बिहार : महज दस सालों में गंडक नदी कैसे बनी घड़ियालों का नया ठिकाना?

पौराणिक आख्यानों में गंडक नदी की चर्चा गज और ग्राह यानी हाथी और मगरमच्छ की लड़ाई में आती है. इसी नदी में मगरमच्छों की एक प्रजाति घड़ियाल 2010 के आसपास विलुप्ति की कगार पर पहुंच गए थे लेकिन अब यह चंबल के बाद उनका दूसरा सबसे बड़ा ठिकाना है

गंडक नदी में एक घड़ियाल
घड़ियाल

महज 15 साल पुरानी बात होगी. बिहार की गंडक नदी में पहली बार घड़ियालों का सर्वे कराया गया था. राज्य की सीमा में लगभग 300 किमी की लंबाई में बहने वाली इस नदी में तब सिर्फ 10 घड़ियाल मिले थे और पांच और घड़ियाल होने का अनुमान लगाया गया था.

मगर आज 2025 में इस नदी में मगरमच्छों में सर्वाधिक संकटग्रस्त प्रजाति घड़ियालों की संख्या 350 से अधिक हो गई है. चंबल नदी के बाद गंडक देश की दूसरी नदी है, जहां इतने घड़ियाल हैं. और यह भारत और नेपाल की उन सात जगहों में से एक है, जहां घड़ियाल प्रजनन करते हैं. अंडे देते हैं. यह बदलाव महज 10-11 साल की मेहनत से हुआ है.

आज विश्व मगरमच्छ दिवस है और ऐसे मौके पर इस संकटग्रस्त प्रजाति के संरक्षण की यह सफल कहानी जानना कई सरकारों और निजी स्तर पर लोगों को ऐसे कामों को लिए प्रेरित कर सकती है. हालांकि इसके साथ हम यह भी जानने की कोशिश करेंगे कि क्या राज्य और केंद्र सरकार अब इस सफल कहानी को आगे बढ़ाने में दिलचस्पी ले भी रही हैं या नहीं?

गंडक नदी में घड़ियाल के संरक्षण की परियोजना से शुरुआत से जुड़े वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया के चीफ इकोलॉजिस्ट समीर के. सिन्हा कहते हैं, “अपनी आपराधिक गतिविधियों के लिए पहले वह इलाका संकटग्रस्त हुआ करता था. जब वहां अपराध नियंत्रित होने लगे तब हमने 2010 में सर्वे किया था. बिहार सरकार और वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया ने 2014-15 में पहली बार वहां घड़ियालों के संरक्षण का अभियान शुरू किया. तब पटना के संजय गांधी जैविक उद्यान से 30 किशोर घड़ियालों को ले जाकर गंडक नदी में छोड़ा गया. तब हमें उम्मीद नहीं थी कि हमारा यह प्रयास इतना सफल होगा. मगर जल्द हमें वहां एक-दो साल की उम्र के घड़ियाल दिखने लगे और 2016 में जब पहली बार हमें उस इलाके में घड़ियाल के अंडों का घोसला मिला, तब लगा कि अब हमारा प्रयास कारगर हो गया.”

दिलचस्प है कि गंडक नदी हमेशा से मगरमच्छों का बसेरा रहा है. हिंदू पौराणिक कहानियों के मुताबिक इसी नदी में गज और ग्राह यानी हाथी और मगरमच्छ के युद्ध की कथा मिलती है और गंडक और गंगा के संगम स्थल पर इसकी परिणति हुई. वहां सोनपुर में आज भी पशुओं का एक बड़ा मेला लगता है. देश में 1975 में जब मगरमच्छों के संरक्षण की शुरुआत हुई तो पहली बार इसी नदी में नेपाल वाले इलाके से घड़ियालों के अंडे से भारत में घड़ियाल ब्रीडिंग सेंटर में बच्चे पैदा किए गए.

नेपाल में भी घड़ियालों को छोड़ा गया था, मगर प्रोग्राम बहुत सफल नहीं रहा क्योंकि बाद में छोड़े गए घड़ियालों का अता-पता नहीं लग सका. इसके नतीजे भी ठीक से सामने नहीं आ पाए इसलिए 2010 के सर्वे में इस नदी में घड़ियालों की संख्या बहुत कम मिली. लेकिन 2014-15 में जो घड़ियाल इस नदी में छोड़े गये, वे यहां प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले घड़ियालों के साथ रच-बस गए और प्रजनन करने लगे और यह न सिर्फ बिहार बल्कि पूरे देश के लिए अच्छी खबर मानी गई.

समीर बताते हैं, “गंडक में घड़ियालों का अपनी आबादी बढ़ाना इसलिए महत्वपूर्ण माना गया, क्योंकि घड़ियाल मगरमच्छ प्रजाति का सबसे संकटग्रस्त जीव है. 2007-08 में इसकी आबादी में वैश्विक स्तर पर काफी गिरावट आ गई थी, प्रजनन करने योग्य वयस्क घड़ियालों की संख्या महज 200-250 रह गई थी. मगर लगातार चले संरक्षण अभियान से इसकी स्थिति बेहतर हुई है. इसकी ज्यादातर आबादी भारत और नेपाल में ही है. पाकिस्तान, बांग्लादेश, भूटान और म्यांमार जैसे देशों से यह विलुप्त हो गया है. भारत और नेपाल में भी कुल 14 जगहों पर इसकी रिहाइश है और सिर्फ सात जगहों पर यह प्रजनन करता है. भारत में चंबल नदी में इसकी सबसे बड़ी संख्या मिलती है. वहां दो हजार से 2200 घड़ियाल इस वक्त हैं. दूसरे नंबर पर गंडक है, जहां लगभग 11 सालों में इनकी संख्या 350 के पार चली गई है. बिहार में कोसी, घाघरा और महानंदा नदियों में भी कभी-कभार घड़ियाल दिखते हैं.”

मगरमच्छ प्रजाति में तीन तरह के जीव हैं. एक खारे पानी का मगरमच्छ, दूसरा मीठे पानी का मगरमच्छ और तीसरा घड़ियाल. घड़ियाल की खासियत यह है कि इसका मानव से संघर्ष नहीं के बराबर होता है. यह तेज धारा और साफ पानी वाली नदी में रहना पसंद करता है और सिर्फ मछली खाता है. इसके नर प्रजाति के सिर पर घड़े जैसी आकृति होती है, जिसकी वजह से इसे घड़ियाल कहते हैं.

पहले घड़ियाल गंगा की सभी सहायक नदियों में पाए जाते थे, मगर नदियों में बराज और दूसरी संरचनाएं बनने और अलग-अलग तरह की गतिविधियां होने से ये जगह बदलने लगे और इसकी संख्या घटने लगी. इस जीव को धूप सेकने के लिए बालू का ऐसा तट चाहिए जहां इंसानी आवाजाही न्यूनतम हो. वहीं वह अपने अंडों को भी छोड़ता है. गंडक के दोनों तरफ मौजूद रेत के टीलों में उसे यह सुविधा मिली है, इसलिए घड़ियालों को यह जगह भा गई.

समीर बताते हैं, “सिर्फ प्राकृतिक कारणों से गंडक में घड़ियालों की संख्या नहीं बढ़ी है. इसके पीछे हम लोगों की मेहनत भी है. हम फरवरी महीने से गंडक नदी के 180 किमी लंबे उस तटीय इलाके पर नियमित निगरानी रखते हैं, जहां घड़ियालों की संख्या अधिक है. फरवरी में ये मेटिंग करते हैं. मार्च और अप्रैल में अंडे देते हैं. मगर नदी में कटाव होने, पानी अधिक आने, मानव या जानवरों की आवाजाही से बालू में बने घोसलें में इन अंडों को नुकसान का खतरा रहता है. ऐसे में हम उन्हें ढूंढकर सुरक्षित स्थान में रखते हैं. 15 जून तक इन अंडों से घड़ियाल के बच्चे निकलते हैं, फिर इन्हें नदी में छोड़ा जाता है. इसमें वन विभाग, हमारी संस्था और स्थानीय लोगों सहित सबकी भागीदारी होती है.”

गंडक किनारे घड़ियाल के घोसले

मगर समीर मानते हैं कि इनके संरक्षण के लिए इस पूरे इलाके को संरक्षित क्षेत्र घोषित किया जाना चाहिए और समुदाय की भागीदारी से इनका और बेहतर संरक्षण किया जाना चाहिए. तीन मार्च, 2025 को गुजरात के जूनागढ़ में नेशनल बोर्ड ऑफ वाइल्डलाइफ की सातवीं बैठक में भी घड़ियालों के संरक्षण का मुद्दा उठा और पीएम मोदी की मौजूदगी में इसके लिए नई परियोजना की घोषणा हुई है.

समीर के मुताबिक गंडक के अलावा बिहार में कोसी, घाघरा और महानंदा नदियों में भी घड़ियालों के संरक्षण की योजना शुरू की जा सकती है. इसके अलावा घड़ियालों के रिजर्व बनने से इस इलाके में इको टूरिज्म की संभावना भी विकसित की जा सकती है. उस इलाके में वाल्मिकीनगर टाइगर रिजर्व पहले से ही पर्यटकों का ध्यान अपनी तरफ खींचता रहा है. उसके साथ इसे जोड़ा जा सकता है.

हालांकि बिहार सरकार और केंद्र सरकार का रुख इस परियोजना को लेकर बहुत उत्साहित करने वाला नजर नहीं आता. एक तो केंद्र सरकार ने अपनी हालिया घड़ियाल संरक्षण परियोजना में बिहार को शामिल नहीं किया है, वहीं बिहार सरकार की गंडक को घड़ियालों का कंजर्वेशन रिजर्व बनाने की भी कोई योजना नहीं है. बिहार के प्रिंसिपल चीफ कंजर्वेटर अरविंदर सिंह कहते हैं, “कंजर्वेशन रिजर्व बनाना इतना आसान काम नहीं है, अगर गंडक में कंजर्वेशन रिजर्व बन जाता है तो वहां सारी गतिविधियां रोक देनी होगी.”

हालांकि गंगा में सुल्तानगंज से कहलगांव के बीच काफी पहले से डॉलफिन सेंचुरी है, फिर भी वहां सारी गतिविधियां हो रही है. यह हवाला देने पर वे कहते हैं, “यह ठीक बात है, मगर फिलहाल हमारी गंडक को घड़ियालों का रिजर्व बनाने की कोई योजना नहीं है. हां, हम कोसी और दूसरी नदियों में घड़ियालों को छोड़ने की योजना पर काम कर रहे हैं. गंडक में घड़ियालों की बढ़ती संख्या हमें उत्साहित करती है, इसको लेकर दीर्घकालिक योजना पर काम किया जा रहा है.”

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