चित्रकूट ट्रेजरी में कैसे हुआ 100 करोड़ का घोटाला? अब यूपी के कई जिले रडार पर

चित्रकूट ट्रेजरी घोटाले में अभी 100 करोड़ रुपए के गबन का अनुमान है और इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता कि पूरे उत्तर प्रदेश में कई जिलों में ऐसा घोटाला चल रहा हो

PAN Card Fraud
सांकेतिक तस्वीर

चित्रकूट का छोटा-सा कोषागार दफ्तर यानी ट्रेजरी ऑफिस इस समय उत्तर प्रदेश के पूरे वित्तीय सिस्टम के लिए सबसे बड़ी शर्मिंदगी की वजह बन गया है. यहां सरकारी पेंशनरों के नाम पर नॉन-बजटरी फंड से करोड़ों रुपये का गबन हुआ है. 

यह कोई एक दिन का खेल नहीं था, बल्कि 2018 से 2025 तक सात सालों तक चला एक योजनाबद्ध फर्जीवाड़ा था. इसमें शामिल रहे कोषागार के कर्मचारी, सहायक अधिकारी और उनके साथ मिलकर काम करने वाले बिचौलिए, जिन्होंने सेवानिवृत्त शिक्षकों के खातों को भ्रष्टाचार की पाइपलाइन बना दिया. 

इस कहानी की शुरुआत विभाग के एक रूटीन ऑडिट से हुई. अगस्त 2025 में जब महालेखाकार कार्यालय की विशेष टीम ने कोषागार के भुगतान रजिस्टर और बैंक प्रविष्टियों का मिलान शुरू किया, तो उन्हें अजीब गड़बड़ियां दिखीं. कुछ खातों में पेंशन से कई गुना अधिक रकम भेजी जा रही थी. पहले इसे एरियर या रुकी हुई पेंशन मानकर अनदेखा किया गया, लेकिन जब आंकड़ों की लकीरें महीनों से मेल नहीं खाईं, तो शक गहराया. 

ऑडिट टीम ने 2018 से सितंबर 2025 तक के भुगतान रिकॉर्ड खंगाले. पता चला कि 93 पेंशनरों और पारिवारिक पेंशनरों के खातों में 43.13 करोड़ रुपये का फर्जी भुगतान किया गया. बाद की जांचों में यह अनुमान सामने आया कि असल रकम 100 करोड़ रुपये से भी ज्यादा हो सकती है.

घोटाले का पर्दाफाश कैसे हुआ

10 सितंबर को मऊ निवासी पेंशनर जगतराम तिवारी ने पुलिस को दी गई तहरीर में बताया कि उनके खाते में अचानक 45 लाख रुपये आए. तिवारी के मुताबिक ओमप्रकाश पटेल नाम के एक आदमी ने उनसे कहा था कि उसके रिश्तेदारों को प्रॉपर्टी डीलिंग में किसी के बैंक खाते की जरूरत है. तिवारी ने पासबुक दे दी और कुछ दिनों बाद उनके खाते में ट्रेजरी से पैसा आ गया. इस रकम को अगले दिन ही निकाल लिया गया. 

इसी तरह, खंडेला की कमला देवी के खाते में भी 2023 से 2024 के बीच 31 लाख रुपये आए. यह रकम भी उसी तरह गायब हो गई. जब जांचकर्ताओं ने बैंक रिकॉर्ड खंगाले, तो पता चला कि यह रकम ट्रेजरी से पेंशन मद में जारी की गई थी. वरिष्ठ कोषाधिकारी रमेश सिंह ने तत्काल सभी 95 संदिग्ध खातों को सीज करने के निर्देश दिए. इसी से यह पूरा सिंडिकेट उजागर हुआ, जो वर्षों से ट्रेजरी को चूना लगा रहा था.

कैसे चला करोड़ों का खेल

कोषागार में हर माह पेंशन भुगतान की प्रक्रिया अत्यंत तकनीकी होती है. इसके लिए “प्रोसेस पैकेज” तैयार किया जाता है, जिसमें पेंशनर का नाम, पीपीओ नंबर, एरियर, डीए और मूल पेंशन राशि दर्ज होती है. इस पैकेज से एक “चेकलिस्ट” निकलती है, जिसे पटल सहायक, सहायक कोषागार अधिकारी और वरिष्ठ कोषाधिकारी को मिलान करना होता है. यही वह बिंदु था जहां घोटाले की शुरुआत हुई. 

कर्मचारियों ने चेकलिस्ट में एरियर कॉलम में फर्जी एंट्री डालनी शुरू कर दी. यह रकम नॉन-बजटरी फंड से जारी होती थी, यानी ऐसा फंड जिसका उपयोग पेंशन भुगतान में होता है और जिसमें फंड की कभी कमी नहीं रहती. इस “खुले स्रोत” को भ्रष्टाचार का जरिया बनाया गया. कर्मचारियों ने कुछ पेंशनरों की मासिक पेंशन राशि को बढ़ा दिया. यह बढ़ोतरी कभी चेकलिस्ट में पकड़ी नहीं गई. चूंकि हर माह नई एंट्री पिछले माह के आंकड़ों पर आधारित होती थी, इसलिए एक बार बढ़ाई गई राशि “नए नॉर्मल” की तरह दर्ज होती चली गई. 

इसके अलावा एरियर कॉलम का दुरुपयोग हुआ. जब किसी पेंशनर का जीवित प्रमाणपत्र समय पर जमा नहीं होता, तो उसकी पेंशन रोक दी जाती है. प्रमाणपत्र आने के बाद पिछली पेंशन और मौजूदा माह की पेंशन एक साथ भेजी जाती है. इस प्रक्रिया का फायदा उठाकर कर्मचारियों ने एरियर में फर्जी रकम डालना शुरू किया. बिचौलियों ने इसमें सक्रिय भूमिका निभाई. वे सेवानिवृत्त शिक्षकों या उनके रिश्तेदारों को भरोसे में लेकर उनके खातों का इस्तेमाल करते थे.

रकम ट्रांसफर होती, अगले दिन निकाल ली जाती, और फिर बांट दी जाती. जांच में सामने आया कि कुछ खातों में पांच लाख से लेकर तीन करोड़ रुपये तक भेजे गए. सबसे चौंकाने वाला मामला पेंशनर सुशीला देवी का है, जिनके खाते में एक करोड़ 84 लाख 77 हजार रुपये भेजे गए थे. इस तरह के आठ खाते ऐसे मिले जिनमें पौने दो करोड़ से अधिक की रकम आई थी. 

घोटाले का नेटवर्क और भूमिका

घोटाले की जड़ें कोषागार के निचले स्तर से लेकर शीर्ष तक फैली थीं. मुख्य आरोपी सहायक लेखाकर संदीप कुमार श्रीवास्तव को माना जा रहा है. उनके साथ अशोक कुमार (लेखाकार), विकास सिंह सचान (सहायक कोषाधिकारी) और अवधेश प्रताप सिंह (सेवानिवृत्त सहायक कोषाधिकारी) के नाम एफआईआर में दर्ज किए गए हैं. संदीप की भूमिका सबसे केंद्रीय बताई जा रही है. ऑडिट में यह पाया गया कि उसी के कार्यकाल में सबसे ज्यादा फर्जी भुगतान किए गए. जांच में सामने आया कि उसने अपने नाम पर करोड़ों की संपत्ति बनाई. चित्रकूट की एसडीएम कॉलोनी में तीन करोड़ का आलीशान घर, महंगे कपड़े, ब्रांडेड कारें और रियल एस्टेट में निवेश, सब कुछ उसकी बढ़ती “कमाई” की ओर इशारा करता है. 

इस घोटाले के जांच से जुड़े अधिकारियों के मुताबिक इसमें करीब 10 बिचौलियों की भूमिका रही, जिनमें से अधिकतर सेवानिवृत्त शिक्षक थे. वे ही नए पेंशनरों को तैयार करते, खाते जुटाते और पैसे निकालने की जिम्मेदारी निभाते. हर ट्रांजेक्शन में रकम का हिस्सा तय होता, लगभग 30 फीसदी बिचौलियों के पास, बाकी कोषागार कर्मचारियों में बंटता. 

16 अक्टूबर को वरिष्ठ कोषाधिकारी रमेश सिंह ने कर्वी कोतवाली में एफआईआर दर्ज करवाई. कुल 97 लोगों को नामजद किया गया जिनमें 3 मौजूदा कर्मचारी, एक सेवानिवृत्त अधिकारी और 93 पेंशनर शामिल हैं. चित्रकूट के डीएम शिवशरणप्पा जीएन ने एडीएम न्यायिक राजेश प्रसाद, अपर निदेशक कोषागार विष्णुकांत द्विवेदी और वरिष्ठ कोषाधिकारी रमेश सिंह की तीन सदस्यीय जांच समिति बनाई है. इस समिति को सभी पेंशन फाइलों, भुगतान वाउचरों और बैंक खातों की लाइन-बाय-लाइन जांच करने का आदेश दिया गया.

चित्रकूट के एसपी अरुण कुमार सिंह के मुताबिक, “हमने जांच के लिए सीओ सिटी अरविंद वर्मा की अध्यक्षता में टीम गठित की है. अब तक 22 लाख रुपये की रिकवरी की जा चुकी है. बाकी खातों की फॉरेंसिक जांच चल रही है.”

सिस्टम की नाकामी उजागर 

हालांकि पुलिस की भूमिका पर भी सवाल उठे हैं. एफआईआर 16 अक्टूबर की देर रात दर्ज की गई, लेकिन न तो इसे यूपी कॉप एप पर अपलोड किया गया और न ही सार्वजनिक किया गया. हिरासत में लिए गए मुख्य आरोपी संदीप और अन्य कर्मचारियों के नामों का कोई औपचारिक रिकॉर्ड पुलिस अभिलेखों में नहीं था. 

इस घोटाले ने राज्य के ऑडिट सिस्टम की कमजोरियों को भी उजागर किया. 2018 से अब तक अकाउटेंट जनरल (एजी) ऑफिस की टीम सात बार कोषागार का ऑडिट करने आई, लेकिन कभी भी रजिस्टरों की गहराई से जांच नहीं की गई. पटल सहायकों ने रिकॉर्ड नहीं दिए और टीम बिना आपत्ति दर्ज किए लौट गई. जब हाल ही में आई विशेष ऑडिट टीम ने लाइन-बाय-लाइन एंट्री चेक की, तभी यह खुलासा हुआ कि रजिस्टरों में हेराफेरी और सॉफ्टवेयर डाटा में छेड़छाड़ की गई थी. यानी भ्रष्टाचार तकनीक के सहारे छिपाया गया था. 

हालांकि वित्त विभाग के अधिकारियों का मानना है कि इस पूरे मामले की जड़ “नॉन-बजटरी भुगतान प्रणाली” में है. इस फंड से वे भुगतान होते हैं जो बजट मद से अलग हैं, जैसे एरियर या रुकी पेंशन. इसमें न तो डिजिटल लॉक होता है, न ही एंट्री पर स्वचालित अलर्ट. एक रिटायर्ड कोषाधिकारी के मुताबिक, “नॉन-बजटरी फंड भरोसे पर चलता है. अगर किसी कर्मचारी की नीयत बदल जाए तो वह एंट्री में रकम बढ़ाकर करोड़ों रुपये का भुगतान दिखा सकता है, और तब तक कोई पकड़ नहीं पाता जब तक ऑडिट न हो.” इस मामले के सामने आने के बाद अब शासन ने सभी जिलों के कोषागारों से नॉन-बजटरी भुगतान का डाटा तलब किया है. राज्य में लगभग 75 कोषागार और 35 उप-कोषागार हैं, यानी अगर यही पैटर्न अन्य जिलों में भी मिला तो मामला सैकड़ों करोड़ का हो सकता है.

फर्जीवाड़े का दूसरा पहलू

जांच अधिकारियों का कहना है कि घोटाले की शुरुआत शायद 2012 से ही हुई थी. शुरुआती वर्षों में रकम कम थी, इसलिए किसी ने ध्यान नहीं दिया. धीरे-धीरे जब सिस्टम में आदत बन गई, तो रकम भी बढ़ती गई. कुछ पेंशनरों को इस फर्जीवाड़े की भनक नहीं थी, लेकिन कई ऐसे भी थे जो जानबूझकर इसमें शामिल रहे. वे हर बार पैसा आने के अगले दिन ही निकाल लेते थे. जगत नारायण तिवारी, मोहन लाल, ललिता देवी और कमला देवी जैसे पेंशनरों के खाते इस बात की गवाही देते हैं. ऑडिट टीम के एक सदस्य ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, “हर महीने की चेकलिस्ट में वही गलती दोहराई जाती रही. पिछले माह की बढ़ी हुई राशि ही अगले माह की आधार बन जाती. यह ऑडिटिंग की एक बेसिक विफलता थी.”

वित्त विभाग अब इसे एक “सिस्टमिक स्कैम” के रूप में देख रहा है. क्योंकि जिस तरह की पेंशन प्रोसेसिंग प्रणाली चित्रकूट में लागू है, वही पूरे प्रदेश में है. नॉन-बजटरी भुगतान की एंट्री हर जिले में मैनुअल नियंत्रण पर निर्भर है. एक वरिष्ठ अधिकारी के शब्दों में, “अगर चित्रकूट में यह खेल सात साल तक पकड़ा नहीं गया, तो यह मान लेना गलत नहीं होगा कि कुछ और जिलों में भी यही चल रहा होगा.” शासन ने सभी जिलों को निर्देश दिया है कि वे 2018 से अब तक के सभी नॉन-बजटरी पेंशन भुगतान का मिलान कर रिपोर्ट दें. कई जिलों में विशेष ऑडिट टीमें पहले ही पहुंच चुकी हैं.

वसूली और आगे की कार्रवाई

घोटाले के उजागर होने के बाद 22 लाख रुपये की प्रारंभिक वसूली हो चुकी है. जिन पेंशनरों के खातों में रकम गई, उनमें से कई ने इसे लौटाने की बात कही है. लेकिन अधिकारियों के मुताबिक यह तो बस शुरुआत है. असली रकम की रिकवरी मुश्किल होगी, क्योंकि अधिकांश पैसा पहले ही निकाल लिया गया और बंट गया. एफआईआर के बाद तीन आरोपी कर्मचारियों और एक सेवानिवृत्त अधिकारी को हिरासत में लिया गया है. बाकी संदिग्धों की तलाश जारी है. जांच टीम को एक दिन का समय देकर रिपोर्ट मांगी गई है, हालांकि इतने बड़े वित्तीय अपराध में यह समय अपर्याप्त माना जा रहा है. 

चित्रकूट ट्रेजरी घोटाला राज्य की वित्तीय प्रणाली की उस अदृश्य कमजोरी को उजागर करता है, जो वर्षों से विभागों में पल रही थी. जांच भले जारी हो, लेकिन यह साफ है कि मामला सिर्फ कुछ कर्मचारियों का नहीं, यह “भरोसे पर चलने वाले सिस्टम” की उस मानसिकता का परिणाम है, जहां नियंत्रण और जिम्मेदारी दोनों खो गए. अब सवाल सिर्फ यह नहीं कि 100 करोड़ कहां गए, बल्कि यह भी कि ऐसा दोबारा न हो, इसके लिए सरकार क्या बदलेगी?

Read more!