उत्तर प्रदेश : सत्ता के गलियारों में कैसे फैला चूहों का आतंक?

उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री कार्यालय समेत कई अहम दफ्तरों में चूहों का आतंक कुछ इस कदर पसरा है कि बड़े-से-बड़ा अधिकारी भी इसके सामने बेबस नजर आता है

हरदोई में चूहों का आतंक (सांकेतिक फोटो)
सांकेतिक फोटो

लखनऊ का सचिवालय उत्तर प्रदेश की सत्ता का सबसे बड़ा प्रतीक है. यहीं मुख्यमंत्री और उनके सहयोगी मंत्रियों से लेकर मुख्य सचिव और प्रमुख सचिव जैसे शीर्ष अधिकारी बैठते हैं. यहीं पर फाइलें चलती हैं, फैसले लिए जाते हैं और पूरे प्रदेश के लिए नीतियां तय होती हैं. 

लेकिन सचिवालय की विशाल और प्रतिष्ठित इमारतों के भीतर आज एक ऐसी समस्या ने गहरी पैठ बना ली है जो बाहर से देखने वाले को भले मामूली लगे, लेकिन असल में शासन-प्रशासन की कार्यक्षमता को सीधे प्रभावित कर रही है. यह समस्या है चूहों का आतंक.

सचिवालय के लोकभवन से लेकर लालबहादुर शास्त्री भवन और विधान भवन से लेकर बापू भवन तक लगभग हर दफ्तर में चूहों की आवाजाही सामान्य घटना बन चुकी है. कंप्यूटर की वायरिंग कट जाना, टेलीफोन की लाइनें ठप हो जाना, फाइलों और जरूरी दस्तावेजों का कुतरा जाना अब कर्मचारियों के लिए रोजमर्रा की परेशानी है.

लोकभवन, जो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का मुख्य कार्यालय है और जहां मुख्यमंत्री सचिवालय, मुख्य सचिव का दफ्तर और गृह व उद्योग जैसे अहम विभागों के उच्च अधिकारियों के कक्ष हैं, वहां हालात सबसे गंभीर हैं. कई कर्मचारियों का कहना है कि जैसे ही शाम को दफ्तर बंद होते हैं, चूहे लकड़ी के पैनलों और छतों से निकलकर पूरे कमरे में खुलेआम दौड़ने लगते हैं. एक वरिष्ठ अधिकारी तक ने यह स्वीकार किया कि चूहों को ऑफिस में मानो लुका-छिपी खेलते देखा जा सकता है.

उत्तर प्रदेश सचिवालय कर्मचारी संघ के अध्यक्ष अर्जुन देव भारती इस समस्या को बार-बार उठा चुके हैं. उनका कहना है कि पार्किंग स्थल तक कूड़ाघर बनते जा रहे हैं और यही चूहों के लिए सबसे सुरक्षित ठिकाना है. भारती ने 4 जून 2025 को प्रमुख सचिव, सचिवालय प्रशासन को पत्र लिखकर लोकभवन में कॉकरोच की बढ़ती समस्या पर भी कार्रवाई की मांग की थी. उनका आरोप है कि केवल चूहे ही नहीं बल्कि कॉकरोच, चींटियां, आवारा कुत्ते और बंदर भी सचिवालय के कामकाज को बाधित कर रहे हैं. बापू भवन में खड़ी गाड़ियों के सीट कवर तक बंदर फाड़ डालते हैं.

यह स्थिति नई नहीं है. सचिवालय में पिछले एक दशक में कई बार ऐसे जीव-जंतु उपद्रव का कारण बन चुके हैं. वर्ष 2014 में लालबहादुर शास्त्री भवन, जहां उस समय मुख्यमंत्री कार्यालय और मुख्य सचिवालय स्थित था, में एक कस्तूरी बिलाव (Palm Civet) घुस आया था. उसकी बदबू और घबराहट से पूरा सचिवालय हिल गया था. वन विभाग और लोक निर्माण विभाग को दखल देना पड़ा. कुछ साल पहले एयर कंडीशनिंग सिस्टम में एक मृत बिज्जू मिला, जिसकी दुर्गंध ने दिनों तक कामकाज बाधित रखा था. उस समय भी सचिवालय प्रशासन को भारी आलोचना झेलनी पड़ी थी.

इसके अलावा पुराने कर्मचारियों को याद है कि 2009-10 में विधान भवन और सचिव भवन में चूहों का प्रकोप इतना बढ़ गया था कि विधानसभा की कार्यवाही तक प्रभावित हुई थी. तब तत्कालीन बीएसपी सरकार ने एक विशेष “कृंतक नियंत्रण अभियान” चलाया था जिसमें बोरियों के हिसाब से चूहेदानी और गोंद वाले जाल बिछाए गए थे. शुरुआती दिनों में समस्या पर काबू पाया गया, लेकिन जैसे-जैसे निगरानी ढीली हुई, चूहे फिर लौट आए. 

तीन साल पहले पूर्व मुख्य सचिव डीएस मिश्रा ने अपने कार्यकाल में “स्वच्छ सचिवालय अभियान” शुरू किया था. उनके नेतृत्व में भवनों की सफाई के लिए अतिरिक्त बजट दिया गया और कर्मचारियों को कड़े निर्देश जारी किए गए. शुरुआती दो वर्षों में इसका असर दिखा. सचिवालय परिसर अपेक्षाकृत साफ हुआ और चूहों की संख्या कम हुई. लेकिन मिश्रा के रिटायर होते ही यह अभियान ढीला पड़ गया और हालात फिर पुराने ढर्रे पर लौट आए. विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसे अभियानों की सफलता केवल व्यक्ति विशेष पर निर्भर नहीं होनी चाहिए, बल्कि संस्थागत रूप से इसे स्थाई नीति का हिस्सा बनाया जाना चाहिए.

जीव-जंतुओं पर नियंत्रण के लिए हर महीने लाखों रुपए खर्च होते हैं

सचिवालय प्रशासन विभाग सफाई और जीव-जंतुओं के नियंत्रण पर हर महीने बीस से पच्चीस लाख रुपये खर्च करता है. पिछले पांच वर्षों के खर्च का आकलन करें तो तस्वीर और साफ हो जाती है. 2020-21 में इस पर लगभग 1.8 करोड़ रुपये खर्च हुए थे. 2021-22 में यह बढ़कर 2.2 करोड़ तक पहुंचा. 2022-23 में कोरोना काल के बाद दफ्तरों के खुलने पर अतिरिक्त सैनिटाइजेशन और कीट नियंत्रण की वजह से खर्च करीब 2.7 करोड़ रुपये हुआ. 2023-24 में यह राशि तीन करोड़ से ऊपर चली गई और मौजूदा वित्तीय वर्ष 2024-25 में तो अभी तक चार करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च हो चुका है. यह रकम उन एजेंसियों को दी जाती है जिन्हें GeM पोर्टल के जरिए चयनित किया जाता है. इसके बावजूद स्थिति जस की तस है.

सचिवालय प्रशासन विभाग (एसएडी) ने राज्य सचिवालय के मुख्य भवनों को कम से कम अगले एक साल तक साफ-सुथरा रखने और चूहों के आतंक से मुक्त रखने का काम करने वाली एजेंसियों के चयन के लिए जीईएम पोर्टल पर बोलियां आमंत्रित की हैं. विभाग 27 सितंबर को तकनीकी बोलियां खोलने का प्रस्ताव रखा है, हालांकि उनके मूल्यांकन और वित्तीय बोलियों में कुछ समय लग सकता है. नए टेंडर के जरिए अब चार प्रमुख सचिवालय भवनों— लोकभवन, लालबहादुर शास्त्री भवन, बापू भवन और विधान भवन परिसर— के लिए एजेंसियों का चयन किया जाना है. इनमें विशेष रूप से प्रावधान किया गया है कि हर तीन महीने पर दीमक रोधी स्प्रे किया जाएगा, हर सप्ताह कॉकरोच रोधी स्प्रे होगा और शौचालयों की सफाई प्रेशर पंप से की जाएगी. इसके अलावा छत और लकड़ी के हिस्सों पर विशेष पेस्ट कंट्रोल किया जाएगा. अधिकारियों का दावा है कि इस बार अधिक सख्त नियम बनाए गए हैं और एजेंसियों पर निगरानी कड़ी होगी. लेकिन कर्मचारियों का भरोसा अब कम होता जा रहा है.

तमाम कोशिशें फेल क्यों हो रही हैं

सवाल उठता है कि लाखों रुपये खर्च होने के बावजूद समस्या क्यों बनी रहती है. विशेषज्ञ इसके पीछे दो मुख्य कारण बताते हैं. पहला कारण है कचरा प्रबंधन. सचिवालय जैसे बड़े परिसरों में रोजाना हजारों लोग आते हैं. हर मंजिल पर चाय-नाश्ते और खाने-पीने का सिलसिला चलता रहता है. पैकेट, बचे हुए टुकड़े और कचरा अक्सर डेस्क या खुले हुए कूड़ेदान में ही छोड़ दिया जाता है. सफाईकर्मी ज्यादातर सुबह आफिस खुलने से पहले ही कूड़ेदान की सफाई करते हैं. रातभर खुला पड़ा कूड़ा चूहों और कॉकरोच के लिए सबसे बड़ा आकर्षण है. दूसरा कारण है भवनों की संरचना. लोकभवन को छोड़ दिया जाए तो अधिकांश सचिवालय भवन पुराने हैं. इनमें टूटी छतें, लकड़ी के पैनल और दीवारों में दरारें हैं जो चूहों को छिपने और रास्ता बनाने के लिए आदर्श जगह देती हैं. जब तक इन जगहों को सील नहीं किया जाएगा, तब तक समस्या का स्थायी समाधान नहीं हो सकता.

कई बार कर्मचारियों की लापरवाही भी हालात बिगाड़ देती है. उदाहरण के लिए, शाम को ऑफिस बंद होने से पहले मेज पर रखा बचा खाना या पैकेट फेंकना जरूरी होता है, लेकिन अक्सर ऐसा नहीं किया जाता. सचिवालय प्रशासन विभाग ने कर्मचारियों को निर्देश दिया है कि मेज या जमीन पर कोई भी खाद्य कचरा न छोड़ा जाए लेकिन इस पर अमल करवाना मुश्किल है.

सचिवालय प्रशासन विभाग ने 4 जून 2025 को हुई बैठक में प्रस्ताव रखा कि दफ्तरों में भोजन के लिए निर्धारित जगह बनाई जाए. लेकिन लोकभवन जैसे भवनों में जगह की कमी सबसे बड़ी बाधा है. अधिकारियों का कहना है कि अगर यह प्रस्ताव लागू हो सके तो समस्या काफी हद तक सुलझ सकती है. लेकिन कर्मचारियों का कहना है कि अतिरिक्त जगह उपलब्ध कराना आसान नहीं है और इस बीच चूहों की समस्या और बढ़ती जा रही है.

लोकभवन में तैनात एक उपसचिव बताते हैं, “पिछले वर्षों के अनुभव बताते हैं कि हर बार चूहों के आतंक पर चर्चा तब होती है जब कोई बड़ा हादसा होता है. कभी मुख्यमंत्री कार्यालय की लाइनें कट जाती हैं, कभी मुख्य सचिव के दफ्तर का टेलीफोन ठप पड़ जाता है. ऐसे समय में बैठकें बुलती हैं, टेंडर जारी होते हैं और एजेंसियां बदल दी जाती हैं. कुछ समय तक स्थिति सुधरती है, फिर वही हालात लौट आते हैं. यह “फायर फाइटिंग” अप्रोच है, जबकि जरूरत “सस्टेनेबल क्लीनिंग पॉलिसी” की है.”

इस पूरी समस्या का एक और पहलू है खर्च और जवाबदेही. सचिवालय प्रशासन विभाग हर साल करोड़ों रुपये खर्च करता है. लेकिन इन एजेंसियों की निगरानी के लिए कोई मजबूत तंत्र नहीं है. यूपी राज्य कर्मचारी संयुक्त परिषद के अध्यक्ष जेएन तिवारी कहते हैं, “कई बार बोली प्रक्रिया में तकनीकी खामियों की वजह से योग्य एजेंसियों को बाहर कर दिया जाता है और कमजोर एजेंसियां अंदर आ जाती हैं. इस वजह से काम आधा-अधूरा रह जाता है और चूहों पर काबू नहीं हो पाता. अगर एजेंसियों की परफॉर्मेंस की त्रैमासिक समीक्षा हो और उनकी पेमेंट को इससे जोड़ा जाए तो स्थिति बेहतर हो सकती है.” 

कर्मचारियों की ओर से यह भी कहा जा रहा है कि समस्या केवल स्वास्थ्य और सफाई तक सीमित नहीं है, बल्कि मनोवैज्ञानिक असर भी डाल रही है. जब किसी गंभीर बैठक के बीच में चूहा दौड़ जाए या कॉकरोच टेबल पर आ जाए, तो माहौल खुद-ब-खुद हल्का हो जाता है. कई बार अधिकारी नाराज होते हैं और कर्मचारियों पर गुस्सा निकालते हैं. इससे कामकाज की गति प्रभावित होती है.

बीते वर्षों में सचिवालय में कई बार बंदर और आवारा कुत्तों ने भी परेशानी खड़ी की. 2016-17 में बापू भवन में बंदरों ने गाड़ियों के शीशे तोड़े और सीट कवर फाड़ दिए थे. उस समय वन विभाग को विशेष टीम भेजनी पड़ी थी. आवारा कुत्तों की समस्या भी लगातार बनी हुई है जो सचिवालय परिसर के भीतर बेरोकटोक घूमते रहते हैं. कर्मचारी संघ ने कई बार मांग की है कि इनके लिए भी स्थायी समाधान निकाला जाए.

इन तमाम उदाहरणों से साफ है कि सचिवालय की समस्या किसी एक भवन या एक दौर की नहीं है. यह दशकों से चली आ रही चुनौती है. कभी पाम सिवेट, कभी बिज्जू, कभी बंदर और आज चूहों की फौज—हर दौर में यह समस्या प्रशासन की कार्यक्षमता पर सवाल खड़े करती रही है. और हर बार अस्थायी उपायों से निपटने की कोशिश की गई है. अब सवाल यह है कि क्या मौजूदा प्रयास स्थायी समाधान देंगे. अधिकारी दावा कर रहे हैं कि इस बार नए टेंडर में शर्तें ज्यादा सख्त हैं और एजेंसियों पर निगरानी कड़ी होगी. लेकिन कर्मचारियों का विश्वास तभी लौटेगा जब उन्हें वास्तव में रोजमर्रा की दिक्कतों से राहत मिलेगी. विशेषज्ञ मानते हैं कि केवल पेस्ट कंट्रोल से काम नहीं चलेगा. भवनों की मरम्मत, कचरा प्रबंधन की सख्ती, एजेंसियों की जवाबदेही और कर्मचारियों की जिम्मेदारी—इन सबको मिलाकर ही स्थायी समाधान निकलेगा.

असल में यह लड़ाई चूहों से ज्यादा हमारी व्यवस्था की है. जब तक शासन यह नहीं मान लेता कि स्वच्छ और सुरक्षित कार्यस्थल उतना ही जरूरी है जितना किसी नीति का मसौदा या किसी योजना का बजट, तब तक ऐसी समस्याएं बार-बार लौटती रहेंगी. सचिवालय में चूहों का आतंक केवल एक भवन को साफ करने की चुनौती नहीं है, बल्कि पूरे प्रशासनिक तंत्र को अनुशासन और दक्षता की ओर ले जाने की पहली परीक्षा है.

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