राष्ट्रीय अति पिछड़ा मोर्चा के अध्यक्ष विजय कुमार चौधरी बिहार चुनाव में अपने लोगों के लिए क्यों मांग रहे 92 सीटें?
बिहार विधानसभा चुनाव के मद्देनजर यहां का अति पिछड़ा समुदाय फिर जोर-शोर से राजनीतिक चर्चा में आ गया है. बिहार चुनाव, अति पिछड़ा समुदाय के मुद्दों और मांगों पर राष्ट्रीय अति पिछड़ा मोर्चा के अध्यक्ष विजय कुमार चौधरी से पुष्यमित्र की बातचीत

बिहार में हाल के वर्षों में अति पिछड़ा समूह की चर्चा खूब बढ़ी है. जाति आधारित गणना में 36 फीसदी आबादी का पता चलने पर हर राजनीतिक पार्टी इन्हें अपने पाले में करने की कोशिश कर रही है. राजद का प्रदेश अध्यक्ष इसी समुदाय से चुना जाना तय है.
इस समूह की कई जातियां और जातियों के समूह अलग राजनीतिक पार्टी भी बना रहे हैं. मगर इन सबके बीच इस समुदाय के अपने सवाल चर्चा से गायब हैं. इस पूरे मसले को समझने के लिए हमने राष्ट्रीय अति पिछड़ा मोर्चा के अध्यक्ष विजय कुमार चौधरी से लंबी बातचीत की है. इसके संपादित अंश:
पिछले कुछ वर्षों से बिहार में अति पिछड़ों की राजनीतिक सक्रियता बढ़ी है. यह कब महसूस होने लगा था कि पिछड़ों के समूह में एक वर्ग और भी कमजोर है, जो अति पिछड़ा है ?
दरअसल अति पिछड़ा समाज उन जातियों से बना है, जिनमें नौकर-चाकर और परंपरागत व्यवसाय से जुड़े समुदाय होते हैं. इनमें घरेलू मजदूर, खेतिहर मजदूर, बढ़ई, कुम्हार, मल्लाह, नाई जैसी जातियां शामिल हैं. 1947 में ही संविधान सभा की बहस के दौरान यह स्वीकार कर लिया गया था कि पिछड़ों में भी दो समूह हैं. 1951 में बिहार सरकार द्वारा शिक्षा विभाग के जरिये कराए गए सर्वेक्षण में यह बात सामने आई कि पिछड़ा वर्ग में 79 जातियां अति पिछड़ी हैं. 30 जातियां पिछड़ी हैं. फिर इन्हें नामांकन और छात्रवृत्ति में विशेष प्रोत्साहन दिया जाने लगा. 1953 में बिहार में सरकारी नौकरियों में अति पिछड़ों की भागीदारी बढ़ाने की योजना बनी. उसी साल राष्ट्रीय स्तर पर काका कालेलकर आयोग का गठन हुआ और उस आयोग ने भी 837 जातियों को अति पिछड़ा माना.
1971 में कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया मगर अगले ही दिन उन्हें मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा. उसके बाद सीएम बने भोला पासवान शास्त्री ने मुंगेरीलाल कमीशन का गठन किया. इस कमीशन की रिपोर्ट में 93 जातियों को अति पिछड़ा वर्ग में रखा गया और 35 को पिछड़ा माना, जिसे 10 नवंबर, 1978 कर्पूरी जी ने लागू किया.
बिहार में हाल में हुए जाति आधारित गणना के आंकड़ों को देखें तो राज्य में दलितों और अति पिछड़ों के बीच कई मामलों में बहुत ज्यादा फर्क नहीं दिखता. ऐसा क्यों है?
जाति आधारित गणना में अति पिछड़ों की आबादी 36 फीसदी बताई गई थी मगर इसके बाद तांती और ततमा जाति को दलित समूह से हटाकर अति पिछड़ों में डाल दिया गया. ऐसे में अब हमारी आबादी लगभग 38 फीसदी हो गई है. बाकी जिस आठ फीसदी आबादी को रिजर्व रखा गया उनमें से ज्यादातर हमारी जाति के लोग हैं, यह हमारा दावा है. सही से जनगणना हो तो हमारी आबादी 45 फीसदी तक जा सकती है. लेकिन हमें हमारी हिस्सेदारी अभी तक नहीं मिल पाई है.
हमारा समाज शैक्षणिक और आर्थिक रूप से कमजोर है. सामाजिक रूप से भी निचले पायदान पर है. कर्पूरी ठाकुर इसे एक वर्ग के रूप में विकसित करना चाहते थे मगर हमारे समाजिक न्याय के पुरोधाओं- चाहे लालूजी हों, नीतीश जी हों, मुलायम जी हो या मायावती, इन सबने अपने हित में इस वर्ग को जाति के रूप में बदलने की कोशिश की. जबकि समाजवाद का मूल सिद्धांत था जातिवाद खत्म करना और जमीन का बंटवारा. इसके साथ सामाजिक सांस्कृतिक बदलाव. बाद में ये मुद्दे हाशिये पर चले गए.
अति पिछड़े उपेक्षा के शिकार रहे, उन्हें उनका हक नहीं मिला. ऐसा कहने का आपका आधार क्या है?
अभी शिक्षा के मसले पर बिहार में एक सर्वेक्षण हुआ. इसमें अति पिछड़ों को सबसे वंचित माना गया, हम दलितों से भी काफी पीछे हैं. नौकरी के मामले में भी हमारी हिस्सेदारी काफी कम है. हमलोग छोटी-छोटी जातियों में बंटे हैं. इस बंटे हुए समाज को एकत्रित होने नहीं दिया जा रहा. अभी मूल अति पिछड़ा वर्ग के मात्र 18 विधायक हैं. 2020 के विधानसभा चुनाव में तीस जीते थे, जिनमें से आठ तेली, एक तमोली और एक दांगी विधायक थे. इन तीन जातियों को नीतीश जी ने 2015 में अति पिछड़ा समूह में शामिल करा दिया गया, जिन्हें हम मूल अति पिछड़ा समूह से अलग मानते हैं. दस सीटें वही ले रहे हैं. 2015 में अति पिछड़ों के 19 विधायक थे. 2010 में 17, 2005 में 19, 2000 में 14, 1995 में 14, 1990 में आठ विधायक अति पिछड़े थे.
इस तरह आज की तारीख तक मूल अति पिछड़ा समूह के अधिकतम 20 विधायक हुए जो 243 सीटों की विधानसभा में साढ़े सात परसेंट से भी कम है. अगर 38 फीसदी आबादी के हिसाब से देखा जाए तो विधानसभा में हमारे 92 विधायक होने चाहिए, विधान परिषद में 15 विधायक होने चाहिए. 14 सीटें लोकसभा में और छह राज्यसभा में. अभी विधान परिषद में सिर्फ छह अति पिछड़े हैं. मूल अति पिछड़े चार ही हैं. राज्य सभा में तीन हैं, उनमें एक तेली हैं. लोकसभा में छह हैं, उसमें सभी मूल अति पिछड़े हैं.
राजनीतिक मंचों पर अति पिछड़ों इतनी ज्यादा चर्चा होती है, इसके मुकाबले प्रतिनिधित्व बहुत कम है. इसकी वजह क्या है?
हमलोग आर्थिक रूप से काफी कमजोर हैं. मानसिक रूप से भी ज्यादा सबल नहीं हो पाए हैं. पेट हमलोगों को सबकुछ कराने के लिए मजबूर करता है. अभी-भी हमारी बड़ी आबादी अपने मालिकों की बात पर चलती है. बड़ी पार्टियां अभी भी पर्याप्त टिकट नहीं देतीं. दोनों गठबंधन मिलाकर 243 में से 30 सीटें भी नहीं देते. जिसकी जितनी संख्या भारी के हिसाब से देखा जाए तो हमें 92 टिकट मिलने चाहिए.
इस बीच में आपने तेली, तमोली और दांगी जाति का जिक्र छेड़ दिया है, यह क्या मसला है?
इन तीनों जातियों के हमारे साथ आने के बाद स्थानीय निकाय में अति पिछड़ों के लिए आरक्षित सीटों के 70-80 फीसदी हिस्सों पर इन्हीं का कब्जा हो गया है. ये हमसे अधिक शिक्षित और अमीर हैं. अति पिछड़ों के लिए रिजर्व मेयर की तीनों सीटों पर तेली जाति का कब्जा है. इसके अलावा इस जाति के दो और लोग जनरल सीट पर मेयर बने हैं. जो जाति राजनीतिक रूप से इतनी सशक्त हैं, उन्हें अति पिछड़ा समूह में डालने की क्या जरूरत थी? जिला परिषद अध्यक्ष की हमारी सात रिजर्व सीटों में से छह पर इनका कब्जा है. अभी व्याख्याताओं की बहाली हुई है, इसमें 50 से 60 प्रतिशत हमारे रिजर्व पदों पर इन्हीं तीन जातियों को सफलता मिली.
इसके पीछे राजनीतिक साजिश भी है. 2015 में लालू जी और नीतीश जी एक साथ थे. दोनों पिछड़ा समूह के हैं. उस वक्त ये तीनों जातियां कई मामलों में यादव, कोइरी, कुर्मियों को टक्कर दे रही थीं. ऐसे में उन्होंने इसे हमारे हिस्से में डाल दिया. सबसे बुरी बात है कि नीतीश जी ने अति पिछड़ा समूह में 15 जातियों को शामिल करा दिया मगर हमारा आरक्षण एक फीसदी भी नहीं बढ़ाया.
अब तो सूढ़ी जाति भी खुद को अति पिछड़ा समूह में डालने की मांग कर रही है.
सूढ़ी तो इन तीनों जातियों से भी सबल है. अभी सूढ़ी और कलवार जाति के आठ विधायक हैं. बड़े धन्नासेठ सूढ़ी ही हैं, वही वैश्यों के अगुआ हैं. वे भी हमारा फायदा उठाना चाहते हैं.
बिहार में 1990 से खुद को 'सामाजिक न्याय' का अगुआ बताने वाली सरकारें रही हैं. इनके कार्यकाल को अति पिछड़ा वर्ग के लोग कैसे आंकते हैं?
इन सरकारों का हमें सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि हमें आवाज मिली, मन बुलंद हुआ, स्वाभिमान जगा है. यह सबसे बड़ी उपलब्धि है. हम उन लोगों के ऋणी हैं. 1995 से लालू जी ने हमारी छोटी-छोटी जातियों के लोगों को विधान परिषद और राज्यसभा में भेजना शुरू किया. इससे हमारी राजनीतिक जागरुकता बढी. हमारा आरक्षण भी बढ़ा हालांकि कुछ बेइमानियां भी हुईं, फिर भी लाभ तो हुआ. आरक्षण समानुपातिक नहीं बढ़ा. उन लोगों ने अपने पिछड़ा समूह को अधिक लाभ दिया.
फिर अति पिछड़ों को नीतीश जी का वोटर क्यों कहा जाता है?
लालू जी ने अपने वक्त में अति पिछड़ों की सौ सीटों पर पिछड़ों को नौकरी दे दी थी. इसके खिलाफ हमारे युवा सुप्रीम कोर्ट गए, तब जाकर उनकी बहाली हुई. इससे यह लगने लगा कि वे अति पिछड़ों के दुश्मन हैं. 1995 में पटना हाई कोर्ट ने कहा जिन जातियों को प्रतिनिधित्व नहीं है, उन्हें पंचायत में आरक्षण मिलना चाहिए. मगर लालूजी बिगड़ गए कि केवल अति पिछड़ा क्यों, पिछड़ों को भी आरक्षण मिलेगा. इसका राजनीतिक फायदा नीतीश जी ने उठाया, बोले हम सरकार में आएंगे तो आप लोगों को आरक्षण देंगे. उन्होंने वादा पूरा किया. हालांकि हमें 35 फीसदी आरक्षण मिलना चाहिए मगर असल में 17.3 फीसदी ही मिला. फिर भी हम खुश हो गए. उन्होंने न्यायपालिका में 21 फीसदी आरक्षण दिया और कई योजनाएं चलाईं. बस एक ही गलती हुई कि उन्होंने 15 जातियों को अति पिछड़ा में घुसा दिया. अभी कुछ अति पिछड़ी जातियां नीतीश के प्रति मोहभंग हुआ तो वे बीजेपी की तरफ जाने लगे. अब कुछ लोग कांग्रेस की तरफ भी जा रहे हैं.
लालू जी कहते थे, बैलेट बॉक्स से 'जिन्न' निकलता है, बाद में कहा गया कि यह 'जिन्न' दरअसल अति पिछड़ा समाज है. जिन्न से तुलना क्यों?
दरअसल ये जातियां चुपचाप रहती हैं और जिसको चाहती हैं, वोट देकर सत्ता में ले आती हैं. अति पिछड़े उतने मुखर नहीं हैं. डर से चुप रहते हैं. ये लोग समाज के दबंग लोगों से उलझना नहीं चाहते. हालांकि नीतीश जी के समय में वे थोड़े मुखर होने लगे हैं. अब हम लोग अपने अस्तित्व के बारे में भी सोचने लगे हैं. लगता है कि अगर हम 38 फीसदी हैं तो अपने बारे में क्यों नहीं सोचें. अभी जितनी पार्टियां हैं, सब अति पिछड़ों को अपनी तरफ खींचने की कोशिश कर रही हैं. चाहे बीजेपी हो, जदयू हो, राजद हो, कांग्रेस या जनसुराज ही क्यों न हो. अब पार्टियां भी ज्यादा प्रतिनिधित्व देने का वादा कर रही हैं. यह जागरुकता भी है कि हम क्यों किसी को सत्ता में लाएं, अपनी पार्टी क्यों न बनाएं.
अभी अति पिछड़ा एक राजनीतिक समूह नहीं बन पाया है. वह कई जाति समूहों में बंटा है. निषादों में 23 जातियां हैं और नौ फीसदी वोटर हैं. उसी तरह अब पान समूह भी बन रहा है. इसके अलावा चंद्रवंशी हैं, वैश्य हैं, मुस्लिम अति पिछड़े हैं. सब टुकडों में बंटे हैं.
सबसे बड़ी समस्या यही है कि हमारे समाज में एकजुटता नहीं हो पा रही. कुछ क्षत्रिय बनने की कोशिश में हैं, कुछ दलित बनने में जुटे हैं. विधानसभा, विधान परिषद में आरक्षण मिले, दलितों की तरह हमें भी अलग एट्रोसिटी (उत्पीड़न) एक्ट मिले और प्रोमोशन में आरक्षण मिल जाए. हमारी यही तीन मांग हैं. हम एकजुट रहेंगे तभी यह पूरा होगा. हमारा मुद्दा यही रहना चाहिए. अभी मुद्दा सिर्फ एमपी-एमएलए बनना रह गया है. हमारे समाज के एमपी-एमएलए ही हमारे समाज का क्या काम कर रहे हैं. ये तो पार्टी के पिट्ठू बन जा रहे हैं.
अति पिछड़ों में 112 जातियां हैं, मगर उनमें भी एक फीसदी आबादी वाली सिर्फ 11 जातियां हैं. 70 जातियां ऐसी हैं, जिनकी आबादी एक लाख से भी कम है. 65 जातियों की आबादी 30 हजार से भी कम है. 35 जातियों की आबादी दस हजार से भी कम है. इतने छोटे-छोटे समूह क्यों बन गए हैं?
अलग-अलग जगहों पर एक ही पेशे को करने वाले लोगों की अलग-अलग जातियां बन गई हैं. पहाड़ पर रहने वाली एक ही पेशेवाली अलग जाति है, मैदान में अलग. अब हमें अपने लोगों को समझाना है कि छोटी-छोटी जातियों के आधार पर काम करने से नहीं होगा. हम सबको मिलकर साथ आना होगा क्योंकि हमारी दिक्कतें एक समान हैं. एकीकरण की प्रक्रिया भी चल रही है. निषादों में चली है, कहारों में चल रही है. मगर प्रक्रिया धीमी है. हालांकि सरकार इसमें सहयोग नही करती. हमें एकजुट होने नहीं देती. हमारे प्रस्ताव को अस्वीकार कर दे रही है.
जाति आधारित गणना से क्या फायदा है?
इससे वास्तविक स्थिति का पता चल गया. हालांकि हम लोग इन आंकड़ों को सही नहीं मानते. उनकी सत्यता पर सवाल है, क्योंकि जिलावार प्रखंड के हिसाब से आंकड़ा प्रकाशित नही किया. हम लोगों ने डेटा मांगा तो वह भी नहीं मिला. मगर जो भी हो. यह तो पता चला कि बिहार में सबसे बड़ी आबादी हमारी है. दूसरा शैक्षणिक स्तर पर हम काफी पिछड़े हैं. ड्रॉप आउट रेट सबसे अधिक हम लोगों में ही है. तीसरा झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले सबसे अधिक हम ही हैं. सरकारी नौकरी में सबसे कम हम ही हैं, 36 फीसदी होना चाहिए लेकिन 22 फीसदी ही हमारी भागीदारी है. अगर सही से पता चले तो हमारी स्थिति और भयावह नजर आएगी. अब हमारा समाज अछूतों वाले पेशे में उतरने लगा है. स्थिति काफी भयंकर है.
इस जाति आधारित गणना के बाद सरकार ने अति पिछड़ों की बेहतरी के लिए क्या किया? क्या उससे कोई फायदा हुआ?
कोई वादा नहीं निभाया गया. 65 फीसदी आरक्षण का लॉलीपॉप जरूर दिखाया गया था. उसमें भी हमारी हिस्सेदारी ठीक नहीं थी. खुद 18 फीसदी ले लिए और हमें सिर्फ 25 फीसदी हिस्सा दिया. कर्पूरी ठाकुर के हिसाब से ही चलें, जिसमें अति पिछड़ों को पिछड़ों से डेढ़ गुना अधिक आरक्षण मिलना चाहिए तो हमारा हिस्सा 27 फीसदी बनता है. वहां भी दो परसेंट का नुकसान कर दिया. हाईकोर्ट ने उसे इसलिए रिजेक्ट किया वह तार्किक रूप से सही नहीं है. अगर सरकार हाईकोर्ट में सही ढंग से मांग रखती, अति पिछड़ों की बात रखती तो ऐसी स्थिति नहीं आती.
बार-बार रोहिणी कमीशन की चर्चा होती है. क्या वह अति पिछड़ों के लिए सचमुच फायदेमंद है?
मंडल आयोग ने पिछड़ों के आरक्षण की वकालत की थी, मगर उसने अति पिछड़ों के लिए अलग से आरक्षण की सिफारिश नहीं की. इसका नतीजा यह हुआ कि केंद्रीय सेवा में हम अति पिछड़ों की समुचित भागीदारी नहीं हो पाई. ऐसे में पिछड़ा वर्ग आयोग ने सुझाव दिया था कि इस समूह को तीन भागों में बांट दिया जाए. बीजेपी सरकार ने इसकी सत्यता की जांच के लिए रोहिणी कमीशन का गठन किया. रोहिणी कमीशन ने केंद्रीय कर्मचारियों का सर्वे किया है और 2023 में अपनी रिपोर्ट दी कि मात्र 2.7 फीसदी जातियां ही 97 फीसदी नौकरियों पर काबिज हैं इसलिए बंटवारे की जरूरत है.
देश की 837 जातियों का केंद्र सरकार की नौकरियों में शून्य प्रतिनिधित्व है. अभी केंद्रीय सूची में 2633 जातियां हैं. इनमें 998 जातियों को सिर्फ 2.5 परसेंट नौकरियां मिली हैं. जब दो हजार जातियां मंडल आरक्षण से कोई फायदा नहीं ले पा रही है, तो दिक्कत की बात है. ऐसा सुना कि यह सरकार चार भागों में बांटना चाहती है. मगर वे भी फाइल दबाकर बैठे हैं. हमारी मांग है कि उसे लागू करें. आरक्षण का लाभ तो समाज के अंतिम व्यक्ति को पहले मिलना चाहिए.
कर्पूरी ठाकुर को अति पिछड़ों का सबसे बड़ा आइकन माना जाता है, उन्हें भारत रत्न भी मिला. इस समाज के लिए कर्पूरी ठाकुर की क्या भूमिका रही?
आज कर्पूरी ठाकुर की वजह से ही हम लोग आपके साथ कुर्सी पर बैठकर बातें कर रहे हैं. उनके पहले तो नगण्य थे, नौकर-चाकर का काम करते थे या जातिगत पेशे में थे. उन्होंने आरक्षण दिया तो हमारे कुछ लोग नौकरी में आए. अपना हक-अधिकार समझने लगे, थोड़ा आर्थिक सशक्तीकरण हुआ, थोड़ी राजनीतिक जागरुकता आई. हमारे बीच से निम्न मध्यम वर्ग पैदा हुआ. हम लोग आगे बढ़ रहे हैं. हमें पूरे समाज का नेतृत्व करने का मौका मिले, सामाजिक न्याय का पार्ट टू यही है.
आप लोगों की सरकार से, बड़ी राजनीतिक पार्टियों से, समाज से क्या मांग है?
हमारी मांगों को कुछ यूं समझिए -
1. हमारे ज्यादातर लोग भूमिहीन हैं. नीतीश सरकार ने भूमिहीनों को पांच डिसमिल जमीन देने की घोषणा की थी और बाद में उसे तीन डिसमिल कर दिया था. उसे ठीक से लागू करना चाहिए. हमें बसने के लिए कम से कम जमीन चाहिए.
2. प्राइवेट शैक्षणिक संस्थानों में हमें आरक्षण मिले.
3. अति पिछड़ों के साथ शोषण और अपराध अधिक होता है. हमलोग सहनशील और भाग्यवादी हैं, इसलिए कोई हमको दबा देता है. प्रतिकार की भावना नहीं हैं. आप इसकी गिनती करा लें और हमें दलितों की तरह अति पिछड़ों के लिए भी एट्रोसिटी एक्ट दे दें.
4. पंचायती राज व्यवस्था में हमारा आरक्षण बढ़े.
5. हमारे बीच जिन सबल जातियों को घुसा दिया गया है, उन्हें अलग से आरक्षण दे दें, हमारे कोटे से ही. जिससे कि हमें भी लाभ मिलता रहे. हमारा हक अधिकार नहीं छिने.
6. राजनीतिक पार्टियां हमें आबादी के हिसाब से सीटें दें. हमारा हक 92 सीटों का है, दोनों गठबंधन हमें 50-50 सीटें भी दे दें तो हमारा मन खुश हो जाएगा.
अपने समाज को क्या कहना चाहते हैं?
अपने आप को मजबूत करो. तुम्हारे पास जनसंख्या की ताकत है, यह तुम्हारी स्थिति बदल सकती है. तुम्हारे पूर्वजों में एक से एक बड़े लोग हैं. अपने आप को जानो. आत्मबल मजबूत करो. वैचारिक रूप से मजबूत हो और सबके साथ न्याय की बात करो.