झारखंड : पांच साल में करोड़ों के इनामी माओवादी ढेर; कैसे ढहा माओवादियों गढ़?

आज से 15-20 साल पहले झारखंड के 24 में से 21 जिले माओवाद प्रभावित थे लेकिन अब इनकी संख्या सिर्फ छह रह गई है

Naxal encounter
माओवादियों के खिलाफ सुरक्षाबलों का सर्च ऑपरेशन (फाइल फोटो)

बीते 14 सितंबर की देर रात झारखंड पुलिस के 209 कोबरा बटालियन के जवानों ने हजारीबाग जिले का लोहरगोडा गांव को चारों तरफ से घेर लिया. इस ऑपरेशन को नाम दिया गया ऑपरेशन ‘चूना पत्थर’. क्योंकि गांव के पास में चूना पत्थर नाम से एक फॉल है. 

ग्रामीणों से कहा गया कि वे पहले अपना पहचान पत्र दिखाएं, फिर घर से निकल जाएं. झारखंड पुलिस के मुताबिक इसी जांच के दौरान पहले तो नक्सली ग्रामीणों के बीच छिप कर भागने की फिराक में थे, लेकिन जांच की बात सुनकर उन्होंने ग्रेनेड से पुलिस बल पर हमला कर दिया. 

जवाबी कार्रवाई हुई और राज्य से माओवादियों को खत्म करने की तरफ पुलिस ने एक बड़ा कदम बढ़ा दिया. मुठभेड़ के दौरान एक करोड़ रुपए के इनामी माओवादी सहदेव सोरेन, 25 लाख के इनामी रघुनाथ हेम्ब्रम और 10 लाख रुपए के इनामी वीरसेन गंझू को एनकाउंटर में ढेर कर दिया गया. सहदेव सोरेन के ऊपर साल 2007 में पूर्व सीएम बाबूलाल मरांडी की बेटे अनूप मरांडी की हत्या का भी आरोप था. उस दिन बाबूलाल मरांडी के बेटे के अलावा और 19 और लोगों को माओवादियों ने गोलियों से भून दिया था. 

झारखंड में सिर्फ इस साल की बात करें तो पुलिस सीआरपीएफ के साथ मिलकर इस साल अब तक भाकपा माओवादी के कुल 21 सदस्यों को ठिकाने लगा चुकी है. राज्य बनने के बाद से अब तक यानी 25 साल में कुल 812 नक्सलियों को झारखंड पुलिस ने मारा है. हालांकि सब कुछ एकतरफा नहीं रहा है. इसी दौरान 551 सुरक्षाकर्मी और 837 आम लोग भी मारे गए हैं. इनाम के लिहाज से देखें तो बीते पांच साल में कुल 4 करोड़ 14 लाख रुपए के इनाम वाले माओवादियों को पुलिस ने निशाना बनाया है. 

तो क्या झारखंड के लगभग सभी जिले माओवादियों के प्रभाव से मुक्त हो चुके हैं? साल 2004 में पीपल्स वॉर ग्रुप और एमसीसी के विलय के बाद भाकपा माओवादी का गठन हुआ. संगठन को खड़ा और व्यवस्थित होने में लगभग चार साल लग गए. साल 2009 माओवादी घटनाओं के लिहाज से सबसे पीक टाइम रहा, जब पूरे राज्य में पुलिस और माओवादियों के बीच कुल 101 मुठभेड़ की घटनाएं हुई. साल 2013 में तो पाकुड़ जिले के तत्कालीन एसपी अमरजीत बलिहार को ही माओवादियों ने मार दिया. 

तब राज्य के 24 जिलों में से गोड्डा, जामताड़ा और साहेबगंज को छोड़कर सभी 21 जिले नक्सल प्रभावित थे. जिसमें राजधानी रांची सहित कुल 18 जिलों को तो अति नक्सल प्रभावित घोषित किया गया था. केंद्रीय गृह मंत्रालय की ओर से दी गई ताजा  जानकारी के मुताबिक झारखंड में नक्सल प्रभावित जिलों की संख्या अब मात्र 6 हैं, जिसमें पश्चिमी सिंहभूम एकमात्र ऐसा जिला है जो अति प्रभावित की श्रेणी में है. जहां फिलहाल 50-60 नक्सलियों के होने का अनुमान है, जबकि पूरे राज्य में 100 से भी कम के होने की संभावना है. 

प्रभावित जिलों की घटती हुई संख्या, लगातार कार्रवाई से यह समझा जाए कि क्या राज्य में हिंसक माओवाद अपने अंतिम चरण में पहुंच चुका है? क्या केंद्र सरकार की ओर से तय की गई डेडलाइन 30 मार्च 2026 तक माओवाद झारखंड से भी पूरी तरह खत्म हो जाएगा ? डीजीपी अनुराग गुप्ता कहते हैं, ‘’चाईबासा के सारंडा क्षेत्र में जरूर कुछ नक्सली बचे हुए हैं. हमलोग उनके पीछे लगे हुए हैं. देखिए एक बात आप जान लीजिये, हमारी जो इंटेलिजेंस सिस्टम है, वो आज की तारीख में परफेक्ट है.’’ 

वे आगे बताते हैं, ‘’हमें पता है एक-एक नक्सली कहां है. हम उनको बार-बार कह रहे सरेंडर कर जाओ. क्यों मरने मारने पर उतारू हो. क्यों अपनी जान गंवाते हो. क्यों अपने परिवार को बेघर कर रहे हो. सरेंडर कर जाओ और इस लड़ाई को खत्म करो. हमारी सैटेलाइट एक-एक नक्सली को देख रही है.’’ 

झारखंड कैडर के आईपीएस और वर्तमान में सीआरपीएफ के आईजी साकेत सिंह बीते दो साल से छत्तीसगढ़ में माओवादी अभियान का नेतृत्व कर रहे थे. हाल ही में झारखंड वापस आए हैं. वे पूरे विश्वास के साथ यह दावा करते हैं,  “26 नहीं, इस साल के अंत तक हम यहां से माओवादी खत्म कर देंगे. अब केवल पश्चिमी सिंहभूम जिले में पोलित ब्यूरो मेंबर मिसिर बेसरा (1 करोड़ इनाम) सहित मात्र 50 से 60 माओवादी बचे हैं. हमने इन्हें घेर कर रखा है. इनका कोई भी मूवमेंट होगा, हम इन्हें मार देंगे.’’  

तो क्या ये छत्तीसगढ़ या ओडिशा नहीं भाग सकते? साकेत जवाब देते हैं, “पहली बात कि माओवाद के मामले में पड़ोसी राज्यों के साथ बेहतर तालमेल है. दोनों ही बॉर्डर पार करना अब उनके लिए मुश्किल है. दूसरी बात कि छत्तीसगढ़ माओवादी अभी भी बाकी राज्यों के मुकाबले ज्यादा मजबूत स्थिति में हैं, लेकिन झारखंड के माओवादियों का उनके साथ तालमेल पहले से काफी खराब हो गया है. दूसरी दिक्कत भाषा की है, ये वहां सर्वाइव नहीं कर पाएंगे.’’ 

पुलिस के मुताबिक माओवादियों का लोकल सपोर्ट सिस्टम लगभग खत्म कर दिया गया है. वे कैडर में नए लोग भर्ती नहीं कर पा रहे हैं. हथियार की सप्लाई नहीं हो पा रही है. साकेत के मुताबिक, “जिन माओवादियों ने सरेंडर किया है, उन्होंने हमें काफी जानकारी दी है. इससे अभियान और उनके पैटर्न समझने में काफी मदद मिली है. उनके कमजोर होने की बात को ऐसे समझिए कि बड़े से बड़ा लीडर दो या तीन लोगों के साथ रह रहा है. जो लड़के इनके लिए लड़ रहे थे या लड़ रहे हैं वे परेशान हैं, क्योंकि मारे वही जाते हैं. आने वाले दिनों में कई माओवादी यहां सरेंडर करते दिखेंगे.” 

पुलिस का दावा है कि उसे माओवादियों की पूरी खबर है. उन्हें घेरकर रखा जा रहा है. तो फिर एक झटके में उन्हें खत्म क्यों नहीं कर दिया जाता? माओवादियों के खिलाफ अभियान में शामिल एक वरिष्ठ अधिकारी नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि सारंडा की भौगोलिक स्थिति छत्तीसगढ़ के दंडकारण्य के जैसी है. बहुत ही घना जंगल है, पहाड़ियों की लंबी ऋंखला है. इसके साथ ही पूरे इलाके में लैंडमाइंस बिछी हुईं. इन अधिकारी के मुताबिक, “मुठभेड़ से ज्यादा तो हमारे जवान लैंडमाइंस ब्लास्ट मारे जाते हैं या घायल हो रहे हैं. हम इन्हें लगातार नष्ट कर रहे हैं, लेकिन अभी-भी बड़े क्षेत्र में इनके बिछे होने की आशंका है. हालांकि बरसात के बाद अभियान और तेज किया जाएगा.”  

इन सब के बीच एक अच्छी बात ये है कि जो माओवादी सरेंडर कर रहे हैं, उन्हें ओपन जेल में रखा जा रहा है. जहां ये अपने परिवार से आसानी से मिल सकते हैं. जहां कोई बैरक नहीं होती. अगर इन्हें सामान्य जेलों में रखा जाता तो इनके दुबारा संगठन में जाने की संभावना बनी रहती. लेकिन ओपन जेल मददगार साबित हुई हैं. 

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