केरल और तमिलनाडू की सरकारों ने ऐसे फैसले लिए हैं. 

अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के बिहार-झारखंड के क्षेत्रीय संगठन मंत्री और रांची यूनिवर्सिटी के छात्र रहे याज्ञ्यवल्क्य शुक्ला इस फैसले को संवैधानिक व्यवस्था में दखल मानते हैं. वे कहते हैं, ‘’शिक्षा के क्षेत्र में  पावर की लड़ाई नहीं होनी चाहिए. विश्वद्यालयों में शिक्षकों की बहाली तो  राज्य सरकार के पास ही है न, वह काम तो अब तक हेमंत सरकार ने किया नहीं, अब वीसी बहाल करने चले हैं. सोरेन मूल मुद्दों जैसे डोमिसाइल नीति, बेरोजगारी भत्ता नहीं दे पाए इसलिए यह छात्रों को नए मुद्दे में उलझाने की पहल भर है.’’ 

वहीं आईसा की स्टेट प्रेसिडेंट विभा पुष्पा इसे बेहतर फैसला बता रही हैं. वे कहती हैं, ‘’हम लोग लंबे समय से इसकी मांग भी कर रहे थे. यूनिवर्सिटी में ऐसे वीसी की नियुक्ति हो रही थी जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े थे. यूनिवर्सिटी का भगवाकरण हो रहा था. वीसी की स्थाई नियुक्ति नहीं हो पा रही थी, अस्थाई वीसी घोटाला करने में व्यस्त थे. विनोबा भावे विश्वविद्यालय में तो अधिकारियों ने 48 लाख रुपए का काजू, किशमिश खा लिया. उसकी जांच भी पूरी नहीं हुई.’’ 

वहीं एनएसयूआई के स्टेट प्रेसिडेंट विनय उरांव भी विभा पुष्पा की बात से सहमत हैं. उनके मुताबिक, ‘’संघ विचारधारा वाले वीसी या प्रिंसिपल हमें अपने कैंपस में घुसने तक नहीं देते, जबकि एबीवीपी को हर तरह के कार्यक्रम करने की अनुमति मिल जाती है. दूसरी बात, अगर विश्वविद्यालयों में किसी तरह की गड़बड़ी होती है, तो हम सीधे राज्य सरकार से पूछ सकते हैं. छात्रहित में राज्य सरकार से लड़ना आसान है, जबकि केंद्र से लड़ना मुश्किल.’’

इस बीच झारखंड में कुछ लोग इस कदम को विश्वविद्यालयों के बढ़ते राजनीतिकरण की तरह भी देख रहे हैं. रांची यूनिवर्सिटी के पूर्व वीसी डॉ. सत्यनारायण मुंडा कहते हैं, “कॉलेज कैंपस को राजनीति का अखाड़ा नहीं बनाना चाहिए. चाहे किसी भी पार्टी की सरकार हो. मुझे याद नहीं पिछले कुछ सालों में झारखंड की किसी भी यूनिवर्सिटी का कोई रिसर्च चर्चा में रही हो.” 

इन सब के बीच असल बात ये है कि कैबिनेट के पास होने के बाद विधेयक को विधानसभा में पेश किया जाएगा. विधानसभा से पास होने के बाद अनुमोदन के लिए राज्यपाल के पास जाएगा. सवाल ये है कि क्या राज्यपाल खुशी-खुशी और तत्काल इसे पास कर भेज देंगे? 

Read more!