यूपी वाले दीवाली संभलकर मनाएं क्योंकि यहां जलने-झुलसने का इलाज बड़ा मुश्किल है!
उत्तर प्रदेश में कानपुर से लेकर वाराणसी तक के सरकारी अस्पतालों की बर्न यूनिटों की हालत बुरी है

कानपुर के मेस्टन रोड पर 8 अक्टूबर को हुए स्कूटी विस्फोट ने शहर को दहला दिया. धमाके की तीव्रता ऐसी थी कि आठ लोग झुलस गए, जिनमें चार की हालत बेहद गंभीर है. उनके शरीर का 60 से 80 फीसदी हिस्सा जल चुका है, चमड़ी और मांसपेशियों के साथ हड्डियां तक झुलस गईं. कानपुर उर्सुला अस्पताल के डायरेक्टर डॉ. एच.डी. अग्रवाल के मुताबिक, “जख्म इतने गहरे थे कि उनकी सफाई के बाद भी संक्रमण का खतरा था, इसलिए चारों को किंग जार्ज मेडिकल कालेज (केजीएमयू) लखनऊ रेफर करना पड़ा.”
सुहाना, अब्दुल, रईसुद्दीन और अश्विनी कुमार को एंबुलेंस से ढाई घंटे का सफर तय कराकर लखनऊ भेजा गया. यह यात्रा उनके लिए जितनी दर्दनाक थी, उतनी ही सवाल उठाने वाली भी. अगर कानपुर के हैलट अस्पताल की बर्न यूनिट समय पर शुरू हो जाती, तो इन मरीजों को इतनी दूर भेजने की जरूरत नहीं पड़ती. इस हादसे ने न सिर्फ प्रदेश की चिकित्सा व्यवस्था की खामियां उजागर की हैं, बल्कि यह भी दिखाया है कि सरकारी लापरवाही कितनी महंगी पड़ सकती है.
स्वास्थ्य सुविधाएं दुरुस्त करने के कितने भी दावे क्यों न किए जा रहे हों लेकिन हकीकत यह है कि कानपुर जैसे बड़े शहर का प्रमुख सरकारी अस्पताल हैलट या लाला लाजपत राय अस्पताल में आज भी बर्न यूनिट के बिना काम चला रहा है. विस्फोट में झुलसे दो मरीजों को इलाज के लिए लगभग 90 किलोमीटर दूर लखनऊ भेजना पड़ा, क्योंकि कानपुर में कोई ऐसी सरकारी यूनिट नहीं है जो गंभीर रूप से जले हुए मरीजों का इलाज कर सके. यह वही स्थिति है जो हर साल दीपावली और सर्दियों के मौसम में दोहराई जाती है, जब बर्न केस बढ़ जाते हैं और मरीजों को या तो रेफर कर दिया जाता है या वे इलाज के अभाव में दम तोड़ देते हैं.
हैलट अस्पताल में बर्न वार्ड का निर्माण 2021-22 में पूरा होना था. भवन तैयार है, लेकिन तकनीकी खामियों और विभागीय सुस्ती के कारण अब तक इसका हैंडओवर नहीं हुआ. कॉलेज प्रशासन के अनुसार, राजकीय निर्माण निगम को पांच बार नोटिस भेजे जा चुके हैं, प्रमुख सचिव और डीएम निरीक्षण कर चुके हैं, लेकिन काम पूरा नहीं हुआ. कॉलेज के प्राचार्य डॉ. संजय काला बताते हैं कि बर्न वार्ड के लिए भवन बन गया है, पर अब भी ट्रांसफॉर्मर नहीं लगा है और इक्युपमेंट आने बाकी हैं. उनके अनुसार, “हमने शासन को उपकरण और स्टाफ के लिए प्रस्ताव भेज दिया है. लेकिन मंजूरी मिलने में देर हो रही है. बर्न वार्ड के संचालन के लिए प्रशिक्षित स्टाफ, प्लास्टिक सर्जन, नर्स और तकनीकी कर्मी जरूरी हैं.”
कानपुर के हैलट अस्पताल में 17 जिलों से मरीज इलाज के लिए आते हैं. यहां दो प्लास्टिक सर्जन हैं, पर सुविधाओं की कमी के कारण गंभीर रोगियों को लखनऊ रेफर करना पड़ता है. बर्न वार्ड के भवन में महिला और पुरुष वार्ड अलग-अलग बनाए गए हैं, साथ ही बर्न आईसीयू और त्वचा बैंक (स्किन बैंक) की भी योजना थी. मगर तीन साल बाद भी यूनिट शुरू नहीं हो पाई है.
बर्न यूनिट में देरी का मामला अब विधानसभा तक पहुंच गया है. वर्ष 2019 में 4.31 करोड़ रुपये की लागत से शुरू हुई प्लास्टिक, बर्न और रीकंस्ट्रक्टिव यूनिट का काम जून 2024 में पूरा हो चुका है, लेकिन राजकीय निर्माण निगम की ओर से हैंडओवर नहीं किया गया. इस वजह से आसपास के जिलों के मरीजों को परेशानी झेलनी पड़ रही है. राजकीय निर्माण निगम के परियोजना निदेशक राकेश कुमार गुप्ता का कहना है, “हमने निरीक्षण में बताई गई खामियों को दूर कर दिया है. अब कॉलेज प्रशासन टेकओवर नहीं कर रहा. यह कहना गलत है कि निर्माण निगम काम लटका रहा है.”
वहीं कॉलेज प्रशासन का कहना है कि कई छोटी तकनीकी समस्याएं अब भी दूर नहीं हुई हैं, और ट्रांसफॉर्मर लगाए बिना यूनिट चालू करना संभव नहीं. उधर, उर्सला अस्पताल की स्थिति और भी खराब है. यहां आठ बेड का बर्न वार्ड है, जो नाकाफी है. झुलसे मरीजों को बिस्तर नहीं मिल पाते और आखिरकार उन्हें निजी अस्पतालों का रुख करना पड़ता है. निजी अस्पतालों में इलाज का खर्च इतना ज्यादा है कि कई परिवार मरीज को बीच रास्ते ही वापस ले जाते हैं.
कानपुर की तरह वाराणसी की स्थिति भी चिंताजनक है. बीएचयू को छोड़ दें तो मंडलीय चिकित्सालय कबीरचौरा ही एकमात्र सरकारी अस्पताल है जहां बर्न वार्ड बना हुआ है, लेकिन वहां प्लास्टिक सर्जन नहीं हैं. गंभीर मरीजों को रेफर करना ही एकमात्र विकल्प रह गया है. बीएचयू में सात बेड का बर्न वार्ड है, जो हमेशा भरा रहता है. पं. दीनदयाल अस्पताल, लाल बहादुर शास्त्री अस्पताल, विवेकानंद चिकित्सालय और रामनगर अस्पताल – सभी जगह या तो बर्न यूनिट अधूरी है या अभी शुरू ही नहीं हुई. मंडलीय चिकित्सालय के एक वरिष्ठ अधिकारी बताते हैं, “पूर्वांचल से सबसे ज्यादा जले हुए मरीज हमारे पास आते हैं. लेकिन प्लास्टिक सर्जन के अभाव में इलाज अधूरा रह जाता है. मरीजों को रेफर करना मजबूरी बन गया है.”
राजधानी लखनऊ की स्थिति भी बहुत अलग नहीं है. बलरामपुर, रानी लक्ष्मीबाई (आरएलबी) और सिविल अस्पताल – तीनों में बर्न यूनिट तो हैं, लेकिन प्लास्टिक सर्जन नहीं. मुख्य चिकित्सा अधिकारी कार्यालय के एक वरिष्ठ अधिकारी बताते हैं, “तीनों अस्पतालों में प्लास्टिक सर्जन के दो-दो पद स्वीकृत हैं, लेकिन अब तक भरे नहीं गए. इस वजह से मरीजों को रेफर करना पड़ता है.” सिविल अस्पताल के मुख्य चिकित्सा अधीक्षक डॉ. एस.के. श्रीवास्तव के अनुसार, “हमारे पास 46 बेड का बर्न वार्ड है और हर महीने लगभग 85 मरीज आते हैं. फिलहाल एक ही प्लास्टिक सर्जन हैं, वह भी सेवानिवृत्ति के बाद पुनर्नियुक्त हैं. पूरे शहर का भार इसी यूनिट पर है.” बलरामपुर अस्पताल की निदेशक डॉ. कविता आर्य बताती हैं, “हमारे अस्पताल में 10 बेड की बर्न यूनिट है, जहां हर महीने 15 से 20 मरीज आते हैं. प्लास्टिक सर्जन की मांग की गई थी, लेकिन मंजूरी नहीं मिली. फिलहाल जनरल सर्जन ही शुरुआती इलाज करते हैं.”
आरएलबी अस्पताल की सीएमएस डॉ. नीलिमा सोनकर कहती हैं, “हमारे छह बेड के बर्न वार्ड में हर महीने करीब 12 मरीज आते हैं. गंभीर मरीजों को शुरुआती इलाज के बाद केजीएमयू भेजना पड़ता है.” राजधानी के केजीएमयू का बर्न और प्लास्टिक सर्जरी विभाग पूरे राज्य का भार उठा रहा है. मीडिया सेल प्रभारी डॉ. के.के. सिंह बताते हैं, “हर महीने औसतन 20 से अधिक गंभीर रूप से जले मरीज भर्ती होते हैं. दीपावली जैसे त्योहारों में यह संख्या दोगुनी हो जाती है.” सिविल अस्पताल में तैनात प्लास्टिक सर्जन डॉ. आर.पी. सिंह का कहना है कि “एक सामान्य सर्जन मरीज का इलाज शुरुआती 8-10 दिनों तक ही कर सकता है. लेकिन स्किन ग्राफ्टिंग जैसी प्रक्रिया के लिए विशेषज्ञ प्लास्टिक सर्जन की जरूरत होती है. बिना प्लास्टिक सर्जरी के स्थायी इलाज संभव नहीं.”
यूपी स्वास्थ्य विभाग के आंकड़ों के मुताबिक, उत्तर प्रदेश में हर साल 25 से 30 हजार लोग जलने की घटनाओं के शिकार होते हैं. इनमें से लगभग 60 फीसदी ग्रामीण इलाकों से आते हैं. लेकिन पूरे राज्य में सरकारी स्तर पर गिनी-चुनी ही सक्रिय बर्न यूनिट हैं. लखनऊ, कानपुर, वाराणसी, प्रयागराज, गोरखपुर और मेरठ जैसे बड़े शहरों में भी स्थिति अधूरी है. बर्न यूनिटों का निर्माण करने वाले राजकीय निर्माण निगम के एक वरिष्ठ अधिकारी का कहना है कि “फंड की देरी, तकनीकी अनुमोदन और ट्रांसफॉर्मर कनेक्शन जैसी अड़चनें बड़ी वजह हैं. बिना स्थायी बिजली आपूर्ति के बर्न यूनिट को शुरू करना जोखिम भरा है.” वहीं स्वास्थ्य विभाग के एक अधिकारी का कहना है कि “स्टाफ की नियुक्ति का प्रस्ताव शासन में लंबित है. प्रशिक्षित नर्स, तकनीशियन और प्लास्टिक सर्जन की भारी कमी है.”
उत्तर प्रदेश के सरकारी अस्पतालों में प्लास्टिक सर्जन के स्वीकृत पदों की तुलना में एक तिहाई से भी कम डॉक्टर तैनात हैं. कई मेडिकल कॉलेजों में बर्न यूनिट होने के बावजूद वहां प्लास्टिक सर्जन नहीं हैं, जिससे गंभीर रूप से झुलसे मरीजों को प्राथमिक इलाज के बाद लखनऊ या दिल्ली भेजना पड़ता है. विशेषज्ञों के मुताबिक, एक औसत मेडिकल कॉलेज में कम से कम दो प्लास्टिक सर्जन होने चाहिए, जबकि अधिकतर जिलों में एक भी नहीं है. हाल ही में सरकार ने 749 डॉक्टरों की भर्ती की, जिनमें 2 मात्र प्लास्टिक सर्जन शामिल थे. इस कमी ने गंभीर रूप से झुलसे मरीजों को अपने अस्पतालों में इलाज न मिलने की स्थिति में लखनऊ जैसे दूरस्थ केंद्रों तक सफर करना मजबूरी बना दी है.
कुल मिलाकर, यूपी के सरकारी अस्पतालों में बर्न यूनिटें कागजों पर हैं, जमीन पर नहीं. कानपुर का हैलट इसका ताजा उदाहरण है, जहां तीन साल से तैयार भवन में अब तक मरीज नहीं पहुंचे हैं. वाराणसी और लखनऊ के अस्पतालों में भी हालत यही है. दीपावली करीब है, पटाखों की रौनक के बीच अगर कोई हादसा हुआ तो झुलसे लोगों को फिर वही रास्ता तय करना पड़ेगा – कानपुर या वाराणसी से लखनऊ तक की लंबी एंबुलेंस यात्रा, क्योंकि अपने ही शहरों के सरकारी अस्पताल अब भी जलने वालों के लिए तैयार नहीं हैं.